ई.1556 में मुगलों का सर्वाधिक शक्तिशाली बादशाह अकबर आगरा एवं दिल्ली के तख्त पर बैठा। दुर्भाग्य से ई.1562 में आम्बेर के कच्छवाहों ने अपने घरेलू क्लेश से छुटकारा पाने के लिये, अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा मेवाड़ के गुहिलों की सेवा त्याग दी। कच्छवाहों के अनुकरण में जोधपुर एवं बीकानेर के राजाओं ने भी, गुहिलों की मित्रता छोड़कर, अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपने-अपने राज्यों को सुरक्षित बनाने का प्रयास किया। हिन्दू राजाओं की इस कार्यवाही से गुहिल, राजपूताने में अलग-थलग पड़ गये।
ई.1567 में मालवा का सुल्तान बाजबहादुर (बायजीद), अकबर के सेनापति अब्दुलाहखां के भय से, मालवा छोड़कर, महाराणा उदयसिंह की शरण में आया। उदयसिंह ने उसे अपने पास रख लिया। इस पर अकबर बहुत क्रुद्ध हुआ और स्वयं सेना लेकर चित्तौड़ की ओर बढ़ा।[1] उसके सेनापतियों ने सिवीसुपर (शिवपुर), कोटा, गागरौन एवं माण्डलगढ़ पर अधिकार कर लिया। महाराणा ने अपने सरदारों को चित्तौड़ की रक्षा के लिये बुलाया।
इस पर जयमल वीरमदेवोत, रावत सांईदास चूंडावत, ईसरदास चौहान, राव बल्लू सोलंकी, डोडिया सांडा, राव संग्रामसिंह, रावत साहिबखान, रावत पत्ता, रावत नेतसी आदि सरदार चित्तौड़ आ गये। इन सरदारों ने महाराणा को सलाह दी कि गुजराती सुल्तान से लड़ते-लड़ते मेवाड़ कमजोर हो चुका है इसलिये आपको अपने परिवार सहित पहाड़ों की तरफ चले जाना चाहिये। इस पर महाराणा, राठौड़ जयमल और सिसोदिया पत्ता को दुर्ग सौंपकर, रावत नेतसी आदि कुछ सरदारों सहित मेवाड़ के पहाड़ों में चला गया और किले की रक्षार्थ 8000 राजपूत रहे। [2]
विचित्र दृश्य था, कल तक आम्बेर के कच्छवाहे तथा जोधपुर और बीकानेर के राठौड़, चित्तौड़ की रक्षा करने में अपना गर्व समझते थे, आज वे अकबर की चाकरी स्वीकार कर चित्तौड़ का मानभंजन करने को तलवारें निकालकर खड़े थे। इतना अवश्य था कि मेड़ता के राठौड़ अब भी गुहिलों के कंधे से कंधा लगाकर चित्तौड़ के रक्षक बने हुए थे। मुट्ठी भर चौहान, सोलंकी, डोडिया और झाला भी चित्तौड़ के लिये मरने-मारने को तैयार थे।
भले ही चित्तौड़ के रक्षक थोड़े से थे किंतु इनके सामने ‘अकबर’ की दाल गलनी कठिन थी। कई महीनों के घेरे के बाद अकबर ने किले की दीवारों में सुरंगें बनाकर उनमें बारूद भर दिया और किले की दीवारों को उड़ा दिया। एक रात, दुर्ग की दीवारों की मरम्मत करवाते समय जयमल, अकबर की बंदूक की गोली से घायल हो गया तथा उसकी एक टांग बेकार हो गई, फिर भी हिन्दू सरदार डटे रहे।
जब दुर्ग में भोजन सामग्री समाप्त होने को आई तो हिन्दू सरदारों ने केसरिया करने का निर्णय लिया। एक रात हिन्दू स्त्रियों और बच्चों ने जौहर किया। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही हिन्दू वीर, दुर्ग का द्वार खोलकर शत्रु पर टूट पड़े। जयमल ने अपने कुटुम्बी कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर युद्ध किया। वे दोनों वीर, हाथों में नंगी तलवारें लेकर लड़ते हुए हनुमान पोल और भैरव पोल के बीच में काम आये।[3] डोडिया सांडा घोड़े पर सवार होकर शत्रु सेना को काटता हुआ गंभीरी नदी के पश्चिमी तट पर काम आया।[4]
राजपूतों का प्रचण्ड आक्रमण देखकर अकबर ने कई सधाये हुए हाथियों को सूण्डों में खाण्डे पकड़ाकर आगे बढ़ाया। कई हजार सवारों के साथ अकबर भी हाथी पर सवार होकर किले के भीतर घुसा। ईसरदास चौहान ने एक हाथ से अकबर के हाथी का दांत पकड़ा और दूसरे हाथ से सूण्ड पर खंजर मारकर कहा कि गुणग्राहक बादशाह को मेरा मुजरा पहुँचे।[5] इसी तरह हिन्दू वीरों ने कई हाथियों के दांत तोड़ डाले और कइयों की सूण्डें काट डालीं जिससे कई हाथी वहीं मर गये और बहुत से दोनों तरफ के सैनिकों को कुचलते हुए भाग निकले। पत्ता चूण्डावत बड़ी बहादुरी से लड़ा परंतु एक हाथी ने उसे सूण्ड से पकड़कर पटक दिया जिससे वह सूरजपोल के भीतर काम आया। [6]
रावत साईंदास, राजराणा जैता सज्जावत, राजराणा सुलतान आसावत, राव संग्रामसिंह, रावत साहिबखान, राठौड़ नेतसी आदि राजपूत सरदार मारे गये।[7] सेना के साथ प्रजा का भी खूब विनाश हुआ क्योंकि इस युद्ध में प्रजा ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया था। राजपूत सेना के नष्ट होने जाने के बाद ‘अकबर महान’ ने चित्तौड़ दुर्ग में कत्लेआम की आज्ञा दी। दुर्ग में एक भी हिन्दू जीवित न बचा। 25 फरवरी 1568 को दोपहर के समय अकबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया और तीन दिन वहाँ रहकर अब्दुल मजीद आसफखां को दुर्ग का अधिकारी नियुक्त करके वह अजमेर की तरफ रवाना हुआ।[8] जयमल और पत्ता को तो अकबर अपने अधीन नहीं कर सका किंतु हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण प्रतिमाएं बनाकर आगरा के दुर्ग के द्वार पर खड़ी करवाईं। [9]
चित्तौड़गढ़ हाथ से निकल जाने के चार-पांच माह बाद उदयसिंह अपने बचे हुए हिन्दू सैनिकों के साथ उदयपुर पहुँचा और अपने अधूरे पड़े महलों को पूरा कराया।[10] चित्तौड़ के पतन के एक वर्ष बाद, फरवरी 1569 में अकबर ने महाराणा के दूसरे सबसे सुदृढ़ दुर्ग रणथंभौर पर घेरा डाला। उस समय राव सुरजन हाड़ा रणथंभौर दुर्ग पर महाराणा की ओर से दुर्गपति (किलेदार) नियुक्त था। लगभग एक माह की घेराबंदी और गोलाबारी के बाद सुरजन ने संधि करना स्वीकार कर लिया। राजा भगवानदास कच्छवाहा और उसके पुत्र मानसिंह ने यह संधि करवाई। 21 मार्च 1569 को सुरजन हाड़ा, अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने अकबर को दुर्ग की चाबियां सौंप दीं तथा महाराणा की सेवा छोड़कर अकबर की सेवा स्वीकार कर ली। [11]
ई.1568 में चित्तौड़ से निष्क्रमण के पश्चात् महाराणा उदयसिंह प्रायः कुम्भलगढ़ में रहने लगा क्योंकि उदयपुर नगर उस समय तक पूरा बसा नहीं था। ई.1572 में उदयसिंह कुंभलगढ़ से गोगूंदा आया, 15 फरवरी 1572 को वहीं उसका देहांत हुआ जहाँ उसकी छतरी बनी हुई है। [12]
[1] अबुल फजल, अकबरनामा, (एच. बैवरिज कृत अंग्रेजी अनुवाद), जि. 2, पृ. 464.
[2] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 74-75.
[3] आज भी इस स्थान पर दोनों के स्मारक बने हुए हैं।
[4] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 80-81.
[5] अकबर ने ईसरदास को अपने पास बुलाकार अपनी सेवा में रखने तथा उसे जागीर देने का लालच दिया था। ईसरदास ने अकबर से कहा था कि वह फिर कभी आकर गुणग्राहक बादशाह को मुजरा करेगा। इसीसे ईसरदास ने ‘गुणग्राहक बादशाह को मुजरा पहुँचे’ कहकर अकबर पर व्यंग्य किया।
[6] अकबरनामा, अंग्रेजी अनुवाद, जि. 2, पृ. 473-75.
[7] श्यामलदास, भाग-2, पृ. 82.
[8] अकबरनामा, अंग्रेजी अनुवाद, जि. 2, पृ. 475-76.
[9] ई.1663 में फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने भी इन्हें देखा था। -बर्नियर्स ट्रैवल्स, स्मिथ(सम्पादित), पृ. 256; अनुमान है कि औरंगजेब ने इन मूर्तियों को तुड़वाया क्योंकि उसने ई.1669 में उत्तर भारत में समस्त मूर्तियों एवं मंदिरों को गिराने के आदेश दिये थे।
[10] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 83.
[11] ब्लॉकमैन, आइने अकबरी का अंग्रेजी अनुवाद, जि. 1, पृ. 409.
[12] ओझा, पूर्वोक्त, पृ. 421.