महाराज की कृपा फिर से पाने के बाद गुलाब अकिंचन नहीं रही। अब वह पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरी। गुलाब के बाग में महाराज के गढ़ जैसा अनुशासन नहीं था। नितांत एकांत में गुलाब का सान्निध्य पाकर महाराज उसके मोह पंक में और भी गहरे जा धंसे। इतने गहरे कि महाराज का उस मोह-पंक से निकलना संभव नहीं रह गया। गुलाब ने निश्चय किया कि उसे गढ़ की कृपा पर निर्भर नहीं रहना है। अपने लिये कोई पक्की व्यवस्था करनी है ताकि फिर कभी किसी महाराणी से सामना हो तो उसके पैरों के तले ठोस धरातल उपलब्ध रहे। राणियों और मुत्सद्दियों के बीच रहकर गुलाब इतना अवश्य समझने लगी थी कि पैरों के नीचे का धरातल कैसे मजूबत किया जाता है!
एक दिन अवसर पाकर गुलाब ने महाराज से निवेदन किया कि उसका पुत्र तेजकरणसिंह राणियों के कुँवरों की भाँति सुरक्षित नहीं है। जाने कौन दिन कैसा आये, इसलिये आज ही उसे पृथक जागीर दे दी जाये। महाराज के लिये यह अनुरोध स्वीकार करना कोई कठिन कार्य नहीं था। उसने मूण्डवा, पीपाड़, दांतीवाड़ा और बिरानी गाँवों की जागीरें तेजकरण सिंह को दे दीं। गुलाब नेे महाराजा से तेजकरणसिंह के नाम इन गाँवों का पट्टा भी प्राप्त कर लिया। गढ़ में बैठी राणियों को इस बात की कानों कान सूचना न हुई। जब तक राज्य के मुत्सद्दियों तक यह सूचना पहुँचती, गुलाब ने महाराज के विशेष सिपाहियों को भेजकर नवसृजित जागीर पर दृढ़ता से अधिकार कर लिया।
जब जागीर में गुलाब की धाक जम गई तो गुलाब ने गंगाजी नहाने के लिये हरिद्वार की यात्रा करने का मन बनाया। महाराज ने भारी मन से गुलाब को हरिद्वार जाने की अनुमति दी। हरिद्वार यात्रा से लौटने के पश्चात् उसकी इच्छा हुई कि नाथद्वारा और द्वारिका में जाकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करे। महाराज नहीं चाहते थे कि गुलाब उन्हें छोड़कर एक पल के लिये भी कहीं जाये किंतु गुलाब का मन जितना महाराज के सान्निध्य में प्रसन्न रहता था उससे कहीं अधिक आकर्षण वह केशव के चरणों में अनुभव करती थी। राजा ने भारी मन से उसे नाथद्वारा और द्वारिका जाने की अनुमति दे दी। महाराज के विश्वस्त कारभारी और सैनिक, गुलाब की जागीर की रक्षा कर रहे थे इसलिये गुलाब उस ओर से निश्चिंत थी।
जितने दिनों तक गुलाब तीर्थ यात्रा पर रही, उतने दिनों तक मरुधरपति के कण्ठ से निवाला नीचे नहीं उतरा। उसका ध्यान निशि-वासर गुलाब की ओर लगा रहता। कौन जाने आज गुलाब ने कहाँ विश्राम किया होगा! कौन जाने मेरी गुलाब ने आज भोजन किया होगा कि नहीं! वैसे भी वह उपवास अधिक करती है। कभी एकादशी तो कभी पूनम। कभी सोमवार तो कभी गुरुवार, उसे तो बस उपवास करने का बहाना चाहिये। जिस दिन गुलाब उपवास करती थी, मरुधरपति भी प्रायः उपवास कर लिया करता था किंतु अब उसे कैसे ज्ञात हो कि आज उसकी गुलाब ने उपवास रखा है कि भोजन किया है!
मरुधरपति की बेचैनी बढ़ने लगी तो उसने एक दासी को आदेश दिया कि वह हर प्रातः महाराजा को सूचित करे कि आज कौनसी तिथि है। महाराजा के आदेशानुसार जब दासी महाराजा को तिथि के बारे में सूचित करती तो महाराजा उससे पूछता- ‘क्या आज के दिन गोकुलिये गुसांई उपवास करते हैं? तो दासी हैरान रह जाती, महाराजा यह प्रश्न उससे क्यों करते हैं, वे स्वयं गोकुलिये गुसांईयों को बुलाकर पूछ सकते हैं! किंतु दासी का साहस नहीं होता कि महाराजा को कुछ सुझाव दे। इसलिये अपने अनुमान से वह हाँ या ना कह देती। महाराजा ने दासी को सख्त निर्देश दे रखे थे कि किसी को कानों कान सूचना नहीं हो कि महाराजा उससे प्रतिदिन प्रातः क्या पूछते हैं! इस प्रकार इधर मरुधरपति उपवास पर उपवास करता रहा और उधर गुलाब मुकाम दर मुकाम आगे बढ़ती हुई भगवान केशव के धामों की यात्रा करती रही।
तीर्थयात्रा पूरी करके जब गुलाब द्वारिका से लौटकर मारवाड़ की सीमा पर पहुँची तो उसके सेवकों ने जोधपुर आकर मरुधरपति को पासवान के मारवाड़ में प्रवेश करने की सूचना दी। जिस सेवक ने मरुधरपति को यह शुभ समाचार सुनाया, मरुधरपति ने उसे अपने कण्ठ से मोतियों की चार लड़ी माला निकाल कर दी। मरुधरपति अपनी पासवान को लेने के लिये स्वयं घोड़े की पीठ पर बैठकर उसके मार्ग में कई कोस आगे गया। उसने अपनी प्रीतपात्री के चरणों में जालौर और सांचोर परगने प्रेम के प्रतिदान के रूप में समर्पित किये।
इन लम्बी यात्राओं के बाद गुलाब में परिपक्वता और दृढ़ता विकसित हुई। उसने मराठों के द्वारा कुचले जा रहे उत्तरी भारत के रजवाड़ों की दुर्दशा को अपनी आँखों से देखा। निर्दय संसार को निकट से देखने और जानने का अवसर मिला। मराठों द्वारा चारों ओर मचाई गई घनघोर लूट को देखकर वह अच्छी तरह जान गई कि छीनाझपटी और विश्वासघात के इस वातावरण में सफल वही है जो अधिक से अधिक जागीरें हड़पता और अपने विरोधियों को मौत के घाट उतारता चला जाता है।
दुर्ग के सुदृढ़ परकोटे और राजधानी के कड़े पहरे से बाहर निकलकर गुलाब ने चारों ओर चल रही समय की तेज आंधी को अपनी आँखों से देखा। उसने देखा कि इस युग में विश्वास, निष्ठा और सदाशयता की जड़ें हिल चुकी हैं। पैसा और पद आदमी के सिर पर चढ़ कर बोल रहे हैं। बड़े-बड़े सामंत रातों रात अपनी निष्ठायें बेच कर एक खेमे से दूसरे खेमे की ओर भाग रहे हैं। जहाँ एक ओर सामंतों और रजवाड़ों की ऐसी विचित्र स्थिति है वहीं दूसरी ओर साधारण प्रजा की दशा यह है कि बार-बार अकालों के चलते आदमी ही आदमी के शव खा रहा है। चारों ओर जानवरों के कंकाल बिखरे पड़े हैं और आकाश में चीलों तथा गिद्धों के झुण्ड मण्डराते घूम रहे हैं। ये वे दृश्य थे जो अब से पहले गुलाब की आँखों के सामने नहीं आये थे। इन दृश्यों ने गुलाब के दिल को छुआ। पहले तो वह इन दृश्यों से द्रवित हुई किंतु जब हर ठिकाणे में उसे ये दृश्य देखने को मिले तो वह भी उन्हीं दृश्यों के समान निर्दयी हो उठी। यही कारण था कि जो गुलाब तीर्थयात्रा पर गई थी और जो गुलाब लौट कर आई थी, उन दोनों में पर्याप्त अंतर था।