चौलुक्यों तथा चौहानों के बीच राज्य विस्तार को लेकर पिछली कई शताब्दियों से संघर्ष चला आ रहा था। अर्णोराज के समय में यह संघर्ष अपने चरम को पहुँच गया।
हालांकि अर्णोराज इस संर्घ को बढ़ाना नहीं चाहता था क्योंकि अर्णाराज अपने राज्य का विस्तार मालवा की तरफ करना चाहता था जबकि गुजरात का चौलुक्य शासक सिद्धराज जयसिंह अपने राज्य का विस्तार राजस्थान की ओर बढ़ाना चाहता था। इस कारण दोनों राज्य एक दूसरे से लड़कर राष्ट्र की क्षति करने में लग गए।
ई.1134 में सिद्धराज जयसिंह ने अजमेर पर आक्रमण किया किंतु अर्णोराज ने उसे परास्त कर दिया। इसके बाद हुई संधि के अनुसार सिद्धराज जयसिंह ने अपनी पुत्री कांचनदेवी का विवाह अर्णोराज से कर दिया। इससे दोनों राज्यों के बीच कुछ समय के लिये सुलह हो गयी। ई.1142 में चौलुक्य कुमारपाल, चौलुक्यों की गद्दी पर बैठा तो चाहमान-चौलुक्य संघर्ष फिर से तीव्र हो गया।
विख्यात लेखक एवं व्याकरणाचार्य जैन मुनि हेमचंद्र ने लिखा है कि अर्णोराज ने कुछ राजाओं को एकत्रित करके गुजरात पर धावा बोल दिया। अर्णोराज आक्रामक था और उसने चाहड से मिलकर गुजरात के सामंतों में फूट डालकर कुमारपाल की स्थिति को गंभीर बना दिया।
हर बिलास शारदा के अनुसार अर्णोराज, अपने श्वसुर सिद्धराज जयसिंह के दत्तक पुत्र बाहड़ को गुजरात का राजा बनाना चाहता था इसलिये उसने ई.1145 में कुमारपाल पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कुमारपाल हार गया तथा उसने अपनी बहिन देवलदेवी का विवाह अर्णोराज के साथ कर दिया।
अर्णोराज तथा कुमारपाल के बीच दूसरा युद्ध ई.1150 के आसपास हुआ। जयसिंह सूरी, जिनमण्डन, चरित्र सुंदर तथा प्रबंध कोष के अनुसार एक समय अर्णोराज और उसकी स्त्री देवलदेवी जो कि कुमारपाल की बहिन थी, चौपड़ खेलते समय हास्य विनोद में एक दूसरे के वंश की निंदा करने लगे।
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हास्य-विनोद, वैमनस्य में बदल गया जिसके फलस्वरूप देवलदेवी ने अपने भाई कुमारपाल चौलुक्य को अपने पति अर्णोराज चौहान पर आक्रमण करने के लिये उकसाया। कुमारपाल ने अर्णोराज पर आक्रमण कर दिया।
जब अर्णोराज को यह ज्ञात हुआ कि कुमारपाल अपनी सेना लेकर अजमेर की ओर आ रहा है तो अर्णोराज भी अपनी सेना लेकर गुजरात की ओर चल पड़ा। आबू के निकट दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें कुमारपाल ने अर्णोराज को परास्त कर दिया। चौलुक्यों की विजयी सेना अजमेर तक आ पहुँची परंतु वह सुदृढ़ दीवारों को पार करके नगर में नहीं घुस सकी। कुमारपाल को हताश होकर अजमेर से लौट जाना पड़ा।
कुछ समय बाद एक बार फिर अर्णोराज ने अपनी विफलता का बदला लेने की योजना बनाई। इस बार फिर चौलुक्य आगे बढ़ते हुए अजमेर तक आ पहुँचे तथा एक बार पुनः अर्णोराज की करारी हार हुई। इस प्रकार ई.1150 में चौलुक्य कुमारपाल ने अजमेर पर अधिकार कर लिया।
पराजित अर्णोराज को विजेता कुमारपाल के साथ अपनी बहिन का विवाह करना पड़ा तथा हाथी-घोड़े भी उपहार में देने पड़े। इस पराजय से अर्णोराज की प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुँचा। फिर भी उसके राज्य की सीमाएं अपरिवर्तित बनी रहीं।
इस विजय के बाद कुमारपाल चित्तौड़ दुर्ग में गया जहाँ उसने एक शिलालेख खुदवाकर लगवाया जिसमें अपनी अजमेर विजय का उल्लेख किया।
रास माला के अनुसार अजमेर की सेना का नेतृत्व सोमेश्वर ने किया। सोमेश्वर चौलुक्यों का भानजा था, इस कारण कुमारपाल की सेना में युद्ध के दौरान संशय बना रहा किंतु जब अर्णोराज लोहे की एक बर्छी लग जाने से गिर गया तो युद्ध अचानक ही समाप्त हो गया और चौलुक्यों की अकस्मात् विजय हो गई।
राजा अर्णोराज के तीन पुत्र थे। उनमें से जगदेव तथा विग्रहराज (चतुर्थ) का जन्म मारवाड़ की राजकुमारी सुधवा के गर्भ से हुआ था जबकि सोमेश्वर का जन्म अन्हिलवाड़ा पाटन की राजकुमारी कंचनदेवी के गर्भ से हुआ था। सोमेश्वर का बचपन सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में बीता था।
इस दोहरी पराजय से चौहानों की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा किंतु कुछ समय बाद ही अर्णोराज ने गजनवियों को परास्त करके खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली। उसने अपनी विजय पताका सांभर झील से आगे बढ़कर सिंधु और सरस्वती नदी के प्रदेशों में फहरा दी तथा जिससे सांभर के चौहान उत्तरी भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गए।
चौहान शासक अर्णोराज धर्मप्रिय, विद्वानों का सम्मान करने वाला तथा प्रजापालक राजा था किंतु दुर्भाग्य उसके पीछे लगा रहता था जिसके कारण वह चौलुक्यों को कई बार सम्मुख युद्ध में पराजित कर देने के बद भी अचानक तीर लग जाने से परास्त हो गया।
अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के बाद, इससे पहले कि अर्णोराज, चौलुक्यों से अपनी पुरानी पराजयों का बदला लेता, अर्णोराज के बड़े पुत्र जग्गदेव ने ई.1155 में राज्य के लालच में अर्णोराज की हत्या कर दी।
इस प्रकार नागौर के छोटे से रेगिस्तनी राज्य से निकले हुए चौहान शासकों ने अर्णोराज के काल में महानदी सिंधु एवं पौराणिक काल में लुप्त सरस्वती नदी के क्षेत्रों तक अपनी ध्वजा फहरा दी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता