हमने पिछली कड़ी में चर्चा की थी कि चौलुक्य शासक कुमारपाल के हाथों चौहान राजा अर्णोराज की पराजय के बाद अर्णोराज ने अपनी खोई हुई शक्ति का पुनः संकलन करके अपनी विजय पताका सिंधु एवं सरस्वती के क्षेत्रों तक फहराई किंतु उसके पुत्र राजकुमार जगदेव ने राज्य के लाल च में अपने पिता अर्णोराज की हत्या कर दी और स्वयं अजमेर की गद्दी पर बैठ गया।
भारत में पितृहन्ता राजा को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था तथा उसे उसके ही कुल के राजकुमारों द्वारा हटा दिया जाता था। राजा जगदेव के साथ भी यही हुआ। उसके गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही उसके छोटे भाई विग्रहराज (चतुर्थ) द्वारा हटा दिया गया।
अनेक ख्यातों में विग्रहराज (चतुर्थ) को भी बीसलदेव अथवा वीसलदेव लिखा गया है। वह ई.1163 तक अजमेर का राजा रहा। उसका शासन न केवल अजमेर के इतिहास के लिये अपितु सम्पूर्ण भारत के इतिहास के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
वीसलदेव ने ई.1155 से 1163 के बीच तोमरों से दिल्ली तथा हॉंसी छीन लिए। नागरी प्रचारिणी पत्रिका के अनुसार वीसलदेव ने तंवर अनंगपाल से दिल्ली छीनी। इसी अनंगपाल ने दिल्ली में विष्णुपाद पहाड़ी पर लोहे का लाट लगावाया था जिस पर आज तक जंग नहीं लगा। यह लाट विष्णु की ध्वजा के रूप में स्थापित करवाया था। इसे कीली भी कहते हैं तथा यह कुतुब मीनार के पास महरौली गांव में स्थित है।
पृथ्वीराज रासो ने इसी अनंगपाल की पुत्री कमला का विवाह अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के साथ होना तथा उसी से पृथ्वीराज चौहान का उत्पन्न होना बताया है किंतु अन्य स्रोतों के अनुसार पृथ्वीराज की माता चेदि देश की राजकुमारी कर्पूर देवी थी न कि तंवर राजकुमारी कमला।
वीसलदेव ने चौलुक्यों और उनके अधीन परमार राजाओं से भारी युद्ध किये तथा उन्हें पराजित कर उनसे नाडोल, पाली, जालोर एवं आसपास के क्षेत्र छीन लिए। वीसलदेव ने जालोर के परमार सामन्त को दण्ड देने के लिए जालोर नगर को जलाकर राख कर दिया।
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चौलुक्य कुमारपाल को परास्त करके उसने अपने पिता की पराजय का बदला लिया।
तुर्कों से भी बीसलदेव ने अनेक युद्ध लड़े। वीसलदेव के समय तुर्कों की एक सेना वव्वेरा गांव तक आ गई। वीसलदेव ने उस सेना को परास्त कर दिया। इसके बाद वीसलदेव ने संकल्प लिया कि वह मुसलमानों को आर्यावर्त्त से बाहर निकाल देगा। इसलिए वह एक विशाल सेना लेकर उत्तर दिशा की तरफ बढ़ा।
दिल्ली से अशोक का एक स्तंभ लेख मिला है जिस पर वीसलदेव के समय में एक और शिलालेख उत्कीर्ण किया गया। यह शिलालेख 9 अप्रेल 1163 का है तथा इसे शिवालिक स्तंभ लेख कहते हैं। इस शिलालेख के अनुसार वीसलदेव ने देश से मुसलमानों का सफाया कर दिया तथा अपने उत्तराधिकारियों को निर्देश दिया कि वे मुसलमानों को अटक नदी के उस पार तक सीमित रखें।
वीसलदेव के राज्य की सीमायें शिवालिक पहाड़ी, सहारनपुर तथा उत्तर प्रदेश तक प्रसारित थीं। शिलालेखों के अनुसार जयपुर और उदयपुर जिले के कुछ भाग उसके राज्य के अंतर्गत थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति और बल से विग्रहराज ने म्लेच्छों का दमन कर आर्यावर्त्त को वास्तव में आर्य भूमि बना दिया था। जिस मुस्लिम शासक हम्मीर को परास्त करने का उल्लेख ललितविग्रह नाटक में किया गया है, वह गजनी का अमीर खुशरूशाह था।
शिवालिक लेख के अनुसार वीसलदेव के राज्य की सीमायें हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत तक थीं। इस पूरे क्षेत्र से उसने मुस्लिम गवर्नरों को परास्त करके अटक के उस पार तक मार भगाया था। प्रबन्ध कोष उसे तुरुष्कों का विजेता बताता है। इस काल में दिल्ली केवल ठिकाणा बन कर रह गई जिसकी राजधानी अजमेर थी।
विग्रहराज (चतुर्थ) अर्थात् वीसलदेव भारत का प्रथम चौहान सम्राट था और उसका भतीजा पृथ्वीराज चौहान भारत का अंतिम चौहान सम्राट था। वीसलदेव की विशाल सेना में एक हजार हाथी, एक सौ हजार घुड़सवार तथा उससे भी अधिक संख्या में पैदल सिपाही थे।
विग्रहराज (चतुर्थ) साहित्य प्रेमी राजा था और साहित्यकारों का आश्रयदाता भी। उसके समय के लोग उसे कविबांधव कहते थे। वह स्वयं हरकेलि नाटक का रचयिता था। उसके दरबारी कवि सोमदेव ने ललित विग्रहराज नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक की रचना की। अजमेर में उसने धार की ही तरह का एक संस्कृत विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर बनवाया जो अब अढ़ाई दिन का झौंपड़ा के नाम से अवशेष रूप में रह गया है।
इस विद्यालय परिसर से 75 पंक्तियों का एक विस्तृत शिलालेख प्राप्त हुआ है जो इस बात की घोषणा करता है कि इस विद्यालय का निर्माण वीसलदेव ने करवाया था। सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर परिसर से विग्रहराज द्वारा संस्कृत में लिखित हरकेलि नाटक के छः चौके मिले हैं जो 22 नवम्बर 1153 की तिथि के हैं।
राजपूताना संग्रहालय में रखा विग्रहराज (चतुर्थ) का एक शिलालेख घोषणा करता है कि चौहान शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं। उसने अपने नाम पर अजमेर में वीसलसर झील बनवाई जिसके बीच उसके रहने के प्रासाद और उसके चारों ओर अनेक मंदिर बनवाये। उसने वीसलपुर नामक कस्बे की स्थापना की तथा कई दुर्गों का निर्माण करवाया। धर्मघोष सूरी के कहने पर उसने एकादशी के दिन पशुवध पर प्रतिबन्ध लगाया।
विग्रहराज (चतुर्थ) के समय में चौहान राज्य की चहुंमुखी प्रगति हुई। हिमालय से लेकर नर्मदा तक उसका नाम बड़े आदर से लिया जाता था। डॉ. दशरथ शर्मा ने उसके बारे में लिखा है कि उसकी महत्ता निर्विवाद है क्योंकि वह सेनाध्यक्ष के साथ-साथ विजेता, साहित्य का संरक्षक, अच्छा कवि और सूझ-बूझ वाला निर्माता था।
पृथ्वीराज विजय का लेखक कहता है कि जब विग्रहराज की मृत्यु हो गई तो कविबांधव की उपाधि निरर्थक हो गई क्योंकि इस उपाधि को धारण करने की क्षमता किसी में नहीं रह गई थी। कीलहॉर्न ने भी उसकी विद्वता को स्वीकार करते हुए लिखा है कि वह उन हिन्दू शासकों में से था जो कालिदास और भवभूति की होड़ कर सकते थे। विग्रहराज का समय सपादलक्ष का सुवर्ण काल था।
ई.1158 के नरहड़ लेख में विग्रहराज (चतुर्थ) के नाम के आगे परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमद्, तथा नाम के पीछे देवराज्ये अंकित किया गया है। ये उपाधियां चौहानों द्वारा प्रतिहारों से छीनी गई थीं। इन उपाधियों से यह भी ज्ञात होता है कि इस काल में चौहान अपने विशाल साम्राज्य के सम्पूर्णप्रभुत्व सम्पन्न शासक थे।
अगली कड़ी में देखिए- पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को भाग्यवश मिला चौहानों का सिंहासन!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता