Saturday, December 21, 2024
spot_img

खानवा का युद्ध

22 फरवरी 1527 को बाबर के मुख्य सेनापति अब्दुल अजीज की सेना खानवा के मैदान में आई। सांगा ने उसमें कसकर मार लगाई तथा अब्दुल अजीज का झण्डा छीन लिया। सांगा की सेना ने कई प्रमुख मुगल सरदारों को मार दिया और कई बड़े मुगल, बंदी बना लिये। यह देखकर मुगल सेना युद्ध के मैदान से भाग छूटी।

हिन्दू सैनिकों ने दो मील तक इस सेना का पीछा किया।  सांगा का ऐसा प्राबल्य देखकर बाबर ने सीकरी से दस मील दूर खानवा नामक स्थान पर उसी प्रकार की व्यूह रचना की जिस प्रकार की व्यूह रचना उसने पानीपत के मैदान में की थी। सेना के सामने गाड़ियों की कतार लगवाकर उन्हें लोहे की जंजीरों से बँधवा दिया। इन गाड़ियों की आड़ में तोपें तथा बंदूकचियों को रखा जो शत्रुसैन्य पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा करते थे।

उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त किया- दाहिना पक्ष, बांया पक्ष तथा मध्यभाग। दाहिने पक्ष का संचालन हुमायूँ, बायें का मेंहदी ख्वाजा और मध्यभाग का संचालन स्वयं बाबर के नेतृत्व में रखा गया। तोपों तथा बन्दूकों के संचालन का कार्य उस्ताद अली को सौंपा गया। सेना के दोनों सिरों पर बाबर ने तुलगम सैनिक रखे जो युद्ध के जम जाने पर दोनों ओर से घूम कर, शत्रु सैन्य पर पीछे से आक्रमण करते थे।

27 मार्च 1527 को प्रातः साढ़े नौ बजे बाबर तथा राणा सांगा की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ। युद्ध का आरम्भ राजपूतों ने किया। उन्होंने बाबर की सेना के दाहिने पक्ष पर धावा बोलकर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। बाबर ने राजपूतों के बायें पक्ष पर अपने चुने हुए सैनिकों को लगा दिया। इससे युद्ध ने विकराल रूप ले लिया। थोड़ी ही देर में राजपूतों की सेना में घुसने के लिये वामपक्ष तथा मध्यभाग का मार्ग खुल गया।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

मुस्तफा रूमी ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने तोपखाने को आगे बढ़ाया और राजपूत सेना पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा आरम्भ कर दी। मुगलों के बायें पक्ष पर भी भयानक युद्ध हो रहा था। इसी समय तुलगम सेना ने राजपूतों पर पीछे से आक्रमण किया। राजपूत सेना चारों ओर से घेर ली गई। राजपूतों के लिये तोपों की मार के समक्ष ठहरना असम्भव हो गया। वे तेजी से घटने लगे।  राणा सांगा युद्ध के आरंभिक भाग में ही किसी हथियार की चपेट में आ जाने से बेहोश हो गया था।

इस पर झाला अज्जा को समस्त राज्य चिह्नों के साथ महाराणा के हाथी पर सवार किया गया और उसकी अध्यक्षता में समस्त सेना लड़ने लगी। महाराणा के सामंत एवं सेनापति, महाराणा को रणक्षेत्र से निकाल कर ले गये।  उदयसिंह, हसनखां मेवाती, माणिकचंद चौहान, चंद्रभाण चौहान, रत्नसिंह चूण्डावत, झाला अज्जा, रामदास सोनगरा, परमार गोकलदास, रायमल राठौड़, रत्नसिंह मेड़तिया और खेतसी आदि इस युद्ध में काम आये। 

 खानवा के युद्ध में बाबर की तोपें और बंदूकें जीत गईं तथा हिन्दुओं के तीर-कमान, तलवारें और भाले हार गये। वस्तुतः गुहिलों के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में हिन्दू राजाओं की पराजय, युद्ध तकनीक की कमी के कारण हुई। हिन्दू राजाओं की सेनाओं के पास अब भी अस्त्र-शस्त्र के रूप में सदियों पुराने तीर-कमान, तलवार और भाले ही थे। वे अब भी युद्ध के नियमों का पालन करते हुए शत्रु पर सामने से आक्रमण करने के सिद्धांत पर डटे हुए थे जबकि दूसरी ओर बाबर के पास शक्तिशाली तोपखाना था जिसके गोला-बारूद की बौछार के समक्ष टिक पाना लगभग असंभव था।

उसकी तुलगमा युद्धपद्धति का आधार ही पीछे से वार करना था। जब राजपूत सामने खड़े शत्रु से लड़ रहे थे, बाबर की सेनाओं ने दोनों ओर से राजपूतों पर प्रहार करके उन्हें पराजित कर दिया। बाबर ने विजयी होकर गाजी  की उपाधि धारण की। विजयचिह्न के तौर पर राजपूतों के सिरों की एक मीनार बनवाकर वह बयाना की ओर चला, जहाँ उसने राणा के देश पर चढ़ाई करनी चाहिये या नहीं, इसका विचार किया परन्तु ग्रीष्म ऋतु का आगमन जानकर चढ़ाई स्थगित कर दी। 

मूर्च्छित महाराणा को लेकर उसके सामंत जब बसवा गांव (जयपुर राज्य) में पहुंचे, तब महाराणा सचेत हुआ और उसने पूछा कि सेना की क्या हालत है तथा विजय किसकी हुई? अपने सामंतों से सारा वृत्तांत सुनने पर महाराणा ने युद्धस्थल से इतना दूर ले आने के लिये उनके प्रति नाराजगी व्यक्त की तथा वहीं डेरा डालकर युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।

अगले ही साल बाबर ने, सांगा के अधीनस्थ चंदेरी पर आक्रमण किया। सांगा ने भी बाबर से युद्ध करने के लिये चंदेरी के लिये प्रस्थान किया। इससे रुष्ट होकर कुछ सरदारों ने सांगा को जहर दे दिया  जिससे 30 जनवरी 1528  को कालपी में सांगा की मृत्यु हो गई।  राणा का शव माण्डलगढ़ लाया गया और वहीं पर उसका अंतिम संस्कार किया गया।  महाराणा की मृत्यु होते ही दिल्ली की सल्तनत पर बाबर का अधिकार पक्का हो गया।

भारत में अब बाबर का मार्ग रोक सकने योग्य कोई शक्ति शेष न रही। सांगा की पराजय ने भारत का इतिहास बदल दिया। यदि बाबर का आगमन न हुआ होता तो संग्रामसिंह निश्चित रूप से दिल्ली पर अधिकार कर लेता तथा जो दिल्ली, पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के साथ ही तुर्कों के अधिकार में चली गई थी, वह पुनः हिन्दुओं के पास आ जाती।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source