शत्रु सैनिकों के शवों पर झील बनावाने की घटना अजमेर के इतिहास को गौरवमयी बनाता है। बनाती है। यह अपने आप में एकेली ऐसी ऐतिहासिक घटना है।
अजयदेव चौहान के बाद उसका पुत्र अर्णोराज अजमेर का स्वामी हुआ। अर्णोराज को आनाजी भी कहते हैं। अर्णोराज ई.1133 के आसपास चौहानों के सिंहासन पर बैठा तथा ई.1155 तक शासन करता रहा। वह भी अपने पूर्वजों की भांति शक्तिशाली शासक हुआ। उसने महाराजाधिराज परमेश्वर तथा परम भट्टारक महाराजाधिराज की उपाधियां धारण कीं।
ई.1158 के नरहड़ लेख में विग्रहराज (चतुर्थ) के नाम के आगे परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमद्, तथा नाम के पीछे देवराज्ये अंकित किया गया है। ये उपाधियां चौहानों द्वारा प्रतिहारों से छीनी गई थीं। इन उपाधियों से यह भी ज्ञात होता है कि इस काल में चौहान अपने विशाल साम्राज्य के सम्पूर्णप्रभुत्व सम्पन्न शासक थे।
वस्तुतः भारतीय इतिहास में महाराजाधिराज तथा परमभट्टारक की उपाधियां सबसे पहले गुप्त शासकों ने धारण की थीं। गुप्तों की सत्ता बिखर जाने के बाद प्रतिहार शासकों ने गुप्तों की उपाधियों के साथ-साथ परमेश्वर की उपाधि भी धारण की। उस समय चौहान प्रतिहारों के अधीन सामंत हुआ करते थे।
प्राचीन भारत में यह प्रचलन था कि जब कोई राजा किसी अन्य राजा को जीत लेता था तो विजेता राजा, पराजित राजा की उपाधियों को धारण कर लेता था। चूंकि चौहानों ने प्रतिहारों को पराजित किया था इसलिए चौहानों ने प्रतिहारों की उपधियां धारण कर लीं।
अजमेर के राजकीय संग्रहालय में उपलब्ध प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अर्णोराज ने उन तुर्कों को पराजित किया जो मरुस्थल को पार करके अजमेर तक आ पहुँचे थे। इस आक्रमण की तिथि ई.1135 अनुमानित की जाती है। मरुस्थल को पार करके आई तुर्कों की सेना ने पुष्कर को नष्ट कर दिया तथा उसके बाद वह अजमेर की तरफ बढ़ी।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
अर्णोराज अजमेर पर बार-बार हो रहे मुस्लिम आक्रमणों से तंग आ चुका था। अतः उसने अपनी पूरी शक्ति एकत्र करके तारागढ़ से कुछ किलोमीटर दूर स्थित एक विशाल मैदान में तुर्कों का भयानक संहार किया। इस संहार के कारण तुर्कों की विशाल सेना का इतना रक्त बहा कि पूरा मैदान रक्त से लथपथ हो गया। मांस के लोथड़ों से वहाँ भारी सड़ांध फैल गई।
राजा अर्णोंराज पुष्कर की पहाड़ियों से निकलने वाली चन्द्रा नदी से एक नहर बनवाकर इस मैदान की तरफ लाया जिससे सारे शव बहकर दूर चले गये। बाद में अर्णोराज ने इस स्थान की खुदाई करवाकर वहाँ की मिट्टी भी हटवा दी और पक्के घाट बनाकर झील का निर्माण करवा दिया। जिस स्थल पर यवनों का रक्त गिरा था उस स्थल को शुद्ध करने के लिये राजा अर्णोराज ने एक हवन किया तथा उस स्थान पर आनासागर झील बनाई।
कुछ इतिहासकार इस आनासागर झील में लाई गई नदी को लूनी के रूप में तथा कुछ इतिहासकार बान्डी के रूप में चिन्हित करते हैं जो अजमेर के निकट नाग पहाड़ियों से निकलती हैं। जब कई दिन तक पानी बहने से यह मैदान साफ हो गया तब अर्णोंराज ने इसके चारों तरफ विशाल पक्की दीवार का निर्माण करवाया। इस कार्य में उसने प्रजा की भी सहायता ली।
जब यह झील बनकर तैयार हो गई तब उसे पुष्कर की पहाड़ियों से निकलने वाले निर्मल जल से भर दिया। इस झील से अजमेर के लोगों तथा पशुओं के लिये पीने का जल उपलब्ध हो गया। एक विशाल सेना को भी इस क्षेत्र में लम्बे समय तक बनाये रखना संभव हो गया। इस झील के कारण अजमेर नगर का विकास तेजी से हुआ।
आनासागर झील भारत के सुन्दरतम स्थानों में से एक है। अजमेर नगर की समृद्धि और विस्तार का जितना श्रेय तारागढ़ दुर्ग को कहा जाता है उससे कहीं अधिक इस झील को जाता है। इस झील के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ही मुगलों ने अजमेर को इतना महत्त्व दिया। जहाँगीर ने इस झील के निकट दौलतबाग का निर्माण करवाया जिसे अब सुभाष उद्यान कहते हैं। शाहजहाँ ने आनासागर झील के तट पर संगमरमर की बारादरी बनवाई।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि जब जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह ने अजमेर पर अधिकार किया तब वह भी आनासागर झील के किनारे बने महलों में रहता था। अंग्रेज तो इस झील के दीवाने ही थे। आज भी यह झील अजमेर नगर की पहचान बनी हुई है।
राजा अर्णोराज चौहान ने मालवा के राजा नरवर्मन को परास्त किया तथा अपनी विजय पताका को सिंधु और सरस्वती नदी के प्रदेशों तक ले जाकर अपने वंश के महत्त्व को बढ़ाया।
अर्णोराज ने हरितानक देश तक अभियान का नेतृत्व करके अपनी पैतृक विजय भावनाओं के प्रति कटिबद्धता प्रकट की। इन विजयों से उसने पंजाब के कुछ पूर्वी भाग और संयुक्त प्रांत के पश्चिमी भाग को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। अर्णोराज ने हरियाणा, दिल्ली तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर जिले पर भी अधिकार कर लिया जिसे तब वरणनगर कहते थे।
राजा अर्णोराज सनातन धर्म का अनुयाई था किंतु दूसरे धर्म के प्रति भी उसमें संकीर्णता नहीं थी। उसने खतरगच्छ के अनुयायियों के लिये भूमिदान दिया तथा पुष्कर में वराह का विश्व-प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। अर्णोराज के समय देवबोध तथा धर्मघोष नामक प्रकाण्ड विद्वान हुए जिन्हें अर्णोराज ने सम्मानित किया।
अगली कड़ी में देखिए- झूठी शान के लिए आपस में कट मरे चौहान और चौलुक्य!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता