मरुधरानाथ ने खूब सोच समझ कर पूरे कौशल के साथ यह नाटक रचा था जिससे कुँवर भीमसिंह की हत्या के षड़यंत्र का भाण्डा बीच चौराहे पर फूटे और गुलाब को महाराजा पर संदेह भी नहीं हो किंतु गुलाब बच्ची नहीं थी, जो इस नाटक का कोई छोर नहीं ढूंढ पाती। उसे महाराजा पर तो संदेह नहीं हुआ किंतु मिर्जा इस्माईल बेग की सक्रियता तथा खूबचंद सिंघवी के मौन से उसने अनुमान लगाया कि इस सारे नाटक के सूत्रधार ये दो व्यक्ति ही हैं।
गुलाब का माथ ठनका। उसे इन दोनों से ही इसकी आशा नहीं थी। कोई न कोई बाधा गुलाब के जीवन में बनी ही रहती थी। एक बाधा समाप्त नहीं होती थी कि दूसरी आकर खड़ी हो जाती थी। पहले शेखावतजी, फिर बाखासर का ठाकुर जगतसिंह उसके बाद गोरधन खीची, फिर कुँवर भीमसिंह और अब खूबचंद सिंघवी तथा मिर्जा इस्माईल बेग। इनमें से एक भी बाधा ऐसी नहीं थी जिससे उसने सदैव के लिये छुटकारा पा लिया हो। कई बार तो गुलाब को अनुभव होता था कि उसकी नियति ही ऐसी थी कि वह अपने शत्रुओं से लड़े और उन्हीं के बीच जिये। फिर भी उसने खूबचंद से कड़ाई से निबटने का संकल्प किया ताकि दूसरी बाधायें स्वयं सहम जायें।
गुलाब ने संकल्प तो ले लिया किंतु खूबचंद से निबटना हँसी खेल नहीं था। मिर्जा इस्माईल अपनी विशाल सेना लेकर खूबचंद के संकेत भर पर मरने मारने को तैयार रहता था। महेश कूंपावत का पुत्र रतनसिंह कूंपावत भी खूबचंद की पीठ पर मजबूती से खड़ा था। इसी प्रकार सवाईसिंह चाम्पावत और गोरधन खीची भी गुलाब के विरुद्ध खिचड़ी पका रहे थे। गुलाब ने इस खिचड़ी को ठण्डा करके खाने का निर्णय लिया।
जब बात कुछ ठण्डी हो गई तो एक दिन मिर्जा इस्माईल को गुजरात की तरफ कूच करने के आदेश मिले ताकि राज्य के रिक्त हुए कोष के लिये कुछ धन जुटाया जा सके। खूबचंद के छोटे पुत्र मेहकरण तथा खूबचंद के भानजे शाहमल को भी मिर्जा इस्माईल के साथ गुजरात जाने के आदेश दिये गये। कहने की आवश्यकता नहीं कि गुलाब ने सोच समझ कर स्वयं महाराजा से ये आदेश दिलवाये थे ताकि हर हालत में इन आदेशों की पालना हो।
मिर्जा इस्माईल, मेहकरण तथा शाहमल, अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सिरोही, बाबी तथा पालनपुर के क्षेत्रों में उपद्रव करते हुए गुजरात की ओर बढ़ने लगे और थिराप तक पहुँच गये। जब महादजी सिन्धिया को ये समाचार मिले तो उसने मरुधरानाथ को लिखा कि गुजरात का क्षेत्र हमारा है। यदि आप इस्माईल बेग को इधर भेजते रहेंगे तो आपसे हुआ समझौता कैसे टिका रह सकेगा? गुलाब ने महादजी के इस संदेश को मरुधरानाथ तक पहुँचने ही नहीं दिया।
जब मिर्जा इस्माईल, मेहकरण तथा शाहमल गुजरात की तरफ कूच कर गये तो रतनसिंह कूंपावत को अपनी जागीर में चले जाने की अनुमति दी गई ताकि वह बढ़ी हुई राशि के अनुसार लगान की वसूली कर सके। आदेश पाकर वह भी चला गया। इतने बड़े शत्रुओं के जोधपुर से चले जाने के के बाद गुलाब ने चतुर बिल्ली की तरह अपने पंजे धरती से चिपका लिये और प्रकट रूप में इस बात की पूरी तरह अनदेखी करके कि गोरधन खीची सवाईसिंह चाम्पावत की हवेली में बैठा है, सवाईसिंह की तरफ नये सिरे से दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
सवाईसिंह चाम्पावत जैसा मक्कार इसंान संसार भर में न था। वह अवसर मिलते ही मरुधरानाथ का सर्वनाश करने पर उतारू था। वह इस बात को कभी भूल नहीं पाता था कि मरुधरानाथ ने उसके दादा देवीसिंह चाम्पावत की छल से मुश्कें बांध कर उसे गढ़ में कैद करके मार डाला था और सवाईसिंह के पिता सबलसिंह को मारवाड़ के ठाकुरों ने घेर कर मार डाला था। इसलिये सवाईसिंह का केवल एक ही सिद्धांत था कि जैसे भी हो महाराजा तथा उसके समर्थकों का सर्वनाश करो। यही कारण था कि जब गुलाब ने खूबचंद सिंघवी का नाश करने के लिये सवाईसिंह की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो सवाईसिंह सहर्ष उसकी योजनाओं पर अमल करने को तैयार हो गया।
खींवसर का ठाकुर भौमसिंह करमसोत वैसे तो महाराजा के परम हितैषियों में से था किंतु वह भी खूबचंद की प्रसिद्धि और विश्वसनीयता से जलता था। इसलिये उसने भी इस कार्य में गुलाब का साथ देने का निर्णय लिया। इधर ये गतिविधियाँ चल रही थीं और उधर खूबचंद के समर्थक भी पूरी तरह अनभिज्ञ नहीं थे। उन्होंने खूबचंद को सतर्क कर दिया। खूबचंद सतर्क तो हो गया किंतु वह नौकर था, राजकीय आदेशों की पालना करने के अतिरिक्त उसके पास कोई मार्ग नहीं था। वह महाराजा पर पूरा भरोसा करके बैठा रहा।
जब ठाकुर सवाईसिंह और पासवान गुलाबराय को ज्ञात हुआ कि खूबचंद सिंघवी, अन्य सरदारों से मिला हुआ है तब उन्हांेने खूबचंद को कैद करने का विचार किया। खूबचंद को यह बात ज्ञात हो गई। इससे पहले कि गुलाब कोई कदम उठा सके, उसने रतनसिंह कूंपावत के पास चले जाने का विचार किया किंतु इसी बीच गुलाब ने खूबचंद को आदेश भिजवाये कि वह मराठों के वकील कृष्णाजी जगन्नाथ को लेकर मेरे बाग में उपस्थित हो। यह आदेश मिलने पर खूबचंद कृष्णाजी जगन्नाथ की हवेली पर गया और उसे पासवान के आदेशों से अवगत करवाया। कृष्णाजी को जोधपुर दरबार और राजधानी में हो रही घटनाओं की राई रत्ती की जानकारी रहती थी। वह हैरान होकर सिंघवी की तरफ देखता ही रह गया।
-‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’
-‘देख रहा हूँ कि आप सरोवर में रहकर भी जोंक के स्वभाव से परिचित नहीं।’
-‘मैं समझा नहीं।’
-‘मैं जानता हूँ कि आप नहीं समझेंगे।’
-‘क्या नहीं समझूंगा?’
-‘कुछ भी नहीं समझेंगे?’
-‘क्यों?’
-‘क्योंकि आप सरोवर में रहकर भी जोंक के स्वभाव से अनभिज्ञ हैं।’
-‘साफ-साफ कहिये वकील साहब। मैं निरा बनिया हूँ। आपकी रहस्यमयी बातें नहीं समझ सकूंगा।’ खूबचंद ने हंसकर कहा।
-‘यह तो मैं जानता हूँ कि आप निरे बनिये नहीं हैं। फिर भी आप महाराजा के भरोसे निश्चिंत होकर बैठे हैं।’
-‘तो इसमें गलत क्या है?’
-‘जब चिड़िया खेत चुगेगी तो महाराजा किनारे पर बैठकर चिलम पी रहे होंगे।’
-‘साफ-साफ कहिये पण्डितजी महाराज!’
-‘तो सुनिये। न तो मैं पासवान के पास बाग में जाऊँगा और न आपको वहाँ जाने की सलाह दूंगा।’
-‘पासवानजी खा जायेंगी क्या?’
-‘आश्चर्य तो यही है कि अब तक खाया क्यों नहीं।’
-‘किसे मुझे।’
-‘केवल आपको ही नहीं, मुझे भी।’
-‘आप मराठों के वकील हैं, आप जाने से मना कर सकते हैं किंतु मैं कैसे मना करूं? वे मेरे स्वामी की प्रीतपात्री हैं।’
-‘स्वामी की आज्ञा का पालन करना आवश्यक है कि उनकी प्रीतपात्री की?’
-‘दोनों की।’
-‘यदि अपने प्राणों से प्रीत है तो स्वामी की प्रीतपात्री की आज्ञा मत मानिये।’
-‘ठीक है, चेताने के लिये आभार।’ खूबचंद कृष्णाजी को नमस्कार करके चला आया।
कुछ ही समय बाद सिंघवी, मरुधरानाथ की ड्यौढ़ी पर था।
-‘महाराज! इस दास को अभय मिले।’
-‘क्या हुआ सिंघवी?’
-‘पासवानजी प्राणों की प्यासी हुई फिरती हैं।’
-‘तो अपने प्राण बचाकर रख।’
-‘कैसे बचाऊँ महाराज, बाग पर बुलाया है। मुझे भी और मराठों के वकील को भी।’
-‘कोई बहाना बना दे।’
-‘कब तक बनाऊँगा स्वामी?’
-‘और कोई उपाय नहीं है।’
-‘मैंने कोई हरामखोरी नहीं की। मैं क्यों मारा जा रहा हूँ?’ सिंघवी ने हाथ जोड़कर कहा।
-‘कई मूर्ख, बिना हरामखोरी के भी मारे जाते हैं। कह तो रहा हूँ कि बाग में मत जा।’ मरुधरानाथ ने चिढ़कर कहा। कैसा आदमी है यह, कुछ समझता ही नहीं। इसके लिये क्या मैं पासवान को दण्डित करूंगा? महाराजा ने सोचा।
मरुधरपति का उत्तर सुनकर खूबचंद सहम गया। वह उसी समय मुजरा करके बाहर आ गया और सीधा रतनसिंह कूँपावत के डेरे चला गया। उधर जब गुलाब को ज्ञात हुआ कि खूबचंद चारों तरफ भागा-भागा फिर रहा है तब उसने अपने दत्तक पुत्र शेरसिंह को उसके पास भेजा। शेरसिंह ने शपथ लेकर विश्वास दिलाया कि वह पासवानजी के आदेश का निरादर न करे और बाग में चलकर मुजरा करे। खूबचंद को इस शपथ पर भी विश्वास नहीं हुआ। इस पर रतनसिंह ने अपने तेरह हजार कूँपावत सिपाहियों तथा सवाईसिंह के पाँच हजार चाम्पावत सिपाहियों को एकत्रित होने का आदेश दिया। जब ये सिपाही हथियार सजा कर आ गये तब खूबचंद उन्हें अपने साथ लेकर गुलाब से मिलने के लिये उसके बाग की ओर चल पड़ा।
ख्ूाबचंद को इस तैयारी के साथ आया देखकर गुलाब को हँसी आ गई। उसने बाँह पकड़कर सिंघवी का स्वागत किया और अपने सामने बैठाकर बोली-‘ऐसे डरकर क्यों भाग रहे हो खूबचंदजी! आपने मेरा क्या बुरा किया है? हम तो आपको दीवानी सौंपना चाहती हैं।’
-‘मैं अपनी वर्तमान स्थिति में प्रसन्न हूँ पासवानजी! हमें दीवानी मत दीजिये।’ इसके लिये सवाईसिंहजी अधिक ठीक हैं।’
-‘मना मत कीजिये। जो आप करेंगे, हमें मान्य होगा।’
-‘मैं वैसे ही आपकी सेवा करने को तैयार हूँ।’
-‘तो ठीक है, आप आते रहिये हमारे पास।’
खूबचंद की जान में जान आई। उसे लगा कि जान बच गई किंतु वह नहीं जानता था कि बिल्ली ने अपने विषैले नाखून बड़ी चतुराई से अपने मुलायम बालों में छिपा रखे थे, अवसर हाथ आते ही वह छोड़ने वाली नहीं थी। कुछ दिन और बीत गये। खूबचंद के मन का अवसाद काफी कम हो गया। 30 जुलाई 1791 की संध्या को, जब खूब तेज बरसात बरस रही थी, पासवान ने उसे एक बार फिर बाग में बुलवाया।
खूबचंद का माथा ठनका। एक बार तो उसने सोचा कि वह बाग में न जाये किंतु उसके भाई ने समझाया कि यूं पासवान सरेआम कुछ नहीं बिगाड़ेगी, जाने में कोई भय नहीं है। खूब आगा-पीछा सोचने के बाद खूबचंद ने बाग में जाने का निश्चय किया। वह बरसात के पानी से तरबतर कपड़े लेकर गुलाब के कक्ष में पहुँचा। जैसे ही उसने कक्ष में प्रवेश किया, वहाँ पहले से ही तैनात हत्यारों ने खूबचंद पर खंजारों से भरपूर वार किये। बिल्ली के विषैले पंजे प्रकट हो गये थे और सिंघवी के पास इस समय उनसे बचने का कोई उपाय नहीं था। देखते ही देखते उसके शरीर से रक्त के फव्वारे छूट पड़े। उसका शरीर धरती पर गिर कर कुछ देर तक छटपटाया और अंत में शांत हो गया।
हत्यारों ने खूबचंद के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके गुलाब के कुत्तों को खिला दिये। यह पहली बाधा थी जो एक बार में ही सदैव के लिये गुलाब के जीवन से दूर हुई थी। गुलाब ने अब एक भी क्षण व्यर्थ गंवाना उचित नहीं समझा। उसने उसी समय सवाईसिंह चाम्पावत को देसूरी की तरफ रवाना किया ताकि वह खूबचंद के बड़े भाई विजयचंद सिंघी तथा ज्येष्ठ पुत्र का भी काम तमाम कर सके। अंधा क्या चाहे, दो आँखें! सवाईसिंह तो यही रक्तपात चाहता था। उसने खूबचंद के भाई और भतीजे को मार डाला तथा उसके परिजनों को हथकड़ियाँ पहना कर जोधपुर के लिये रवाना कर दिया। खूबचंद की पत्नी ने अपने पति की देह के साथ सती होने की इच्छा जताई किंतु दुष्ट सवाईसिंह ने उस निरीह नारी को भी जमकर पीटा और उसे भी हथकड़ियाँ पहना दी गईं।
जब जोधपुर दुर्ग में बैठे मरुधरानाथ को इस पूरे काण्ड की जानकारी हुई तो वह स्तब्ध रह गया। वह कतई नहीं चाहता था कि खूबचंद सिंघवी का ऐसा दुखद अंत हो किंतु उसमें इतना साहस नहीं हुआ कि वह गुलाब से इसके विरोध में एक भी शब्द कह सके।
खूबचंद की देह भले ही शांत हो गई हो किंतु गुलाब अभी तक शांत नहीं हुई थी। उसने उसी समय एक सेना सोजत की ओर रवाना की। खूबचंद का बड़ा बेटा हरकचंद वहाँ का हाकिम था। हरकचंद के साथ उसका चाचा शिवचंद सिंघी भी सोजत में रहता था। गुलाब के सैनिकों ने सोजत पहुँच कर हरकचंद को भी मार डाला। शिवचंद सिंघी प्राण बचाने की लालसा में सोजत से भाग खड़ा हुआ।
जब ये समाचार खूबचंद के छोटे पुत्र मेहकरण, भानजे शाहमल तथा मिर्जा इस्माईल को मिले तो वे गुजरात जाने का निश्चय त्याग कर मारवाड़ को लौट पड़े और विद्रोही होकर लूटमार मचाने लगे तथा गोड़वाड़ पहुँचकर राणा रतनसिंह के पाँच हजार गुसाईयों के आश्रय में जाकर बैठ गये। शिवचंद भी अपने भतीजों से आ मिला। महाराजा ने जब मिर्जा इस्माईल और मेहकरण आदि के बागी होने के समाचार सुने तो वह एक बार फिर सिर पकड़ कर बैठ गया। उससे कुछ करते न बना।
जब गोवर्धन खीची ने सुना कि मेहकरण, शाहमल और मिर्जा इस्माईल विद्रोही होकर लूटमार कर रहे हैं तो एक दिन अवसर पाकर वह गढ़ पर गया। गोवर्धन खीची को फिर से दरबार में आया देखकर मरुधरानाथ के चेहरे प्रसन्नता की लकीरें तो उभरीं किंतु उसने अपने पुराने सलाहकार के स्वागत में एक भी शब्द प्रकट रूप से नहीं कहा। खीची इस अवहेलना को सह गया और राजा को सही सलाह देना अपन धर्म समझकर हाथ जोड़कर बोला-‘राजन्! राज्य, मित्र, अनुचर और द्रव्य का अकारण नाश हो रहा है, प्रेयसी को इतना सिर चढ़ा लेना ठीक नहीं है।’
महाराजा ने अपनी बूढ़ी होती जा रही आँखों को पूरी तरह पलकों से ढंककर अपने बूढ़े सलाहकार को जवाब दिया-‘उसके प्रेम को स्वीकार किया है इसलिये वचनबद्ध हूँ।’
खीची समझ गया कि राजा को गुलाब के बाग में से खीच लेना संभव नहीं है। इस समय उसकी आयु काफी हो चुकी है। उसमें सोचने समझने और निर्णय लेने की किंचित् शक्ति भी शेष नहीं बची है। जिन लोगों पर वह विश्वास करता आया है, अब वह पूरी तरह उन्हीं पर निर्भर है। धारा के विरुद्ध बहना उसके वश की बात नहीं है। वृद्ध खीची का झुर्रियों से भरा माथा चिंता की लकीरों से भी भर गया। वह स्पष्ट देख रहा था कि आने वाला समय राज्य के लिये अच्छा नहीं है। अभी तो बहुत से लोग विरोधी होंगे। जाने किस-किस की बारी आ जाये!