मालपुरा को नष्ट करने के बाद महाराणा प्रताप का शेष जीवन सुख और शांति से व्यतीत हुआ। उन्होंने उजड़े हुए मेवाड़ को फिर से बसाया, उदयपुर नगर में श्रेष्ठ लोगों को लाकर उनका निवास करवाया तथा मुगलों के विरुद्ध अपना साथ देने वाले अपने सरदारों की प्रतिष्ठा और पद में वृद्धि की तथा उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं।[1]
चावण्ड के महलों में निवास करते हुए ही 19 जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास हुआ।[2] प्रताप के स्वर्गारोहण के आठ साल बाद तक अकबर जीवित रहा किंतु वह मेवाड़ को नहीं जीत सका। 5 अक्टूबर 1605 को आगरा के महलों में अकबर की मृत्यु हुई। उसके मन में पल रही मेवाड़ विजय की आस अधूरी ही रही।
मानसिंह भी सुख से न रह सका। उसे जीवन भर इस बात का पश्चाताप रहा कि उसने सिसोदियों पर आक्रमण किया। अकबर मानसिंह से जीवन में केवल एक बार ही रुष्ट हुआ जब मानसिंह, महाराणा प्रताप के विरुद्ध असफल हुआ। जब अकबर की मृत्यु हो गई तथा सलीम, जहांगीर के नाम से आगरा के तख्त पर बैठा तो उसने तख्त पर बैठने के 35 दिन बाद मानसिंह को बंगाल में युद्ध करने के लिये रवाना कर दिया।
मानसिंह अपने कर्मों पर पश्चाताप करता हुआ बंगाल चला गया।[3] मई 1607 में जहांगीर ने मानसिंह को अपने पास तलब किया। उस समय बादशाह काबुल में था। जब फरवरी 1608 में जहांगीर आगरा पहुँचा तो मानसिंह उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। जहांगीर ने मानसिंह को कपटी और बूढ़ा भेड़िया कहकर उसकी भर्त्सना की।[4]
जहांगीर की क्रोधाग्नि शांत करने के लिये मानसिंह ने 8 जून 1608 को अपने पुत्र जगतसिंह की युवा पुत्री का विवाह बूढ़े जहांगीर के साथ किया।[5] कैसी दुर्दशा की स्थिति थी कि जिस जहांगीर से मानसिंह की बहिन मानबाई का विवाह हुआ था और जहांगीर ने उसे शराब के नशे में कोड़ों से पीट-पीटकर मार डाला था, उसी जहांगीर के साथ मानसिंह की पौत्री का भी विवाह हुआ।
जहांगीर ने मानसिंह की पौत्री को तो अपने हरम में जगह दे दी किंतु मानसिंह को उसी समय दक्षिण के मोर्चे पर लड़ने के लिये रवाना कर दिया। मानसिंह का शेष जीवन दक्षिण के मोर्चे पर व्यतीत हुआ। 6 जुलाई 1614 को एलिचपुर में मानसिंह ने अंतिम सांस ली।
[1] मुंशी देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. 44;
[2] श्यामलदास, पूर्वोक्त, पृ. 164.
[3] अधिक विवरण जानने के लिये पढ़ें मेरा उपन्यास- चित्रकूट का चातक।
[4] मोहनलाल गुप्ता, सवाई जयसिंह, पृ. 12.
[5] मोहनलाल गुप्ता, युग निर्माता सवाई जयसिंह, पृ. 12.