मेवाड़ पर आक्रमणों की झड़ी
हल्दीघाटी की विफलता के बाद अकबर की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। शाही सेनाओं के मेवाड़ से लौट जाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने अपनी सेना के साथ गुजरात की तरफ अभियान किया तथा बादशाही थानों को लूटकर हल्दीघाटी युद्ध में हुए व्यय की क्षतिपूर्ति करने लगा। इस पर 13 अक्टूबर 1576 को अकबर अजमेर से गोगूंदा के लिये रवाना हुआ। उसके गोगुंदा पहुँचने से पहले ही महाराणा प्रताप पहाड़ों में चला गया। अकबर ने गोगूंदा पहुँचकर कुतुबुद्दीनखां, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह को राणा के पीछे पहाड़ों में भेजा। जहाँ-जहाँ वे गये, वहाँ-वहाँ महाराणा उन पर हमला करता रहा। अंत में उन्हें परास्त होकर बादशाह के पास लौटना पड़ा। अबुलफजल ने लिखा है- वे राणा के प्रदेश में गये परन्तु उसका कुछ पता न लगने से बिना आज्ञा ही लौट आये जिस पर अकबर ने अप्रसन्न होकर उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी। जो माफी मांगने पर बहाल की गई।
फिर बादशाह बांसवाड़ा की तरफ गया। वह 6 माह तक राणा के मुल्क में या उसके निकट रहा परन्तु राणा ने उसकी परवाह तक न की। बादशाह के मेवाड़ से चले जाने पर राणा भी पहाड़ों से उतरकर शाही थानों पर हमला करने लगा और मेवाड़ में होकर जाने वाले शाही लश्कर का आगरे का रास्ता बंद कर दिया। यह समाचार पाकर बादशाह ने भगवन्तदास, कुंवर मानसिंह, बैरामखां के पुत्र मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना), कासिमखां मीरबहर आदि को राणा पर भेजा। बदायूनी ने लिखा है कि मैं उस समय बीमारी के कारण बसावर में रह गया था और बांसवाड़ा के रास्ते से लश्कर में जाना चाहता था किंतु अब्दुलखां ने वह रास्ता बंद और कठिनतापूर्ण बताकर मुझे लौटा दिया। फिर मैं सारंगपुर, उज्जैन के रास्ते से दिवालपुर में जाकर बादशाह के पास उपस्थित हुआ।
मुगल सेनापति महाराणा को पकड़ने का बहुत प्रयास करते थे परन्तु सफल न हो सके। मुगल सेनापति, किसी पहाड़ पर राणा के पड़ाव की सूचना पाकर उसे घेरते किंतु महाराणा दूसरे पहाड़ से निकलकर मुगलों पर छापा मारता था। इस दौड़-धूप का फल यह हुआ कि उदयपुर और गोगूंदा से शाही थाने उठ गये और मोही का थानेदार मुजाहिदबेग मारा गया। एक बार महाराणा के सैनिकों ने शाही सेना पर आक्रमण किया जिसमें मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना) की औरतें कुंवर अमरसिंह के द्वारा पकड़ी गईं। महाराणा ने उनका बहिन-बेटी की तरह सम्मान कर प्रतिष्ठा के साथ उन्हें अपने पति के पास पहुँचा दिया। महाराणा के इस उत्तम बर्ताव के कारण मिर्जाखां उस समय से ही मेवाड़ के महाराणाओं की तरफ से सद्भाव रखने लगा।
हल्दीघाटी की पराजय की कसक अकबर के हृदय से जाती नहीं थी। वह अपने जीवन काल में महाराणा को मृत देखना चाहता था। इसलिये 15 अक्टूबर 1578 को अकबर ने पुनः भारी सैन्य तैयारी के साथ शाहबाजखां मीरबख्शी को कुंवर मानसिंह, राजा भगवन्तदास, पायन्दखां मुगल, सैय्यद कासिम, सैय्यद हाशिम, सैय्यद राजू, उलगअसद तुर्कमान, गाजीखां बदख्शी, शरीफखां अतगह, मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना) और गजरा चौहान आदि के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा। इस प्रकार अकबर की लगभग समस्त सेना शाहबाजखां मीरबख्शी को दे दी गई किंतु भयभीत मीरबख्शी ने इस सेना को भी अपर्याप्त समझा तथा अकबर से और सेना की मांग की। अकबर ने अपनी बची-खुची सेनाओं को शेख इब्राहीम फतहपुरी के नेतृत्व में मेवाड़ के लिये रवाना किया।
शाहबाजखां कुम्भलगढ़ को विजय करने का विचार कर आगे बढ़ा। उसने राजा भगवानदास तथा कुंवर मानसिंह को इस विचार से कि वे राजपूत होने के कारण राणा से लड़ने में सुस्ती करेंगे, उन्हें बादशाह के पास भेज दिया। इस तरह उसने हिन्दुओं को इस युद्ध से पूरी तरह अलग कर दिया और शरीफखां, गाजीखां आदि को साथ लेकर कुम्भलगढ़ की ओर बढ़ा तथा कुम्भलगढ़ के नीचे की समतल भूमि पर स्थित केलवाड़ा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद मुसलमान सैनिक, पहाड़ी पर चढ़ने लगे। कुम्भलगढ़ का दुर्ग चित्तौड़ के समान एक अलग पहाड़ी पर स्थित नहीं है किंतु पहाड़ी की विस्तृत श्रेणी के सब से ऊँचे स्थान पर बना हुआ है जिससे उस पर घेरा डालना सहज काम नहीं है। राजपूत शाही फौज पर पहाड़ों की घाटियों से आक्रमण करने लगे। एक रात उन्होंने मुगलों की सेना पर छापा मारा और मुगलों के चार हाथी दुर्ग में लाकर महाराणा को भेंट किये। शाही सेना ने नाडोल एवं केलवाड़ा की तरफ से नाकाबंदी करके दुर्ग को घेरना आरम्भ किया। तब महाराणा ने यह सोचकर कि इससे अब यहाँ रसद का आना कठिन हो जायेगा, वह राव अक्षयराज सोनगरा के पुत्र भाण सोनगरा को दुर्गपति नियुक्त करके राणपुर चला गया। महाराणा के चले जाने के बाद दुर्ग में अकस्मात एक बड़ी तोप फट गई जिससे लड़ाई का सामान जल गया। इस पर भाण सोनगरा ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुगलों पर काल बनकर टूट पड़ा। इस युद्ध में भाण सोनगरा एवं बहुत से नामी राजपूत, दुर्ग के द्वार एवं मंदिरों पर लड़ते हुए काम आये। दुर्ग पर शाहबाजखां का अधिकार हो गया। महाराणा को दुर्ग में न पाकर शाहबाजखां ने अगले दिन दोपहर में गोगूंदा पर आक्रमण किया। महाराणा को वहाँ भी न पाकर शाहबाजखां आधी रात को उदयपुर में घुस गया और वहाँ भारी लूटपाट मचाई किंतु महाराणा वहाँ भी नहीं था। महाराणा इस दौरान गोड़वाड़ क्षेत्र में स्थित सूंधा के पहाड़ों में चला गया।
शाहबाजखां की हताशा बढ़ती जा रही थी। इसलिये वह महाराणा को ढूंढने बांसवाड़ा की तरफ चला गया। वह दिन और रात बांसवाड़ा की तरफ के पहाड़ों में महाराणा को ढूंढता रहा किंतु महाराणा की छाया को भी नहीं छू सका और थक-हार कर पंजाब की तरफ चला गया जहाँ उन दिनों बादशाह का डेरा था। महाराणा फिर से पहाड़ों से निकल आया। जब छप्पन की तरफ स्थित चावण्ड के राठौड़ उत्पात करने लगे तो महाराणा ने राठौड़ों के स्वामी लूणा को चावण्ड से निकाल दिया तथा स्वयं अपना निवास नियत करके, चावण्ड में ही रहने लगा। उसने चावण्ड में अपने महल तथा चामुण्डा माता का मंदिर भी बनवाया जो आज भी विद्यमान हैं। इन्हीं दिनों भामाशाह ने अकबर के अधिकार वाले मालवा प्रांत पर आक्रमण करके मुगलों से 25 लाख रुपये तथा 20 हजार अशर्फियां वसूल कीं। भामाशाह ने वे अशर्फियां चूलियां ग्राम में महाराणा को भेंट की। इस धन से 25 हजार सैनिक 12 वर्ष तक जीवन निर्वाह कर सकते थे।
अकबर इन दिनों पंजाब में था। जब उसने महाराणा प्रताप की इन कार्यवाहियों के बारे में सुना तो वह क्रोध से तिलमिला गया। उसने शाहबाजखां को बुलाकर कहा कि तुम अभी मेवाड़ जाओ। उसके साथ मुहम्मद हुसैन, शेख तीमूर बदख्शी और मीरजादा अलीखां को भी भेजा गया। इन सेनापतियों से कहा गया कि यदि तुम प्रताप का दमन किये बिना वापस आओगे तो तुम्हारा सिर कलम कर दिया जायेगा। शाहबाजखां को, नई सेनाओं की भर्ती के लिये बहुत बड़ा खजाना भी दिया गया। दिसम्बर 1578 में शाहबाजखां मेवाड़ के लिये रवाना हुआ। उसके आते ही प्रताप फिर से पहाड़ों में चला गया। मुगल सेनाएं तीन महीने तक पहाड़ों में भटकती हुई प्रताप को ढूंढती रहीं किंतु प्रताप हाथ नहीं आया। इस पर ई.1580 के आरम्भ में शाहबाजखां मैदानी क्षेत्र के थानों पर मुगल अधिकारी नियुक्त करके मेवाड़ से चला गया। शाहबाजखां, प्रताप को मारे या पकड़े बिना ही लौट आया था। अकबर ने शाहबाजखां का सिर तो कलम नहीं किया किंतु उससे अजमेर की सूबेदारी छीन ली तथा मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना) को अजमेर का सूबेदार बना दिया। एक दिन शाहबाजखां ने बादशाह के दरबार में अवज्ञा की तो अकबर ने उसे रायसल दरबारी के पहरे में रखवा दिया।
शाहबाजखां के चले जाने पर महाराणा ई.1580 में पुनः मेवाड़ आया तथा एक वर्ष तक गोगूंदा से 16 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित ढोल गांव में रहा। तत्पश्चात् महाराणा, तीन वर्ष तक गोगूंदा से पांच किलोमीटर दूर बांसड़ा गांव में रहा। इस बीच प्रताप ने पूरे मेवाड़ में राजाज्ञा प्रचारित करवाई कि प्रजा मैदानी भाग में खेती न करे। यदि किसी ने एक बिस्वा पर भी खेती करके मुसलमानों को हासिल दिया तो उसका सिर उड़ा दिया जायेगा। इस आज्ञा के बाद मेवाड़ के किसान मैदानी क्षेत्रों को खाली करके पहाड़ों पर चले गये और वहाँ किसी तरह अपना पेट पालने लगे। जब मेवाड़ से अनाज का एक दाना भी नहीं मिला तो मुगल सेनाएं देश के दूसरे हिस्सों से अनाज मंगवाने लगीं। इस अनाज को प्रताप के सैनिक लूट लिया करते थे। एक बार प्रताप को सूचना मिली कि ऊँटाले के एक किसान ने शाही थानेदार की आज्ञा से अपने खेत में सब्जी बोई है। इस पर महाराणा ने रात के समय शाही फौज में पहुंचकर किसान का सिर काट डाला और लड़ता-भिड़ता फिर से पहाड़ों में चला गया। प्रताप की इस कार्यवाही के बाद उस सम्पूर्ण प्रदेश में खेती पूरी तरह बंद हो गई। उन दिनों मुगलों की राजधानी से यूरोप के बीच का व्यापार सूरत बंदरगाह के माध्यम से होता था। प्रताप के भय से यह समस्त व्यापार बंद हो गया क्योंकि आगरा से सूरत तक जाने के लिये मेवाड़ से होकर जाना पड़ता था और प्रताप के सिपाही इस माल को लूट लेते थे।
महाराणा प्रताप द्वारा मुगलों और कच्छवाहों को दण्ड
हल्दीघाटी के युद्ध को सात साल बीत चुके थे। चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, गोगूंदा और उदयपुर पर मुगलों का अधिकार था तथा महाराणा प्रताप पहाड़ी गांवों में रह रहा था। अकबर अपनी सारी शक्ति मेवाड़ के विरुद्ध झौंककर पूरी तरह निराश हो गया था। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर अधिकार करने की योजना बनाई। सबसे पहले उसने दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तानखां नामक थानेदार नियुक्त था। जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये।
प्रताप की सेना दिवेर के बाहर मोर्चा बांधकर बैठ गई। एक दिन जब मुगलों की सेना घाटी में गश्त लगाने निकली तो प्रताप ने उस पर धावा बोल दिया। प्रताप के वीर सैनिक सोलंकी परिहार ने सुल्तानखां के हाथी के पांव काट दिये। प्रताप ने अपने भाले से हाथी के कुंभ स्थल को फोड़ दिया। प्रताप के कुंवर अमरसिंह ने भी भाले से वार किया जिससे हाथी के कुंभ स्थल के दो टुकड़े हो गये और वह मर गया। इसके बाद अमरसिंह ने सुल्तानखां की छाती में अपना भाला दे मारा। अमरसिंह के वार से ही थानेदार की मृत्यु हुई। थाने के दूसरे अधिकारी भी मारे गये तथा थाने पर महाराणा का अधिकार हो गया। इसके बाद वहाँ पहुँचे आसपास के चौदह मुगल थानेदार भी प्रताप का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाये। दीवेर के युद्ध के बाद अमरसिंह ने एक ही दिन में मेवाड़ से मुगलों के पांच थाने हटा दिये। यह क्रम शेष 36 थाने उठाये जाने तक जारी रहा। इसके बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़, जावर एवं चावण्ड को जीता।
कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान कहा है। दिवेर तथा मेरेथान के युद्धों में अवश्य समानता है। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों से अपनी धरती ठीक उसी तरह वापस छीन ली थी जिस तरह मेरेथान के युद्ध में यूनानियों ने ईरानियों को अपने देश से बाहर निकाल दिया था। मेवाड़ में अपने थानेदारों का पराभव देखकर अकबर ने मिर्जाखां (अब्दुर्रहीम खानखाना) को मेवाड़ भेजा ताकि वह महाराणा को समझा-बुझाकर अकबर की अधीनता स्वीकार करवाये। मिर्जाखां ने भामाशाह से बात की किंतु भामाशाह ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार दिया। इसके बाद महाराणा प्रताप ने अपने ही कुल के उन दो राजाओं को दण्डित करने का निर्णय लिया जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। महाराणा ने बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर पर आक्रमण किया तथा उनके शासकों से अपनी अधीनता स्वीकार करवाई।
ई.1576 में हल्दीघाटी में हुई मुगलों की पराजय का बदला ई.1584 तक नहीं लिया जा सका था, इसलिये अकबर की उद्विग्नता बढ़ती ही जाती थी। हल्दीघाटी की असफलता के बाद से, हिन्दू सेनापतियों को महाराणा प्रताप के विरुद्ध नहीं भेजा जा रहा था किंतु जब समस्त मुसलमान सेनापति भी प्रताप के विरुद्ध असफल सिद्ध हुए तो 6 दिसम्बर 1584 को अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये भेजा। मिर्जा जफर बेग को बख्शी बनाकर उसके साथ किया गया। जगन्नाथ कच्छवाहा दो वर्ष तक पहाड़ों में भटकता रहा किंतु महाराणा का बाल भी बांका नहीं कर सका। ई.1586 में वह चुपचाप काश्मीर चला गया।
अकबर समझ चुका था कि हिन्दुओं के इस सूर्य को ढंक लेना उसके वश की बात नहीं। अकबर के सेनापति एक-एक करके पराजय का कलंकित जीवन जीने पर विवश हुए थे। अतः अकबर ने जगन्नाथ कच्छवाहे के बाद फिर किसी को मेवाड़ नहीं भेजा। जगन्नाथ के लौट जाने के बाद महाराणा प्रताप 11 वर्ष तक अपनी प्रजा का पालन करते रहे। इस बीच उन्होंने एक वर्ष की अवधि में ही अकबर के उन समस्त थानों को उठा दिया जो अकबर ने प्रताप के जीवन काल में प्रताप से छीने थे। ई.1586 तक केवल चित्तौड़गढ़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर महाराणा प्रताप ने पूरा मेवाड़ अपने अधीन कर लिया।
मुगलों का गर्व धूल में मिलाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने कच्छवाहों को दण्डित करने का संकल्प लिया। प्रताप ने आम्बेर राज्य पर आक्रमण करके कच्छवाहों के धनाढ्य नगर मालपुरा को लूट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। प्रबल प्रतापी कच्छवाहे जिनकी लड़कियां अकबर के महलों में बैठी थीं और जिन कच्छवाहों का डंका पूरे भारत मेें बजता था, महाराणा प्रताप के विरुद्ध कुछ न कर सके। मालपुरा को नष्ट करने के बाद महाराणा प्रताप का शेष जीवन सुख और शांति से व्यतीत हुआ। उन्होंने उजड़े हुए मेवाड़ को फिर से बसाया, उदयपुर नगर में श्रेष्ठ लोगों को लाकर उनका निवास करवाया तथा मुगलों के विरुद्ध अपना साथ देने वाले अपने सरदारों की प्रतिष्ठा और पद में वृद्धि की तथा उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं। चावण्ड के महलों में निवास करते हुए ही 19 जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास हुआ।