Saturday, December 21, 2024
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मेवाड़ का भारत संघ में प्रवेश

राजस्थान, गुजरात एवं मालवा के शासकों का सम्मेलन

कैबीनेट मिशन ने 22 मई 1946 को घोषित किया कि छोटी-छोटी रियासतों को चाहिये कि वे आपस में मिलकर बड़ी इकाईयों का गठन कर लें। इससे प्रेरित होकर मई 1946 में मेवाड़ महाराणा भूपालसिंह ने राजस्थान, गुजरात एवं मालवा के शासकों तथा प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन उदयपुर में आयोजित किया। महाराणा ने इस सम्मेलन के लिये एक कार्यकारिणी सभा बनाई जिसमें समस्त राज्यों के शासकों को समान स्तर दिया गया।

उन्हें अपने में से किसी एक राजा को तीन वर्षों के लिये अध्यक्ष चुनने का अधिकार दिया गया। द्विसदनीय व्यवस्थापिका का भी प्रस्ताव किया गया जिसके एक सदन में तो राज्यों से समान संख्या में प्रतिनिधि होंगे तथा दूसरे सदन में राज्यों की जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्य होंगे। छोटे से छोटे राज्य को भी एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार होगा। निर्वाचन में अधिक से अधिक लोगों को मताधिकार प्रदान किया जायेगा। मंत्रिमण्डल की भी व्यवस्था थी यद्यपि इसके कार्यों, अधिकारों अथवा इसके गठन के सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट व्याख्या नहीं थी।

मेवाड़ राज्य का संविधान सभा में प्रवेश

वायसराय वेवेल ने कैबीनेट मिशन के प्रस्तावों के अनुसार 2 सितम्बर 1946 को दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में अंतरिम सरकार का गठन किया तथा भविष्य में स्वतंत्र होने वाले भारत देश का संविधान बनाने के लिये एक संविधान सभा का गठन किया। मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान के लिये अलग संविधान सभा की मांग करते हुए इस संविधान सभा में प्रवेश करने से मना कर दिया। जिन्ना की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए भोपाल नवाब हमीदुल्लाखां के नेतृत्व में कुछ राजाओं ने विशेष शर्तों के साथ संविधान सभा में प्रवेश करने की वकालात की। राजपूताने के राष्ट्रभक्त राजाओं ने हमीदुल्लाखां द्वारा की जा रही इस कार्यवाही का समर्थन नहीं किया।

अप्रेल 1947 के प्रथम सप्ताह में नरेंद्र मण्डल की सामान्य बैठक आयोजित की गयी जिसमें संविधान सभा में प्रवेश के प्रश्न पर राजाओं में सहमति बनाने का प्रयास किया गया। संविधान सभा में प्रवेश के प्रश्न पर मेवाड़ का रवैया अत्यंत सकारात्मक था। उदयपुर के प्रधानमंत्री सर टी. विजयराघवाचारी ने इस बैठक में कहा कि संविधान सभा में सहमति के विषय पर सशर्त प्रवेश बड़ी गलती होगी तथा राजाओं पर भारत की प्रगति का शत्रु होने का आरोप लगेगा।

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भोपाल नरेश हमीदुल्लाखां तथा उसके प्रभाव वाले राजाओं ने संविधान सभा में प्रवेश को लेकर राजाओं में सहमति नहीं बनने दी। इस पर 10 अप्रेल 1947 को बड़ौदा, पटियाला, बीकानेर, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर तथा रीवां ने संविधान सभा मेें सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। 28 अप्रेल 1947 को बड़ौदा, कोचीन, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर तथा बीकानेर के प्रतिनिधियों ने संविधान सभा में अपना स्थान ग्रहण कर लिया। इससे अन्य राजाओं को भी अनिर्णय के संशय से मुक्ति मिल गई।

भारत को खण्ड-खण्ड करने का षड़यंत्र
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 के अनुसार 15 अगस्त 1947 को भारत के देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जानी थी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जानी थी। इस कारण देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने के लिये स्वतंत्र थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में अधिकांश राज्य, हिंदू राज्य थे। राजपूताना में भी यही स्थिति थी। केवल टोंक राज्य में मुस्लिम शासक का शासन था किंतु वहाँ भी जनसंख्या हिन्दू बहुल थी। अतः जातीय आधार पर भारत तथा राजपूताना के राज्य और उनकी जनता ब्रिटिश भारत के हिंदू बहुल क्षेत्रों से जुड़े हुए थे।

कांग्रेस का मानना था कि जब ब्रिटिश सरकार सत्ता का हस्तांतरण भारत सरकार को कर रही है तब देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता स्वतः ही भारत सरकार को स्थानांतरित हो जायेगी। यद्यपि छोटे राज्यों के पास भारत संघ में मिल जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था तथापि बड़े एवं सक्षम राज्यों की स्थित अलग थी। इसके बावजूद त्रावणकोर, हैदराबाद, जम्मू एवं कश्मीर, मैसूर, इन्दौर, भोपाल, नवानगर यहाँ तक कि बिलासपुर की बौनी रियासत ने भी पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखा। अलवर नरेश ने 3 अप्रेल 1947 को बम्बई में आयोजित नरेंद्रमण्डल की बैठक में कहा कि देशी राज्यों के अधिपतियों को हिंदी संघ राज्य में नहीं मिलना चाहिये। 5 जून 1947 को भोपाल तथा त्रावणकोर ने स्वतंत्र रहने के निर्णय की घोषणा की। हैदराबाद को भी यही उचित जान पड़ा। जम्मू एवं कश्मीर, इन्दौर, जोधपुर, धौलपुर, भरतपुर तथा कुछ अन्य राज्यों के समूह द्वारा भी ऐसी ही घोषणा किये जाने की संभावना थी।

पाल नवाब हमीदुल्लाखां छिपे तौर पर मुस्लिम परस्त, पाकिस्तान परस्त तथा कांग्रेस विरोधी के रूप में काम कर रहा था किंतु जब देश का विभाजन होना निश्चित हो गया तो तीसरे मोर्चे के नेता भोपाल नवाब ने अपनी मुट्ठी खोल दी और प्रत्यक्षतः विभाजनकारी मुस्लिम लीग के समर्थन में चला गया तथा जिन्ना का निकट सलाहकार बन गया। वह जिन्ना की उस योजना में सम्मिलित हो गया जिसके तहत राजाओं को अधिक से अधिक संख्या में या तो पाकिस्तान में मिलने के लिये प्रोत्साहित करना था या फिर उनसे यह घोषणा करवानी थी कि वे अपने राज्य को स्वतंत्र रखेंगे। रियासती मंत्रालय के सचिव ए. एस. पई ने पटेल को एक नोटशीट भिजवायी कि भोपाल नवाब, जिन्ना के दलाल की तरह काम कर रहा है।

नवाब चाहता था कि भोपाल से लेकर कराची तक के मार्ग में आने वाले राज्यों का एक समूह बने जो पाकिस्तान में मिल जाए। इसलिये उसने जिन्ना की सहमति से एक योजना बनायी कि बड़ौदा, इंदौर, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर और जैसलमेर राज्य, पाकिस्तान के अंग बन जाएं। इस योजना में सबसे बड़ी बाधा उदयपुर और बड़ौदा की ओर से उपस्थित हो सकती थी। महाराजा जोधपुर ने उक्त रियासतों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। इस प्रकार भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का एक मानचित्र तैयार हो गया। हमीदुल्लाखां ने धौलपुर महाराजराणा उदयभानसिंह को भी इस योजना में सम्मिलित कर लिया।

उदयभानसिंह जाटों की प्रमुख रियासत के बहुपठित, बुद्धिमान एवं कुशल राजा माने जाते थे किंतु वे किसी भी कीमत पर धौलपुर को भारत संघ में मिलाने को तैयार नहीं थे। जिन्ना के संकेत पर नवाब तथा महाराजराणा ने जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर तथा जयपुर आदि रियासतों के राजाओं से बात की तथा उन्हें जिन्ना से मिलने के लिये आमंत्रित किया। नवाब का साथ देने वाले हिंदू राजाओं में अलवर महाराजा तेजसिंह भी थे।

महाराणा द्वारा जिन्ना की योजना को पलीता

धौलपुर नरेश महाराजराणा उदयभानसिंह ने जोधपुर नरेश हनवंतसिंह, उदयपुर नरेश भूपालसिंह तथा जयपुर नरेश जयसिंह से सम्पर्क किया ताकि इन राजाओं को पाकिस्तान में मिलाने के लिये सहमत किया जा सके। उदयपुर नरेश और जयपुर नरेश तो उदयभानसिंह की चाल में नहीं आये किंतु वह जोधपुर नरेश हनवंतसिंह को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो गये। महाराजा हनवंतसिंह इस बात को जानते थे कि यदि राजपूताना की सर्वाधिक प्रतिष्ठित रियासत मेवाड़, भोपाल नवाब की योजना में सम्मिलित हो जाती है तो यह योजना अच्छी तरह से कार्यान्वित की जा सकती है। अपने दीवान सी. एस. वेंकटाचार की सलाह के विरुद्ध महाराजा जोधपुर ने अपने साथ उदयपुर के महाराणा को पाकिस्तान में मिलने के लिये प्रेरित किया।

महाराणा ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए लिखा- ‘मेरी इच्छा तो मेरे पूर्वजों ने निश्चित कर दी थी। यदि वे थोड़े भी डगमगाये होते तो वे हमारे लिये हैदराबाद जितनी ही रियासत छोड़ जाते। उन्होंने ऐसा नहीं किया और न मैं करूंगा। मैं तो हिन्दुस्तान के साथ हूँ।’ इस प्रकार महाराणा ने देशभक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वेच्छा से भारतीय संघ में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। जोधपुर राज्य पश्चिम की तरफ पाकिस्तान तथा पूर्व की तरफ मेवाड़, इंदौर तथा भोपाल के मध्य योजक कड़ी था। महाराजा इंदौर पहले से ही भोपाल नवाब के साथ था, यदि उदयपुर राज्य, जोधपुर राज्य के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता तो भोपाल भी पाकिस्तान से जुड़ सकता था तथा नवाब की पाकिस्तान में मिलने की इच्छा पूरी हो सकती थी…….किंतु महाराणा ने जोधपुर के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

जोधपुर एवं धौलपुर के राजाओं की तरफ से प्राप्त इस प्रस्ताव को ठुकराकर महाराणा भूपालसिंह ने मुहम्मद अली जिन्ना और भोपाल नवाब हमीदुल्लाखां की पूरी योजना को पलीता लगा दिया। जोधपुर, जैसलमेर, धौलपुर, इंदौर, भोपाल आदि राज्य औंधे मुंह गिरे तथा अपने ही राज्यों में अपनी जनता के बीच अविश्वसनीय हो गये।

महाराणा द्वारा राज्यों का संघ बनाने के पुनर्प्रयास

भारत की स्वतंत्रता का समय आया तो महाराणा भूपालसिंह ने स्वयं को राष्ट्र के साथ खड़े हुए दिखाया किंतु वह भारत संघ में प्रत्यक्ष विलय की अपेक्षा किसी संघ अथवा उपसंघ के रूप में सम्मिलित होना चाहते थे। जब भारत की स्वतंत्रता की तिथि घोषित हो गयी तो महाराणा भूपालसिंह ने 25-26 जून 1947 को उदयपुर में राजस्थान के शासकों का एक सम्मेलन पुनः आयोजित किया जिसमें 22 राजाओं ने भाग लिया। महाराणा ने उपस्थित नरेशों से अपील की कि वे सब मिलकर राजस्थान यूनियन का गठन करें ताकि भावी भारतीय संघ में वे एक सबल इकाई के रूप में काम कर सकें।

महाराणा का सुझाव था कि प्रस्तावित यूनियन भारतीय संघ से सम्बद्ध उपसंघ के रूप में रहे। राजाओं ने महाराणा की योजना पर विचार करने का आश्वासन दिया। महाराणा ने सम्मेलन में उपस्थित शासकों को चेतावनी देते हुए कहा- ‘हम लोगों ने मिलकर अपनी रियासतों की यूनियन नहीं बनायी तो सभी रियासतें जो प्रांतों के समकक्ष नहीं हैं, निश्चित रूप से समाप्त हो जाएंगी।’ के. एम. मुंशी ने भी इस योजना का समर्थन किया। जयपुर, जोधपुर और बीकानेर रियासतों को छोड़कर शेष रियासतों ने सिद्धांततः यूनियन बनाने का सिद्धांत स्वीकार कर लिया। संविधान निर्माण के लिये एक समिति गठित की गयी।

महाराणा द्वारा किये जा रहे प्रयासों को छोटे राज्यों ने इस रूप में लिया कि बड़े राज्य, छोटे राज्यों को निगल जाना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महाराणा ने एकीकरण की चर्चा के दौरान जाने-अनजाने में ऐसे संकेत भी दिये थे। महाराणा छोटी रियासतों का मेवाड़ में विलय करके वृहत्तर मेवाड़ बनाना चाहते थे किंतु वे यह भी चाहते थे कि बाद में वृहत्तर मेवाड़ में जयपुर, जोधपुर और बीकानेर को साथ मिलकर ऐसा संघ बनाया जाये जो भारतीय संघ में महत्वपूर्ण इकाई के रूप में भूमिका निभा सके।

रघुबीरसिंह ने लिखा है- ‘भारत का जब विभाजन हो रहा था, एवं जब अंग्रेजों ने एक बारगी भारत से बिदा होने का निश्चय कर यह बात घोषित की, उसी समय गुजरात के सुप्रसिद्ध नेेता एवं साहित्यकार कन्हैयालाल मुंशी ने धूमकेतु की नाईं राजस्थान के राजैनतिक क्षेत्र में प्रवेश किया। वह मेवाड़ राज्य का सलाहकार नियुक्त हुआ। भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्वतंत्र पाकिस्तान की स्थापना से राजस्थान की राजनैतिक एकता भारत की सुरक्षा एवं स्वाधीनता के लिये आवश्यक हो गई थी। अतएव मुंशी ने इस महत्त्वपूर्ण मामले को हाथ में लिया।

उसकी ही प्रेरणा से राजस्थान और मालवा के पड़ौसी राज्यों का एक शक्तिशाली संघ स्थापित करने का पुनः प्रयत्न किया गया और जून 1947 के अंतिम सप्ताह में ‘राजस्थान संघ’ की स्थापना की घोषणा पत्र पर कोई 18-20 राज्यों के नरेशों या उनके प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर कर दिये। उदयपुर में होने वाले इस महत्त्वपूर्ण राजनैतिक सम्मेलन के वातावरण को देख तथा वहाँ किये गये निश्चयों के भविष्य सम्बन्धी अनिश्चितता का अनुभव कर इतिहास के विद्यार्थी को ऐसे ही संकटपूर्ण अवसर पर जुलाई 1734 में हुरड़ा में हुए राजस्थानी नरेशों के सम्मेलन तथा वहाँ स्वीकृत संधिपत्र का स्मरण हुए बिना नहीं रहा।

इन सवा दो शताब्दियों में भी राजस्थानी नरेशों ने अपने निरंतर कटु अनुभवों से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की थी एवं स्थापना के दिन से ही इस संघ की विफलता के लक्षण सुस्पष्ट देख पड़ने लगे। मुंशी का प्रभाव मेवाड़ में स्थाई नहीं हो सका और उनके दूर होते ही इस संघ के प्रगतिशील दल का पक्ष निर्बल हो गया और प्रतिक्रियावादियों की बन आई तथा अत्यावश्यक जनतंत्रीय तत्वों के आधार पर इस संघ के संगठन का प्रारम्भ तक नहीं किया जा सका।

महाराणा द्वारा प्रस्तावित संघ से राष्ट्रीय नेताओं की असहमति

प्रस्तावित संघ के बारे में जनता से कोई राय नहीं ली गयी थी अतः मेवाड़ प्रजा मण्डल ने इसका विरोध किया। अखिल भारतीय राज्य परिषद की राजपूताना इकाई के अध्यक्ष जयनारायण व्यास ने 29 जून 1947 को महाराणा को एक पत्र लिखा कि प्रस्तावित योजना जनता के लिये वरदान के स्थान पर अभिशाप प्रमाणित होगी। इस प्रकार की योजना में जनता का सहयोग लेना अपेक्षित है। जयनारायण व्यास ने सरदार पटेल को लिखा कि प्रस्तावित संघ को मान्यता न दें। के. एम. मुंशी ने सरदार पटेल से शिकायत की कि मेवाड़ प्रजामण्डल राजस्थान संघ निर्माण कार्य में साथ नहीं दे रहा। इस पर सरदार पटेल ने मुंशी को सलाह दी कि जननेताओं को प्रजातांत्रिक संघ बनाना चाहिये। के. एम. मुंशी के उदयपुर से चले जाने के बाद यह योजना स्वतः समाप्त हो गयी।

महाराणा द्वारा प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर

महाराणा भूपालसिंह ने 7 अगस्त 1947 को प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर किये। यथास्थिति समझौता पत्र पर कार्यकारी प्रधानमंत्री मनोहरसिंह ने हस्ताक्षर किये। महाराणा भूपालसिंह भारत में सम्मिलित होने वाले सर्वप्रथम राजाओं में से थे। बाद में वे स्वेच्छा से राजस्थान संघ में सम्मिलित हो गये। सबसे पहले प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर करने के मामले में बीकानेर, उदयपुर से बाजी मार ले गया। बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने 6 अगस्त 1947 को प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर किये। इस दौरान मेवाड़ राज्य में पूरी तरह शांति रही। सीमा पर स्थित न होने के कारण राज्य में किसी तरह के सांप्रदायिक तनाव की स्थिति नहीं बनी।

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