कुछ दिन दिल्ली में रहकर महाराजा रूपसिंह बादशाह से छुट्टी लेकर किशनगढ़ आ गया। अब तक महाराजा का विवाह नहीं हुआ था। किशनगढ़ राजवंश का यह इकलौता कुलदीपक अब तक ट्रांस-ऑक्सियाना की दुर्गम पहाड़ियों में अकेला ही टिमटिमाता रहा था। अब उसे कुछ अवकाश मिला तो उसका विवाह हुआ। महाराजा रूपसिंह को अपनी राजधानी किशनगढ़ की झील, कैलास पर्वत पर स्थित मानसरोवर से कम सुंदर एवं भव्य नहीं लगती थी। यद्यपि उसने मानसरोवर को कभी देखा नहीं था, फिर भी उसका विश्वास था कि मानसरोवर इससे अधिक सुंदर नहीं हो सकता। जब उसमें कमल के फूल खिलते तो इस झील का सौंदर्य देखते ही बनता था।
सर्दियां आतीं तो पूरी झील हजारों किलोमीटर दूर से आए श्वेत, श्याम एवं विभिन्न रंगों के पक्षियों से भर जाती। उनका कलरव झील को जैसे मुखर बना देता। प्रायः चांदनी रात में महाराजा अपनी रानी के साथ इस झील में नौका विहार करता। झील के किनारे खड़े वृक्षों के झुण्ड में वह अपने आराध्य भगवान बाल-कृष्ण के ध्यान में बैठ जाता। उसका मन असीम आनंद से भर जाता। उसकी रानी भी उसी की तरह भगवान कृष्ण की अनन्य भक्त थी।
इस झील को देखकर कई बार महाराजा को बलख-बदखशां की दुर्गम पहाड़ियों के बीच स्थित विशाल झीलों का स्मरण हो आता। वे भी सुंदर थीं किंतु ऐसी जीवंत नहीं थीं। पहाड़ों के दीर्घ कालीन प्रवास के पश्चात् महाराजा को यह अच्छी तरह समझ में आ गया था कि पहाड़ केवल दूर से ही अच्छे लगते हैं। पहाड़ों पर आदमी का रहना उतना ही कठिन है जितना कठिन बर्फीले पहाड़ी रास्तों पर चलकर वहाँ तक पहुँचना है। कई बार महाराजा की आँखों के समक्ष काहमर्द का दुर्ग तैर जाता। एक बार जब काहमर्द दुर्ग का स्मरण होता तो फिर घण्टों तक उसका ध्यान बना रहता।
काहमर्द के दुर्ग में महाराजा ने काफी समय व्यतीत किया था। नदी के किनारे खड़ा वह दुर्ग उसके मन में बस गया था जिसके चारों ओर दीर्घाकाय वृक्षों के विशाल वन खड़े थे।
महाराजा रूपसिंह ने निश्चय किया कि वह भी अपने राज्य में काहमर्द जैसा ही एक दुर्ग बनवायेगा। दुर्ग हेतु उपयुक्त स्थान खोजने के लिए महाराजा काफी दिनों तक घोड़े पर बैठकर अपने राज्य में घूमता रहा। वह चाहता था कि नए दुर्ग का परिवेश काहमर्द दुर्ग के परिवेश से मिलता-जुलता हो।एक दिन उसकी दृष्टि राजधानी से चार कोस दूर बवेरा गांव के निकट एक ऐसी पहाड़ी नदी पर पड़ी जिसकी क्षीण धारा जंगल में प्रवेश करने से पहले ठीक वैसे ही मुड़ती थी जैसे काहदमर्द की नदी मुड़ती थी।
उस स्थल से खड़े होकर देखने पर अरावली के पहाड़ भी दिखाई देते थे और दूर तक दीर्घकाय वृक्षों का झुरमुट भी पसरा हुआ दिखता था। यहाँ का दृश्य काफी कुछ काहमर्द दुर्ग के चारों ओर दिखने वाले जंगलों के जैसा था। महाराजा रूपसिंह ने निर्णय लिया कि वह इसी पहाड़ी धारा के किनारे अपना नया दुर्ग बनवायेगा। यहाँ दुर्ग बनवाने के और भी कई लाभ थे। यह स्थान मारवाड़, ढूंढाड़ और किशनगढ़ रियासतों की सीमाओं के मिलन बिंदु पर स्थित था। इसलिए इस दुर्ग में सेना नियुक्त करके वह अपने राज्य की सीमा को भी सुरक्षित कर सकता था।
महाराजा ने पहाड़ी नदी का नामकरण करके उसे रूपनदी घोषित किया और उसके किनारे पर अपनी स्मृति के आधार पर लगभग एक मील के घेरे में काहमर्द जैसा ही एक दुर्ग बनवाना आरंभ किया। उसने दुर्ग के चारों ओर गहरी और चौड़ी खाइयां खुदवाईं और उनमें रूपनदी का जल भर दिया ताकि शत्रु सरलता से दुर्ग तक नहीं पहुँच सके। इसके बाद रूपसिंह ने बवेरा का नया नाम रखा- रूपनगढ़।
जब अजमेर के मुगल सूबेदार को ज्ञात हुआ कि महाराजा रूपसिंह, बवेरा में विशाल दुर्ग बनावा रहा है, तो उसके पैरों के तले से जमीन खिसक गई। उसने तत्काल इसकी सूचना बादशाह के पास भिजवाई। सूबेदार को पता नहीं था कि महाराजा रूपसिंह इस दुर्ग को बनवाने के लिए बादाशाह की अनुमति पहले ही ले चुका है।
शाहजहाँ ने अजमेर के सूबेदार को लिखा -‘निश्चित रहो। तुम्हारा एक दोस्त मजबूत हो रहा है। किसी आड़े दिन तुम्हारे काम आएगा।’
सूबेदार को बादशाह की यह दिलदारी पसंद नहीं आई। वह कतई नहीं चाहता था कि जिस अजमेर को मरहूम बादशाह अकबर ने दिल्ली और आगरा के बाद इतनी होशियारी से मुगलों की तीसरी राजधानी में तब्दील कर दिया था, उसी अजमेर के निकट काफिरों का इतना मजबूत किला बने किंतु सूबेदार की इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वह बादशाह को दूसरा खत लिखकर बादशाह के निर्णय का विरोध कर सके। अतः किला बनता रहा और तेजी से फैलता रहा किंतु राजा रूपसिंह कहाँ जानता था कि उसके भाग्य में इस किले में अधिक दिनों तक रहना नहीं लिखा है। कांधार की खूनी पहाड़ियां फिर से उसे चीख-चीख कर बुला रही थीं।