आखिर शाहजहाँ के स्वास्थ्य ने पलटी खाई। कौन जाने कि यह शाही हकीम की दवाइयों का असर था या महाराजा रूपसिंह द्वारा सलेमाबाद से लाई गई चमत्कारी भभूती का लेकिन बादशाह न केवल अपने बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया अपितु सुबह की ताजी हवा खाने और रियाया को झरोखा दर्शन देने के लिए वह अपने खास महल के झरोखे में आकर बैठने लगा।
जैसे ही बादशाह ने झरोखा दर्शन देना शुरू किया, लाल किले और दिल्ली में चल रही फुसफुसाहटें बंद हो गईं। उन नौकरों, लौण्डियों, हिंजड़ों, वेश्याओं, पातरियों और पड़दा बेगमों के मुँह खुद ब खुद सिल गए जो बादशाह की नासाज तबियत तथा दारा द्वारा उसे बंदी बनाए जाने के बारे में तरह-तरह के किस्से गढ़ने और दुनिया भर की अफवाहें फैलाने में जरा भी भय नहीं खाते थे।
जैसे-जैसे ईद निकट आती गई, शाहजहाँ की तबियत में सुधार होता ही गया। कुछ दिनों में बादशाह न केवल दरबार में जाकर बैठने लगा अपितु उसने हर साल की तरह ईद के जलसे में नगर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया ताकि रियाया को ईद की मुबारकबाद दी जा सके।
ईद के जलसे में बादशाह की सवारी जिस-जिस अमीर-उमराव और हिन्दू सरदार की हवेली के सामने से निकलती थी, वह अमीर-उमराव और सरदार अपनी हवेली के बाहर आकर बादशाह का इस्तकबाल करता था और बादशाह को ईद की न्यौछावर पेश करता था। बादशाही सवारी के रास्ते में महाराजा रूपसिंह की हवेली भी पड़ती थी और हर साल किशनगढ़ राज्य का कोई न कोई प्रमुख व्यक्ति महाराजा रूपसिंह की तरफ से बादशाह को नजर-न्यौछावर करता था क्योंकि महाराजा स्वयं तो अमूमन हर ईद पर बलख-बदखषां के मोर्चों पर रहा करता था।
इस बार की ईद पर महाराजा रूपसिंह दिल्ली में ही था और उसके मंत्रियों द्वारा उसे सुबह ही बता दिया गया था कि ईद की नमाज के बाद बादशाह की सवारी हवेली के सामने से निकलेगी। महाराजा नित्य प्रतिदिन भगवान कल्याणरायजी की सेवा-पूजा में बैठा करता था। कल्याणरायजी की इस प्रतिमा को महाराजा, वृंदावन से लेकर आया था। महाराजा का विचार था कि वह कल्याणरायजी को माण्डलगढ़ ले जाकर विराजमान करेगा किंतु उसे माण्डलगढ़ जाने का समय नहीं मिल पाया था, इसलिए इस समय कल्याणरायजी, रूपसिंह की दिल्ली वाली हवेली में विराजमान थे।
उस दिन जब महाराजा, भगवान कल्याणराय के ध्यान में बैठा तो उसका ध्यान भगवान के चरणों में ऐसा लगा कि उसे अपनी देह की कोई सुध-बुध नहीं रही। यहाँ तक कि बादशाह की सवारी के आने का समय हो गया और महाराजा की समाधि नहीं टूटी। सेवकों की हिम्मत नहीं होती थी कि महाराजा को जाकर सूचित करें। जब बादशाह की सवारी हवेली के बिल्कुल निकट आ गई तो नौकरों की घबराहट भी बढ़ गई। बादशाह की सवारी के ताशे जोर-जोर से बज रहे थे किंतु राजा था कि पूजाघर से बाहर निकलने का नाम नहीं ले रहा था।
आखिर महाराजा के मुँह लगे एक सेवक ने पूजाघर का पर्दा हटाकर भीतर जाने का विचार किया। जैसे ही सेवक ने पर्दा हटाने के लिए पर्दे पर हाथ लगाया, उसने देखा कि महाराजा स्वयं ही हड़बड़ाते हुए पूजा घर से निकलकर बाहर आ रहा है। सेवकों ने बादशाह को देने के लिए पहले से ही तैयार थाली महाराजा के हाथ में दी और महाराजा उसे लेकर तेज कदमों से हवेली के मुख्य द्वार से बाहर निकल गया। ठीक उसी समय बादशाह का हाथी हवेली के द्वार पर आ पहुँचा।
महाराजा रूपसिंह ने आगे बढ़कर बादशाह को मुगलों की परम्परा के अनुसार पूरी तरह कमर झुकाकर सलाम किया तथा ईद की मुबारकबाद देते हुए उसे सोने की अशर्फियां भेंट कीं। बादशाह ने खुश होकर बख्शी को इशारा किया और बख्शी ने सोने की अशर्फियां उठा लीं। बादशाह को महाराजा आज कुछ विशेष सजधज में दिखाई दिया। उसकी सजधज देखकर बादशाह को बहुत अच्छा लगा लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि महाराजा इतना अलग सा क्यों दिख रहा था!
आज के जलसे में बादशाह का हाथी जाने कितने ही चगताई, तैमूरी, कजलबाश, ईरानी, तूरानी, सुन्नी, शिया और हिन्दू अमीरों की हवेलियों पर रुका था और सबने उसे बढ़-चढ़कर ईद की भेंटें दी थीं किंतु जो सुकून बादशाह को इस समय महाराजा रूपसिंह को देखकर हुआ, उस सुकून का अनुभव उसे और कहीं भी नहीं हुआ था।
ईद की मुबारकबाद की औपचारिकताएं पूरी होने के बाद बादशाह की सवारी को आगे बढ़ जाना चाहिए था किंतु बादशाह हाथी को आगे बढ़ाने के लिए महावत को संकेत ही नहीं कर रहा था। अंत में महावत ने ही हिम्मत करके हाथी आगे बढ़ाया। बादशाह के हाथी के आगे बढ़ते ही महाराजा रूपसिंह बिना किसी से कुछ बोले, हड़बड़ाते हुए फिर से पूजाघर में घुस गया।
बादशाही सवारी शहर भर का चक्कर लगाकर लगभग दो घण्टे बाद इसी रास्ते से लाल किले के लिए जाती थी। वापसी में भी सभी अमीर-उमराव और हिन्दू सरदार अपनी हवेलियों के आगे खड़े होकर बादशाह को सलाम करते थे।
जब दो घण्टे बाद बादशाह की सवारी के लौटने की आवाजें आने लगीं तो सेवकों को फिर से चिंता हुई। महाराजा इस बार भी पूजाघर से बाहर नहीं आ रहा था। आखिर सेवकों ने देखा कि महाराजा पूजाघर से हड़बड़ाता हुआ निकला और सेवकों की ओर देखकर बोला- ‘कितनी देर हो गई! आवाज क्यों नहीं दी। देखो तो बादशाह की सवारी की आवाजें कितनी निकट आ गई हैं! लाओ निछावर की थाली कहाँ है?’
महाराजा की बात सुनकर सेवक अचरज में पड़ गए। हवेली के बाहर बादशाही सवारी का हल्ला बढ़ता जा रहा था। जब सेवकों ने थाली जल्दी से आगे नहीं बढ़ाई तो महाराजा ने पूजा घर के बाहर रखी एक थाली उठाई तथा अपने कुर्ते की जेब में से कुछ अशर्फियां निकालकर थाली में डाल लीं और तेजी से हवेली के दरवाजे की तरफ भागा।
इस बार भी ठीक पहले जैसा ही हुआ। इधर तो राजा हवेली के बाहर निकला और उधर बादशाह का हाथी हवेली के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। महाराजा ने सुबह के समय अपनी गैर हाजिरी पर बहुत ही अफसोस जाहिर करते हुए अपने हाथ की थाली बादशाह के सामने बढ़ाई। बख्शी, महाराजा की चेष्टाओं को देखकर हैरान था। बादशाह ने भी अचरज से भरकर पूछा- ‘राजा साहेब! आज दो बार निछरावल क्यों?’
अब अचम्भित होने की बारी रूपसिंह की थी। वह कुछ समझा तो नहीं फिर भी सम्भल गया और हाथ जोड़कर बोला- ‘जहांपनाह। कौन जाने जिंदगी में ऐसा मुबारिक दिन मुझ काहिल की जिंदगी में फिर कभी देखना लिखा हो, न हो। इसलिए आज ही मन की हसरत पूरी कर लेना चाहता हूँ।’
महाराजा की बात सुनकर बादशाह को सलेमाबाद के आचार्य का संदेश याद आ गया, आचार्य ने कहलवाया था कि कुछ ही दिन बाद बादशाह को दिल्ली छोड़कर आगरा जाना पड़ेगा। बादशाह ने समझा कि महाराजा उसी संदेश की ओर संकेत कर रहा है। इसलिए बादशाह ने फिर से अपने बख्शी को संकेत किया। बख्शी ने इस बार भी सोने की अशर्फियां उठा लीं।
इस बार बादशाह ने अपने पीछे बैठे दारा को संकेत किया। दारा ने हीरे-पन्ने और मोती-माणिक से भरी एक थैली बादशाह के हाथी के साथ पैदल चल रहे बख्शी के हाथ में धर दी। बख्शी ने वह थैली महाराजा रूपसिंह की ओर बढ़ाई। महाराजा रूपसिंह ने बादशाही उपहार को माथे से लगा लिया। इसी के साथ बादशाह की सवारी आगे बढ़ गई। जैसे ही बादशाही हाथी के हौदे की घण्टियां बजने लगीं, जुलूस में सबसे आगे चल रहे ताशे भी जोर-जोर से बजने लगे।
बादशाह की सवारी के जाने के बाद हवेली के बाहर शांति छा गई। महाराजा यूं ही कुछ देर तक हवेली के दरवाजे पर खड़ा सोचता रहा। फिर अपने सेवकों की तरफ मुड़कर बोला- ‘क्या तुम में से किसी के कुछ भी समझ में आया कि बादशाह सलामत ने हमसे क्या कहा?’
‘धरती नाथ! आप बादशाह की पूछते हो, हमें तो वह भी समझ में नहीं आया कि आपने बादशाह हुजूर से क्या कहा और आपने बादशाह को दूसरी बार निछरावल क्यों दी?’ एक मुँह लगी दासी ने महाराजा से निवेदन किया।
‘हाँ-हाँ, याद आया। बादशाह सलामत ने भी तो यही कहा था। दूसरी बार …….. दूसरी बार का क्या मतलब है? ……… तुम लोग बादशाह को पहले निछरावल दे चुके थे क्या?’
‘ऐसा क्यों कहते हैं अन्नदाता! आपके महल में रहते हुए भला हम ऐसा कैसे कर सकते थे! आपने स्वयं ही तो महल से बाहर आकर बादशाह सलामत को ईद की भेंट दी थी।’
‘हमने! हमने कब दी थी। हम तो पूजा घर में थे। हम तो शाही सवारी के नगाड़ों की आवाज सुनकर अभी-अभी पूजाघर से निकलकर आए हैं। बादशाह की सवारी जब सुबह यहाँ से निकली होगी तब तो शायद पूजाघर में बैठे-बैठे हमारी आँख लग गई थी। हमें कुछ सुनाई ही नहीं पड़ा। न तुम लोगों ने हमें उठाया।’
राजा की बात सुनकर सेवक-सेविकाएं अचम्भित हो गए। बादशाही सवारी चली गई है किंतु राजा फिर भी हवेली के भीतर नहीं आ रहा, यह जानकर रूपसिंह की रानियां भी महाराजा को हवेली के भीतर लिवा लाने के लिए मुख्य द्वार पर आ गई थीं। उन्हें भी यह सुनकर आश्चर्य हुआ। यद्यपि उनमें से किसी भी रानी ने महाराजा को प्रातः पूजाघर में से निकलकर बाहर आते हुए नहीं देखा था।
महाराजा के ऐसा कहते ही हवेली में गहन नीरवता व्याप्त हो गई। सबके चेहरों पर हैरानी थी किंतु कोई कुछ बोल सकने की स्थिति में नहीं था। जो कुछ हुआ था सेवक-सेविकाओं की आँखों के सामने हुआ था। उन्होंने स्वयं महाराजा को दो बार पूजाघर से बाहर आते हुए देखा था और महाराजा कह रहा था कि वह तो केवल एक बार ही पूजा घर से बाहर निकला था! यह सम्भव नहीं था कि महाराजा मिथ्या भाषण करता। तो फिर वह कौन था जो पहली बार बादशाह को ईद की न्यौछावर देने आया था!
महाराजा थोड़ी देर भ्रम की स्थिति में खड़ा रहा और फिर बेचैन होकर पुनः पूजा घर में घुस गया। उसने भीतर जाकर देखा, वहाँ कल्याणरायजी की प्रतिमा के अतिरिक्त और कोई नहीं था। उनके चेहरे पर वही मुस्कान थी जो सदैव विराजमान रहती है। भगवान के विग्रह के समक्ष धूप-बत्तियां अब भी जल रही थीं।
जगमग जलते दीपकों में रूपनगढ़ की गायों के दूध से बना घी अब भी मौजूद था जिसे अपने विशेष प्रकार के पीले रंग के कारण दूर से ही पहचाना जा सकता था। भगवान के गले में पड़ी माला के पुष्प अब भी उसी तरह ताजे थे जिस तरह चार घण्टे पहले दिखाई दे रहे थे। महाराजा ने पूजाघर की प्रत्येक वस्तु को बहुत ध्यान से देखा। कुछ भी तो अलग नहीं था।
धीरे-धीरे महाराजा समझ गया। यह सारा करा-धरा कल्याणरायजी का था। महाराजा धम्म से धरती पर गिर पड़ा और भगवान के चरण पकड़कर बोला- ‘क्षमा कीजिए प्रभु। मेरी गलती की सजा आपने स्वयं को दी। आपने ऐसा क्यों किया प्रभु?’
महाराजा रोता जाता था और भगवान से पूछता जाता था- ‘बताइये न प्रभु। मैं तो उदर पूर्ति के लिए म्लेच्छ राजा की चाकरी करता हूँ। आपने क्यों उस म्लेच्छ बादशाह के सामने सिर झुकाया?………. आपको ऐसा करना शोभा नहीं देता प्रभु……… क्या हो जाता जो बादशाह मुझसे नाराज हो जाता……….. क्या करता बादशाह मेरा?……… ज्यादा से ज्यादा सिर ही तो कटवा लेता…………यह तो वैसे भी एक दिन कटना ही है……… बादशाह के लिए न सही, बादशाह के द्वारा ही सही………… लेकिन प्रभु आपके ऐसा करने से मेरे लिए धरती पर रहने की जगह ही नहीं बची है………. आपका सिर एक म्लेच्छ के समक्ष झुकवाकर अब मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा प्रभु…………?
अचानक महाराजा ने सितार उठा लिया और उस पद को गाने लगा जो उसने कुछ वर्ष पहले, बलख की पहाड़ियों में लिखकर प्रभु चरणों में अपिर्त किया था-
मैं कैसे आऊँ दामिनी मोहि डरावै।
जब जब गमन करूँ दिश प्रीतम, चमकत चक्र चलावै।
वे आतुर अति सजनी, रजनी यूँ बिरमावै।
गावत गगन, पवन चल चंचल, अंचल रहित तन पावत।
सुनि प्रिय वचन, चतुर चलि आयो, भामिनी सौं मन भावत।
रूपसिंह प्रभु नगधर नागर मिलि मल्हार सुर गावत।
पूजागृह के बहर खड़ी रानियों के आश्चर्य का पार नहीं था। महाराजा कभी भी बिना समय और ऋतु का विचार किए राग नहीं गाता था किंतु आज इस शीत ऋतु में महाराजा राग मल्हार में गा रहा था। राजा बहुत देर तक इसी प्रकार गाता रहा। उसके नेत्रों से अश्रुओं की अविरल धारा बहती रही और अंत में वह बेसुध होकर एक ओर को लुढ़क गया।
महाराजा की हवेली में हा-हाकार मच गया। महाराजा को थोड़ी-थोड़ी देर में चेतना आती थी और महाराजा फिर से रुदन करने लगता था। वह कल्याणराय के चरणों को छोड़ता ही नहीं था। रानियों ने बहुत समझाया, मुँह लगे सेवकों, मंत्रियों, समझदार डावड़ियों ने भी महाराजा को समझाने का भरसक प्रयास किया किंतु महाराजा तो जैसे इस दुनिया में ही नहीं था।
न तो वह किसी की कुछ सुनता था, न एक बूंद जल मुँह में रखता था और न अन्न का कण ग्रहण करता था। पूरा दिन बीत गया। अगला दिन भी बीत गया। इसके बाद तो दिन पर दिन बीतने लगे। महाराजा पूजाघर से बाहर ही नहीं निकला। न उसने भगवान को स्नान करवाया, न भोग लगाया, न पूजा की और न स्वयं कुछ खाया-पिया।
पांच दिन ऐसे ही बीत गए। हवेली में रसोई बननी ही बंद हो गई। जब राजा और उसके इष्टदेव ही भोग नहीं लगा रहे थे तो रानियां और दास-दासी भला कैसे अन्न का कण मुँह में डालते। राजकुमार मानसिंह अभी केवल दो साल का था, इसलिए पूरी हवेली में केवल वही था जो भूख शब्द का मुँह से उच्चारण करता था। राजकुमारी चारुमती अब सयानी हो चली थी और वह भी अपने पिता की हालत देखकर, अपनी माताओं की तरह बेहाल थी। राजकुमार मानसिंह को छोड़कर, हवेली का प्रत्येक प्राणी पांच दिनों से जल पर गुजारा कर रहा था। महाराजा तो वह भी ग्रहण नहीं कर रहा था।
छठा दिन अभी पूरी तरह निकला नहीं था। आकाश में उषा के आने की हलचलें होने लगी थीं किंतु सूर्यदेव के प्राकट्य में अभी कुछ समय शेष था। राजा पूजा घर के भीतर अचेत पड़ा था। पूजा घर के बाहर रानियां धरती पर अर्द्धचेतन अवस्था में पड़ी थीं। रानियों के पैरों के पास डावड़ियाँ भूखी-प्यासी पड़ी थीं और हवेली के आंगन में पुरुष सेवक बेहाल पड़े थे। भूख से आंतड़ियां बाहर आती थीं इसलिए नींद आने का तो प्रश्न ही नहीं था।
अचानक पूजा घर में तेज उजाला हुआ। बेसुध राजा भी आँखें मलता हुआ उठ बैठा।
‘उठो रूप!’
महाराजा ने चौंककर गर्दन ऊपर उठाई- ‘कौन?’ महाराजा के कण्ठ से क्षीण स्वर में शब्द निकले।
‘छः दिन हो गए रूप। मुझे भूख लगी है। तुमने मुझे जल की एक बूंद तक पीने को नहीं दी।’
महाराजा पूरी तरह चैतन्य हो गया। उसे विश्वास हो गया कि यह स्वप्न या उसके मन का भ्रम नहीं है।
‘चूक हो गई प्रभु! मैं अपने ही दुख में डूबा रहा। आपको भी भोग लगाना भूल गया। क्षमा करो प्रभु!’ महाराजा ने भगवान के विग्रह की तरफ देखकर उत्तर दिया।
महाराजा ने देखा कि प्रभु का विग्रह पत्थर का बना हुआ नहीं है। वह पूरी तरह चैतन्य है और विलक्षण प्रकाश से जगमगा रहा है। उसी के कारण पूरे कक्ष में तेज आलोक फैला हुआ है किंतु उस प्रकाश की तीव्रता से महाराजा की आँखें चुंधिया नहीं रही हैं। भगवान एक अत्यंत सुंदर सिंहासन पर बैठकर मुस्कुरा रहे हैं। उनके गले में वैजयंती माला सुशोभित है। सिर पर अद्भुत रत्नों से जगमगाता हुआ मोर-मुकुट है, प्रभु ने पीताम्बर धारण कर ररखा है और अपनी एक विशाल भुजा अपने दाएं घुटने पर टिका रखी है। दूसरे हाथ में मुरली है। महाराजा रूपसिंह ने मुरलीधर के चरण पकड़ लिए।
‘तुम्हारे समस्त सेवक भी भूख-प्यास से बेहाल हैं। एक राजा को ऐसा करना शोभा नहीं देता।’ भगवान ने महाराजा के सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए कहा।
महाराजा ने सिर ऊपर उठाया और आँाखें फाड़-फाड़कर परमात्मा की ओर देखा, मानो इस रूप सम्पदा के अदृश्य हो जाने से पहले ही उसे आंखों में भर लेना चाहता हो। उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल सका।
‘देखो जैसे मैं तुम्हारा ध्यान रखता हूँ, वैसे ही तुम्हें भी स्वयं से प्रेम करने वाले व्यक्तियों और सेवकों का ध्यान रखना चाहिए।’
‘तो क्या बादशाह के समक्ष आप गए थे प्रभु!’
‘मैं कब और किसके समक्ष नहीं होता हूँ राजन्।’ मैं सब कहीं हूँ और हर समय हूँ। उस बात को लेकर अपना मन छोटा न करो। उठो अब तुम्हें बड़ी जिम्मेदारियां निभानी हैं।’
इससे पहले कि महाराजा कुछ पूछने के लिए मुँह खोलता, परमात्मा अदृश्य हो गए। अब वहाँ न सिंहासन था, न प्रभु का मुकुट था, न वैजयंती माला थी और न उनकी मुरली थी। कक्ष का प्रकाश पहले की तरह यथावत् हो गया था तथा प्रभु का विग्रह भी पूर्व भांति स्थिर हो गया था।
महाराजा रूपसिंह के आश्चर्य का पार नहीं था कुछ क्षणों के लिए वैसे ही हतप्रभ से बैठा रहा और फिर प्रभु को नमस्कार करके पूजागृह से बाहर हो गया।