Monday, February 17, 2025
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हत्यारिन मुगलिया राजनीति (17)

बेरहम और हत्यारिन मुगलिया राजनीति के बहुत ही कम विवरण इतिहास की किताबों में दर्ज हुए हैं। मुगल शहजादों एवं शहजादियों के हजारों वहशी कारनामे कभी भी दुनिया की निगाहों के सामने नहीं आ सके।

अपनी बहिनों से मिले खतों को पढ़कर, राजधानी से हजारों किलोमीटर दूर बैठे तीनों छोटे शहजादों की बेचैनी दिन पर दिन बढ़ने लगी। उन्हें इस बात पर तो पूरा यकीं था कि बादशाह गंभीर रूप से बीमार है तथा जहांआरा और दारा शिकोह ने मिलकर उसे कैद कर लिया है लेकिन साथ ही उनमें से प्रत्येक को यह भी शक था कि कहीं ऐसा न हो कि बादशाह मर गया हो तथा दारा शिकोह और जहांआरा उसके शरीर को चुपचाप ठिकाने लगाकर, भीतर ही भीतर सल्तनत हड़पने की तैयारियां कर रहे हों!

तीनों शहजादों के भीतर पल रही हत्यारिन मुगलिया राजनीति और लाल किला पाने की हवस उन्हें धैर्य और सब्र से काम नहीं लेने देती थी। वैसे भी मुगल शहजादों में उत्तराधिकार का प्रश्न शहजादों के खून से ही सुलझता आया था। पीढ़ी-दर पीढ़ी मुगल शहजादे अपने बाप का तख्त और दौलत पाने के लिए एक दूसरे का कत्ल करते आए थे।

शाहजहाँ के चारों शहजादे चाहते थे कि वे बाकी के तीन शहजादों का कत्ल करके जितनी जल्दी हो सके, मुगलिया तख्त पर अधिकार कर लें किंतु वे न केवल राजधानी दिल्ली से अपितु एक-दूसरे से भी सैंकड़ों कोस दूर बैठे थे और लाल किले की हकीकत के बारे में स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रहे थे।

यदि बादशाह मरा नहीं था और जैसा कि कहा जा रहा था, केवल बीमार था, तो ऐसी स्थिति में बादशाह से अनुमति मांगे बिना किसी भी शहजादे का राजधानी दिल्ली में अचानक जा धमकना, उसके खुद के लिए भयानक मुसीबतें लाने वाला कदम होता।

शाहजहाँ के शहजादों की नसों में चंगेजी और तूमैरी खूनों का खतरनाक मिश्रण जोर मार रहा था जो खून-खराबे और मैदाने जंग के अलावा और किसी भाषा में नहीं समझता था। भारत में मुगलिया सल्तनत की नींव रखने वाला बाबर अपने पुरखों के दो राज्यों समरकंद और फरगना को छोड़कर भारत आया था क्योंकि बाबर के ताऊ अहमद मिर्जा ने समरकंद का और मामा महमूद खाँ ने फरगना का राज्य बाबर से छीन लिए थे और नौजवान बाबर को अपनी जान बचाने के लिए तीन साल तक पहाड़ों में छिपकर रहना पड़ा था।

भारी मुसीबतों का सामना करके बाबर भारत में अपना राज्य कायम करने में सफल हुआ था और उसके चारों पुत्र हुमायूँ, कामरान, अस्करी तथा हिन्दाल भी उसके साथ भारत आ गए थे। जब बाबर की मृत्यु होने लगी तो उसने अपने बड़े पुत्र हुमायूँ को भारत का बादशाह घोषित किया तथा उससे वचन लिया कि वह अपने भाइयों से प्रेम करेगा, उनके अपराधों को क्षमा करेगा और उन्हें कभी भी जान से नहीं मारेगा।

जब बाबर मर गया तो हुमायूँ ने अपने मरहूम बाप को दिए गए वचन के अनुसार अपने भाइयों से नहीं लड़ने का इरादा किया और अपना राज्य अपने भाइयों में बांट दिया ताकि वह अपने भाइयों का विश्वास जीत सके। फिर भी हुमायूँ के भाइयों कामरान, अस्करी तथा हिन्दाल ने अपने बड़े भाई के साथ दुश्मनी वाला रवैया ही अख्तियार किया और पग-पग पर हुमायूँ को धोखा दिया जिससे हुमायूँ का राज्य उसके हाथ से निकल गया और उसे दस साल तक फारस के बादशाह तहमास्प की शरण में रहना पड़ा।

जब हुमायूँ ने दुबारा भारत पर अधिकार किया तब उसने अपने छोटे भाइयों के सम्बन्ध में सख्त निर्णय लिए। हमायूँ ने विद्रोही मिर्जा हिन्दाल को मार डाला। दूसरे भाई मिर्जा कामरान की आँखें फोड़कर उसे मक्का भेज दिया ताकि वह जीवन भर हिन्दुस्तान की सरजमीं पर पैर न रख सके। इतना ही नहीं हुमायूँ ने अपने तीसरे छोटे भाई मिर्जा अस्करी को भी उसके साथ रवाना किया। इसके कुछ दिन बाद ही हुमायूँ की स्वयं की भी मृत्यु हो गई। इस प्रकार अपने भाइयों से लड़ते हुए ही उसकी पूरी जिंदगी बीती।

जब हुमायूँ की मृत्यु हुई तो उसके दो पुत्र थे जिनमें से बड़ा पुत्र जलालुद्दीन अकबर केवल 13 साल का लड़का था तथा हुमायूँ का दूसरा पुत्र हकीम खाँ अल्पवयस्क बालक था। अकबर के संरक्षक बैराम खाँ द्वारा अकबर को भारतीय प्रांतों का तथा हुमायूँ के छोटे पुत्र मिर्जा हकीम खाँ को काबुल का बादशाह बनाया गया किंतु हकीम खाँ की माँ चूचक बेगम ने उजबेकों से सहयोग प्राप्त करके अकबर से उसका राज्य छीनने तथा अपने पुत्र को भारत का राज्य दिलाने का षड़यंत्र रचा।

हत्यारिन मुगलिया राजनीति की गहरी समझ रखने वाले तथा अकबर के संरक्षक बैराम खाँ ने हकीम खाँ तथा उसके सहयोगियों का सख्ती से दमन किया तथा हकीम खाँ को काबुल से बाहर निकाल दिया। अंत में हकीम खाँ ने अपने बड़े भाई अकबर के पैरों में गिरकर माफी मांगी। अकबर ने उसे माफ कर दिया तथा काबुल का राज्य फिर से दे दिया। हकीम खाँ तीस साल तक काबुल पर राज्य करता रहा। ई.1585 में हकीम खाँ की मृत्यु के बाद अकबर ने उसका राज्य अपने राज्य में मिला लिया।

अकबर को पहले पुत्र सलीम की प्राप्ति बड़ी मुश्किल से हुई थी किंतु उसके बाद अकबर के तीन बेटे और हुए, मुराद, दानियाल तथा हुसैन। अकबर की वृद्धावस्था आने तक इनमें से केवल सलीम ही जीवित बचा था। इनमें से मुराद तथा दानियाल, ज्यादा शराब पीने से मरे थे जबकि हुसैन किसी बीमारी के कारण असमय ही मृत्यु को प्राप्त हुआ था।

 

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बादशाह का एकमात्र जीवित पुत्र होने से तख्त के लिए सलीम का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था फिर भी जल्दी राज्य पाने की लालसा में उसने हत्यारिन मुगलिया राजनीति की पुरानी परम्परा निभाई तथा अपने पिता अकबर के विरुद्ध दो बार सशस्त्र विद्रोह करके अपने बाप के कई नौकरों, मित्रों, सम्बन्धियों और मंत्रियों को मार डाला। इस कारण अकबर ने सलीम के बड़े पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया किंतु जब अकबर रोग शैय्या पर पड़ा अंतिम सांसें ले रहा था, तब एक दिन अचानक सलीम, अकबर के महल में घुस गया और उसने अकबर के पलंग के पास लटक रही अपने दादा हमायूँ की तलवार निकालकर अपने हाथ में ले ली।

अकबर अपने जीवन से निराश हो गया और उसने अपने मंत्रियों से कहा कि वे सलीम के सिर पर बादशाह की पगड़ी रख दें। इस प्रकार सलीम अपने बाप अकबर से पगड़ी तथा तलवार छीनकर जहाँगीर के नाम से बादशाह बना और उसने अपने बड़े पुत्र खुसरो पर भयानक अत्याचार किए।

जहाँगीर ने शहजादे खुसरो के खास मित्रों को जीवित ही गधों और बैलों की खालों में सिलवा दिया तथा उसके अन्य सैंकड़ों साथियों को एक मील लम्बी सूली पर कतार में लटका दिया। खुसरो को हाथी पर बैठाकर, लटकते हुए शवों की कतारों के बीच से ले जाया गया। उससे कहा गया कि अपने हर आदमी की लाश के सामने रुके और झुक कर उसका सलाम कुबूल करे।

इस अपमान के बाद खुसरो की आँखें फोड़ कर उसे कारागार में डाल दिया गया। सत्रह साल बाद जहाँगीर ने उसे अपने एक अन्य पुत्र खुर्रम को इस शर्त के साथ सौंप दिया कि खुर्रम अपने बाप जहाँगीर के खिलाफ कभी बगावत न करे। खुर्रम ने अपने अंधे एवं बड़े भाई खुसरो को बुरहानपुर के दुर्ग में तड़पा-तड़पा कर मारा किंतु कुछ दिन बाद खुर्रम ने अपने बाप जहाँगीर के खिलाफ बगावत कर ही दी। उस समय तक खुर्रम के बड़े भाई परवेज की हालत ज्यादा शराब पीने से नहीं बिगड़ी थी और वह मुगलिया सेनाओं का सफलता पूर्वक नेतृत्व कर रहा था।

इसलिए परवेज ने बागी खुर्रम और उसके साथियों में कसकर मार लगाई और उसे दक्षिण भारत में धकेल दिया। कुछ दिन के लिए खुर्रम शांत होकर बैठ गया किंतु जैसे ही जहाँगीर की मृत्यु हुई खुर्रम ने अपनी सौतेली माँ नूरजहाँ तथा अपने जीवित भाइयों के खिलाफ उत्तराधिकार का युद्ध लड़ा।

खुर्रम ने मुगल शहजादा शहरयार तथा उसके पुत्रों को अंधा करवाकर कत्ल करवाया। अपने दूसरे भाई दानियाल के पुत्रों को भी अंधा करके मरवाया तथा अपने मृतक भाई खुसरो के एकमात्र जीवित पुत्र दावरबख्श की भी हत्या करके अपने बाप के तख्त पर शान से बैठा।

आज वही खुर्रम शाहजहाँ के नाम से बादशाह था और उसके शहजादे उसका तख्ते ताउस, कोहिनूर हीरा तथा लाल किला पाने के लिए अपने बाप और भाइयों के खून के प्यासे हो रहे थे। हत्यारिन मुगलिया राजनीति अपने चरम पर पहुंच गई लगती थी।

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