धरमत से औरंगज़ेब और मुराद की विजयी सेनाएँ आगे बढ़ीं। धरमत की पराजय के समाचार आगरा में पहुँचने पर शाही दरबार में खलबली मच गई। आगरा से बहुत से अमीर-उमराव भागकर औरंगजेब के खेमे में पहुंचने लगे। शहजादी जहाँआरा ने शाही प्रतिष्ठा बचाने के लिए मुराद तथा औरंगज़ेब को बादशाह की तरफ से तथा स्वयं अपनी ओर से बहुत मधुर भाषा में चिट्ठियां भेजकर उनसे समझौता करने के प्रयास किए परन्तु दोनों ही शहजादों ने न तो बादशाह की चिट्ठियों के कोई जवाब दिए और न जहांआरा की चिट्ठियों के।
बंगाल की तरफ बढ़ते हुए शाहशुजा को यह जानकर हैरानी हुई कि शहजादा सुलेमान शिकोह शाही सेना को लेकर ताबड़तोड़ आगरा की ओर भागा जा रहा था। शाहशुजा को लगा कि आगरा में कुछ अनहोनी हुई है। इसलिए शाहशुजा ने बंगाल की तरफ बढ़ना छोड़कर पटना में ही अपने डेरे लगा दिए। इस पर सुलेमान और मिर्जा राजा जयसिंह भी अपनी सेना के साथ मार्ग में ही ठहर गए, उन्हें आशंका हुई कि कहीं शाहशुजा ने अपना इरादा तो नहीं बदल लिया और वह फिर से आगरा की तरफ बढ़ने की तो नहीं सोच रहा है। इधर दारा और शाहजहाँ की बेचैनी बढ़ती जा रही थी और वह बार-बार सुलेमान को तत्काल आगरा लौटने के फरमान दोहराने लगा।
इसी बीच दारा ने सल्तनत के तमाम विश्वसनीय दोस्तों से सम्पर्क किया और उनकी सेनाओं को आगरा से साठ मील दूर चम्बल नदी के किनारे एकत्रित होने के संदेश भिजवाए। आगरा में घुसने के लिए औरंगज़ेब को हर हाल में चम्बल नदी पार करनी ही थी तथा दारा की योजना थी कि उसे चम्बल पार नहीं करने दी जाए।
दारा के निमंत्रण पर एक लाख घुड़सवार, बीस हजार पैदल सेना तथा अस्सी तोपें चम्बल के किनारे एकत्रित हो गईं। इस विशाल सैन्य समूह के सामने औरंगज़ेब और मुराद के पास कुल मिलाकर चालीस हजार घुड़सवार ही थे जो धरमत का युद्ध करने और लगातार चलते रहने के कारण थक कर चूर हो रहे थे। उनकी सेना का एक बड़ा हिस्सा महाराजा जसवंतसिंह से हुई लड़ाई में नष्ट हो गया था।
सुलेमान शिकोह और मिर्जाराजा जयसिंह अब भी आगरा नहीं पहुँचे थे और दारा शिकोह की हताशा बढ़ती जा रही थी। दारा को भय होने लगा कि कहीं सुलेमान तथा जयसिंह से पहले औरंगज़ेब और मुराद चम्बल नदी तक न पहुंच जाएं। इसलिए वह हाथी पर बैठकर युद्ध क्षेत्र के लिए रवाना हो गया।
शाहजहाँ ने उसे मशवरा दिया कि वह सुलेमान के लौट आने तक इंतजार करे किंतु दारा किसी तरह का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं था। उसे भय था कि जिस तरह नमकहराम कासिम खाँ, धोखा देकर औरंगज़ेब की तरफ हो गया था, उसी तरह कुछ और मुस्लिम सरदार भी ऐसा न कर बैठें। इसलिए दारा सेनाओं के साथ मौजूद रहकर ही अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रख सकता था।
मई के महीने में जब उत्तर भारत में गर्मियां अपने चरम पर थीं, दारा शिकोह आगरा से निकला और तेजी से चलता हुआ कुछ ही दिनों में अपने दोस्तों की सेनाओं से जा मिला। औरंगजेब, दारा की हर गतिविधि पर दृष्टि रखे हुए था। उसने अपनी सेना का बहुत थोड़ा हिस्सा उस तरफ बढ़ाया जिस तरफ दारा की सेनाओं का शिविर था तथा स्वयं अपनी सेना के बड़े हिस्से को साथ लेकर राजा चम्पतराय की सहायता से बीहड़ जंगल में चम्बल के पार उतर कर तेजी से आगरा की तरफ बढ़ा।
इस समय गर्मियां इतनी तेज थीं कि औरंगज़ेब अपनी सेनाओं को लेकर नर्बदा, क्षिप्रा, चम्बल और यमुना नदियों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ पाया था। इस बार भी जब उसने चम्बल का किनारा छोड़ा तो सीधा यमुना के किनारे जाकर दम लिया।
जब दारा को औरंगज़ेब के इस छल के बारे में मालूम हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर भी दारा ने अपने ऊंटों को औरंगज़ेब के पीछे दौड़ाया जिनकी पीठों पर छोटी तोपें बंधी थीं। दारा की पैदल सेना भी पंक्ति बांधकर हाथों में बंदूकें थामे, औरंगज़ेब के शिविर की तरफ बढ़ने लगी। हाथियों की गति तो और भी मंथर थी। फिर भी रूपसिंह को उजबेकों के साथ छापामारी का लम्बा युद्ध था, इसलिए कुछ देर की अव्यवस्था के बाद दारा और महाराजा रूपसिंह की सेनाएं संभल गईं।
जब तक दारा की सेनाएं औरंगज़ेब के निकट पहुँचीं तब तक औरंगज़ेब शामूगढ़ तक पहुँच गया था। यहाँ से आगरा केवल आठ मील दूर था। एक ऊबड़-खाबड़ सी जगह देखकर औरंगज़ेब ने अपनी सेनाओं के डेरे गढ़वा दिए। इस समय औरंगज़ेब की सेनाओं की स्थिति ऐसी थी कि औरंगज़ेब की पीठ की तरफ आगरा था और औरंगजेब के सामने की ओर दारा की सेनाएं। औरंगज़ेब की कुटिल चाल के आगे दारा तथा महाराजा रूपसिंह की समस्त योजनाएं धरी रह गई थीं तथा अब उन्हें औरंगज़ेब की योजना के अनुसार ही लड़ाई करनी थी।
बादशाह ने महाराजा रूपसिंह को दारा षिकोह का सरंक्षक नियुक्त किया था। इसलिए सेना का संचालन मुख्य रूप से महाराजा रूपसिंह के ही हाथों में था। उसने दारा को सलाह दी कि दारा का सैन्य शिविर, औरंगज़ेब के शिविर के इतनी पास लगना चाहिए कि यदि औरंगज़ेब चकमा देकर आगरा में घुसने का प्रयास करे तो हमारी सेनाएं बिना कोई समय गंवाए, उसका पीछा कर सकें। हालांकि ऐसा करने में कई खतरे थे किंतु दारा के पास महाराजा की सलाह मानने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था।
औरंगज़ेब ने भी घनघोर आश्चर्य से देखा कि महाराजा रूपसिंह अपनी सेनाओं को औरंगज़ेब के सैन्य शिविर के इतनी निकट ले आया था कि जहाँ से वह तोप के गोलों की सीमा से कुछ ही दूर रह गया था। औरंगज़ेब राठौड़ राजाओं से बहुत डरता था। हालांकि वह जोधपुर के राजा जसवंतसिंह की पूरी सेना को नष्ट करके युद्ध के मैदान से भगा चुका था फिर भी किशनगढ़ नरेश रूपसिंह का भय अब भी उसके मस्तिष्क में बना हुआ था।
वह जानता था कि रूपसिंह तलवार का जादूगर है। जाने कब वह कौनसा चमत्कार कर बैठे। बलख और बदखशां की पहाड़ियों पर बिखरा हुआ उजबेकों का खून आज भी रूपसिंह राठौड़ के नाम को याद करके सिहर उठता था।
30 मई 1658 को सूरज निकलते ही महाराजा रूपसिंह ने दारा के पक्ष की विशाल सेनाओं को योजनाबद्ध तरीके से सजाया। महाराजा रूपसिंह तथा महाराजा छत्रसाल के राजपूत सिपाही इस युद्ध का मुख्य आधार थे किंतु कठिनाई यह थी कि औरंगज़ेब और मुराद के पास मुगलों का सधा हुआ तोपखाना था। जबकि राजपूत सिपाही अब भी हाथों में बर्छियां और तलवारें लेकर लड़ते थे तथा राजपूत घुड़सवार अब भी धनुषों पर तीर रखकर फैंकते थे।
उनके पास मुगलों जैसी बंदूकें और तोपें नहीं थीं। इसलिए महाराजा ने योजना बनाई कि दारा का तोपाखाना और शाही सेना की बंदूकें आगे की ओर रहें तथा राजपूत सेनाएं युद्ध के मैदान में तब तक दुश्मन के सामने न पड़ें, जब तक कि औरंगज़ेब की तोपों का बारूद खत्म न हो जाए।
महाराजा ने सबसे आगे ऊंटों पर बंधी हुई तोपों वाली सेना को तैनात किया, जिन्हें सबसे पहले आगे बढ़कर धावा बोलना था। ऊँटों की तोपसेना के ठीक पीछे दारा की शाही सेना नियुक्त की गई जिसका नेतृत्व स्वयं वली-ए-अहद दारा कर रहा था। दारा की पीठ पर स्वंय महाराजा रूपसिंह और छत्रसाल अपनी-अपनी सेनाएं लेकर सन्नद्ध हुए। राजपूतों की सेना के एक ओर खलीलुल्ला खाँ को तैनात किया जिसके अधीन तीन हजार घुड़सवार थे तथा बायीं ओर रुस्तम खाँ को उसकी विशाल सेना के साथ रखा गया।
इस समय दारा षिकोह का सबसे बड़ा सहयोगी महाराजा रूपसिंह ही था। उसे बादशाह ने दारा शिकोह का संरक्षक नियुक्त किया था तो स्वयं दारा ने उसे अपनी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर रखा था। इसलिए रणभूमि में जो कुछ भी हो रहा था, उसकी सारी योजना महाराजा रूपसिंह ने स्वयं तैयार की थी।
रूपसिंह नहीं चाहता था कि युद्ध के मैदान में दारा शिकोह पल भर के लिए भी महाराजा रूपसिंह की आँखों से ओझल हो। इसलिए वह अपने घोड़े पर सवार होकर दारा की हथिनी के ठीक पीछे तलवार सूंतकर खड़ा हुआ। महाराजा रूपसिंह के सिर पर आज जैसे रणदेवी स्वयं आकर सवार हो गई थी। इसलिए महाराजा रूपसिंह का अप्रतिम रूप, युद्ध के उन्माद से ओत-प्रोत होकर और भी गर्वीला दिखाई देता था।
महाराजा ने दारा को सलाह दी कि वह युद्ध क्षेत्र में प्रत्यक्ष लड़ाई न करे अपितु अपना ध्यान औरंगज़ेब पर केन्द्रित रखे तथा उसके निकट जाकर उसे पकड़ ले। मैं अपने राजपूतों सहित आपकी पीठ दबाए हुए बढ़ता रहूंगा। मेरे पीछे राजा छत्रसाल रहेंगे। यदि भाग्य लक्ष्मी ने साथ दिया तो दुष्ट औरंगज़ेब का खेल आज शाम से पहले ही खत्म हो जाएगा।
दारा ने बलख और बदखषां में महाराजा की तलवार के जलवे देखे थे। इसलिए वह दूने उत्साह में भरकर एक ऊँची सी सिंहलद्वीपी हथिनी पर सवार हो गया जो हर प्रकार की बाधा के बावजूद भागने में बहुत तेज थी तथा दुश्मन के घोड़ों के पैर, अपने पैरों में बंधी तलवारों से गाजर-मूली की तहर काट देती थी।
ज्यों ही युद्ध शुरू हुआ, दोनों तरफ की मुगल सेनाओं ने आग बरसानी शुरू कर दी। राजपूत सेनाओं को इसीलिए शाही सेनाओं के बीच मेें रखा गया था ताकि वे तोपों की मार से दूर रहें। थोड़ी ही देर में मैदान में बारूद का धुआं छा गया और कुछ भी दिखाई देना मुश्किल हो गया। ठीक इसी समय महाराजा रूपसिंह ने दारा शिकोह को आगे बढ़ने का संकेत किया और दारा शिकोह पहले से ही तय योजना के अनुसार औरंगज़ेब के हाथी की दिशा को अनुमानित करके उसी तरफ बढ़ने लगा। महाराजा रूपसिंह उसकी पीठ दबाए हुए दारा के पीछे-पीछे काल बना हुआ चल रहा था।
बारूद के धुंए के कारण कोई नहीं जान पाया कि कब और कैसे दारा की हथिनी, औरंगज़ेब के हाथी के काफी निकट पहुँच गई। सब कुछ योजना के अनुसार हुआ था। इस समय औरंगज़ेब के चारों ओर उसके सिपाहियों की संख्या कम थी और दारा शिकोह तथा महाराजा रूपसिंह थोड़े सी हिम्मत और प्रयास से औरंगज़ेब पर काबू पा सकते थे किंतु विधाता को यह मंजूर नहीं था। उसने औरंगज़ेब के भाग्य में दूसरी ही तरह के अंक लिखे थे।
दारा और रूपसिंह अपनी योजना को कार्यान्वित कर पाते, उससे पहले ही आकाश से बारिश शुरू हो गई और मोटी-मोटी बूंदें गिरने लगी। इस बारिश का परिणाम यह हुआ कि धुंआ हट गया और मैदान में सारे हाथी-घोड़े तथा सिपाही साफ दिखने लगा। औरंगज़ेब ने दारा की हथिनी को बिल्कुल अपने सिर पर देखा तो घबरा गया लेकिन औरंगज़ेब के आदमियों ने औरंगज़ेब पर आए संकट को भांप लिया और वे भी तेजी से औरंगज़ेब के हाथी की ओर लपके।
उधर जब औरंगज़ेब के तोपखाने के मुखिया ने देखा कि बारिश के कारण उसकी तोपें बेकार हो गई हैं, तो उसने तोपखाने के हाथी खोलकर दारा की सेना पर हूल दिए। इससे दारा की सेना में भगदड़ मच गई। बहुत से सिपाही हाथियों की रेलमपेल में फंसकर कुचल गए।
इधर महाराजा रूपसिंह हाथ आए इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। इसलिए जब उसने देखा कि दारा अपनी हथिनी को आगे बढ़ाने में संकोच कर रहा है तो महाराजा अपने घोड़े से कूद गया और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए औरंगजेब की तरफ दौड़ा। दारा ने महाराजा रूपसिंह को तलवार लेकर पैदल ही औरंगज़ेब के हाथी की तरफ दौड़ते हुए देखा तो दारा की सांसें थम सी गईं। उसे इस प्रकार युद्ध लड़ने का अनुभव नहीं था।
रूपसिंह तीर की तेजी से बढ़ता जा रहा था और दारा कुछ भी निर्णय नहीं ले पा रहा था। इससे पहले कि औरंगज़ेब का रक्षक दल कुछ समझ पाता महाराजा उन्हें चीरकर औरंगज़ेब के हाथी के बिल्कुल निकट पहुँच गया। महाराजा ने बिना कोई क्षण गंवाए औरंगज़ेब के हाथी के पेट पर बंधी रस्सी को अपनी तलवार से काट डाला। यह औरंगज़ेब की अम्बारी की मुख्य रस्सी थी जिसके कटने से औरंगज़ेब नीचे की ओर गिरने लगा। महाराजा ने चाहा कि औरंगज़ेब के धरती पर गिरकर संभलने से पहले ही वह औरंगज़ेब का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दे किंतु तब तक औरंगज़ेब के सिपाही, महाराजा रूपसिंह के निकट पहुँच चुके थे।
उधर औरंगज़ेब हाथी से नीचे गिर रहा था और इधर महाराजा रूपसिंह का ध्यान भटककर उन सिपाहियों की तलवारों की ओर चला गया जो रूपसिंह के प्राण लेने के लिए हवा में जोरों से लपलपा रही थीं। महाराजा ने चीते की सी फुर्ती से उछलकर एक मुगल सिपाही की गर्दन उड़ा दी। फिर दूसरी, फिर तीसरी और इस तरह से महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता रहा किंतु उनकी संख्या खत्म होने में ही नहीं आती थी।
दारा यह सब हाथी पर बैठा हुआ देखता रहा, उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह अपनी हथिनी औरंगज़ेब के हाथी पर हूल दे। महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता जा रहा था और उसका सारा ध्यान अपने सामने लपक रही तलवारों पर था किंतु अचानक औरंगज़ेब के एक अंगरक्षक ने महाराजा की गर्दन पर पीछे से वार किया। खून का एक फव्वारा छूटा और महाराजा रूपसिंह का सिर भुट्टे की तरह कटकर दूर जा गिरा। तब तक औरंगज़ेब के बहुत से अंगरक्षकों ने हाथी से गिरते हुए अपने मालिक को हाथों में ही संभाल लिया, उसे धरती का स्पर्श नहीं करने दिया।।
महाराजा का सिर कटकर गिर गया था किंतु उसका धड़ अब भी तलवार चला रहा था। महाराजा की तलवार ने दो-चार मुगल सैनिकों के सिर और काटे तथा फिर स्वयं भी एक ओर का लुढ़क गया। ठीक इसी समय दारा की हथिनी का महावत, अपनी हथिनी को दूर भगा ले गया। दुश्मन की निगाहों से छिपने के लिए दारा थोड़ी ही दूर जाकर हथिनी से उतर गया। दारा की हथिनी का हौदा खाली देखकर, उसके सिपाहियों ने सोचा कि दारा मर गया और वे सिर पर पैर रखकर भाग लिए। युद्ध का निर्णय हो चुका था।
महाराजा का कटा हुआ सिर और धड़ एक-दूसरे से दूर पड़े थे जिन्हें उठाने वाला कोई नहीं था। अपने भक्त के देहोत्सर्ग का यह दृश्य देखकर आकाश में स्थित भगवान कल्याणराय की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। न केवल शामूगढ़ का मैदान अपितु दूर-दूर तक पसरे हुए यमुना के तट भी बारिश की तेज बौछारों में खो से गए। भक्त तो भगवान के लिए नित्य ही रोते थे किंतु भक्तों के लिए भगवान को रोने का आज जैसा अवसर कम ही मिलता था। आज भगवान की यह इच्छा एक बार फिर से पूरी हो रही थी।
महाराजा के राठौड़ों को मुगल सेनाओं की अंधी रेलमपेल में पता ही नहीं चल सका कि महाराजा के साथ क्या हुआ और वह कहाँ गया! जब शामूगढ़ के समाचार आगरा के लाल किले में पहुँचे तो शाहजहाँ एक बार फिर से बेहोश हो गया। शहजादी जहांआरा ने बादशाह की ख्वाबगाह के फानूस बुझाकर स्वयं भी काले कपड़े पहन लिए। फिर जाने क्या सोचकर उसने फिर से रंगीन कपड़े पहने और औरंगजेब के लिए आरती का थाल सजाने लगी। अब बीमार और बूढ़े बादशाह तथा स्वयं जहांआरा का भविष्य औरंगज़ेब के रहमोकरम पर टिक गया था।
मिर्जाराजा जयसिंह और सुलेमान शिकोह अब भी आगरा की तरफ दौड़े चले आ रहे थे किंतु उनके आगरा पहुंचने से पहले ही शामूगढ़ में हुई दारा की पराजय के समाचार उन तक पहुंच गए। महाराजा रूपसिंह और दारा शिकोह शामूगढ़ का मैदान हार चुके हैं, यह सुनते ही मिर्जाराजा जससिंह ने औरंगजेब के शिविर की राह ली। उसे अब औरंगजेब में ही अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। अपने पिता की पराजय के समाचार से दुःखी सुलेमान किसी तरह अपने पिता दारा को ढूंढता हुआ आगरा पहुंचा किंतु तब तब तक दारा शिकोह अपने हरम के साथ लाल किला छोड़ चुका था। सुलेमान ने भी उसी समय अपने पिता की दिशा में गमन किया।
कुछ ही दिनों में महाराजा रूपसिंह के बलिदान के समाचार किशनगढ़ भी जा पहुंचे। महाराजा रूपसिंह की रानियों ने महाराजा की वीरगति के समाचार उत्साह के साथ ग्रहण किए और वे अग्निरथ पर आरूढ़ होकर फिर से महाराजा रूपसिंह का वरण करने स्वर्गलोक में जा पहुँचीं।
जिस समय महाराजा रूपसिंह मुगलों की खूनी चौसर पर बलिदान हुआ, उस समय रूपसिंह के कुल में उसका तीन साल का पुत्र मानसिंह ही अकेले दिए की तरह टिमटमा रहा था और आगरा में औरंगज़ेब नामक आंधी बड़ी जोरों से उत्पात मचा रही थी। राजकुमारी चारुमती के कोमल हाथों को ही अब न केवल इस टिमटिमाते हुए दिए की रक्षा करनी थी अपितु स्वयं को भी औरंगज़ेब के क्रूर थपेड़ों से बचाना था।