लगभग दो सदियों तक मुगल दरबार और मुगल हरम के सीधे सम्पर्क में रहने से राजपूताने की रियासतों में सदियों से चली आ रही कई प्राचीन भारतीय मान्यताएँ बदल गईं। मुगलों के हरम की तरह राजपूत राजाओं के रनिवास में भी स्त्रियों की संख्या में वृद्धि हुई। महारानियों एवं रानियों के साथ-साथ खवासों, पड़दायतों, पासवानों, हुजूरी बेगमों तथा उड़दा बेगणियों का रनिवास में बोलबाला हो गया। मुगलों की ही तरह राजपूतों में भी, ज्येष्ठ पुत्र को गद्दी मिलने की परम्परा बिखर गई। शासक, ज्येष्ठ पुत्र के स्थान पर अपने प्रिय पुत्र को राजगद्दी का अधिकारी बनाने लगे। इस कार्य में शासक की चहेती रानियों और रानियों के पीहर वालों की प्रमुख भूमिका होती थी। ऐसे अवसरों पर राजपरिवार ही नहीं अपितु पूरा सामन्त और मुत्सद्दी वर्ग भी दो खेमों में विभक्त होकर एक दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्र करता था। राजा की मुँह लगी पड़दायतें और प्रीतपात्री पासवानें भी इस लूट का आनंद उठाने में कब पीछे रहने वाली थीं!
खवास उस दासी को कहते थे जो राजा को खास अर्थात् विशेष प्रिय होती थी। पड़दायत उससे उच्च श्रेणी की स्त्री होती थी जो राजा की प्रीतपात्री होने के कारण रानियों की तरह पर्दे में रहती थी, जबकि पासवान वह होती थी जिसे राजा ने अपने पास उपस्थित रहने का अधिकार दे रखा हो। प्रस्तुत उपन्यास ऐसी ही एक स्त्री गुलाबराय की कहानी है जिसे पहले तो मारवाड़ रियासत के महाराजा विजयसिंह ने उसके रूप से सम्मोहित होकर अपनी पड़दायत बनाया और बाद में उसके गुणों पर रीझ कर पासवान का सम्मान दिया। इतना ही नहीं, समय आने पर महाराजा ने उसे अपनी महारानी भी घोषित किया किंतु रियासत के सामंतों ने उसे महारानी मानने से मना कर दिया। उनके लिये वह राजा की पासवान बनी रही।
फिर भी गुलाब ने पूरे आत्मविश्वास से हिन्दुस्थान की तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी रियासत का लगभग तीन दशक तक शासन चलाया और उस पर हावी रही। महाराजा ने अपने शासन का सारा भार उसके कंधों पर डाल दिया। राज्य के मुत्सद्दियों और सामंतों में से कुछ ने गुलाब को अपनी स्वामीनी के रूप में अत्यधिक पसंद किया तो कुछ उसके प्राणों के बैरी हो गये। यही कारण था कि वह मुत्सद्दियों और सामंतों की हत्याएँ करती हुई लगातार आगे बढ़ती रही।
केवल वर्तमान पर ही गुलाब की पकड़ नहीं थी, भविष्य पर भी उसकी दृष्टि थी। इसीलिये उसने महाराजा विजयसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में पहले तो अपने औरस पुत्र तेजकरणसिंह को, फिर दत्तक पुत्र राजकुमार शेरसिंह को और अंत में मातृ-पितृ विहीन राजकुमार मानसिंह को मारवाड़ का महाराजा बनाने का प्रयास किया किंतु नियति ने मारवाड़ के उत्तराधिकारी का चयन करना उसके भाग्य में नहीं लिखा था। उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति में कुँवर भीमसिंह सदैव ही बाधा बनकर आ खड़ा हुआ। कुँवर जालिमसिंह ने भी अपना दावा मजबूती से जताया। इस कारण जोधपुर रियासत का राजदरबार और महाराजा का रनिवास अनेक भयानक षड़यंत्रों से भर गया।
जब तक मुगल बादशाह, लाल किले में मजबूत बने रहे, तब तक राजपूता रियासतों में उत्तराधिकार का प्रश्न मुगल बादशाहों के हस्तक्षेप से हल होता रहा था किंतु मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद राजपूत रियासतों में उत्तराधिकार के संघर्ष का सर्वसम्मत और अंतिम निर्णय करने वाला कोई नहीं रहा। इस कारण इन षड़यंत्रों का अंत प्रायः एक राजकुमार के राजगद्दी पाने और शेष राजकुमारों की भयावह हत्याओं से होता था। इस प्रवृत्ति के चलते राजा का अंतःपुर और राजदरबार इस संघर्ष के केन्द्र बन कर रह गये थे। कई बार तो राजा स्वयं भी अपने उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर होने वाले षड़यंत्रों में सम्मिलित हो जाते थे।
राजदरबार एवं रियासत की राजनीति में पासवान गुलाबराय की सक्रिय उपस्थिति के कारण महाराजा विजयसिंह के जीवन काल में ही उनके उत्तराधिकारी का पद हथियाने के लिये विभिन्न राजकुमारों का पक्ष ग्रहण करके राज्य के लगभग समस्त सामंतों के मध्य लम्बा संघर्ष हुआ। जोधपुर दुर्ग एक के बाद एक होने वाले इन षड़यंत्रों का केन्द्र बन गया। हत्याएँ होती रहीं। राजकुमार विद्रोही होते रहे। सामंत पलायन करते रहे। रियासत के भीतर चलने वाले ये षड़यंत्र, संघर्ष और पलायन तब तक जारी रहे जब तक कि मारवाड़ रियासत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संरक्षण में नहीं चली गई।
प्रस्तुत उपन्यास महाराजा विजयसिंह के काल में मारवाड़ रियासत में हुई घटनाओं तक सीमित है। इसका तानाबाना महाराजा की पासवान गुलाबराय को केन्द्र में रखकर बुना गया है। इस उपन्यास को लिखने की मेरी इच्छा कई वर्षों से थी। मैं गुलाबराय के जीवन चरित्र के जटिल पन्नों से अत्यंत प्रभावित रहा हूँ। महाराजा विजयसिंह तो मेरी श्रद्धा के पात्र रहे ही हैं। अठारहवीं शती में इन दोनों व्यक्तियों का एक साथ उपस्थित होना, भारतीय इतिहास की एक अनुपम युति है किंतु महान व्यक्तित्वों के साथ अपवाद भी लगे ही रहते हैं। इन दोनों ऐतिहासिक चरित्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
कर्नल टॉड ने भाटों की बहियों के आधार पर गुलाबराय के बारे में लिखा है कि वह ओसवाल जाति की स्त्री थी तथा उसने कई बार राजा विजयसिंह को जूतियों से मारा। इस तथ्य को पढ़कर मन को चोट पहुँचती है। निःसंदेह टॉड बरसों तक राजपूताना की रियासतों में घूमा था किंतु उसे राजपूत रियासतों की उज्जवल परम्पराओं एवं मर्यादाओं की पूरी जानकारी नहीं थी। सामंती परिवेश में यह संभव नहीं था कि कोई पासवान, अपने समय के सबसे महान, सबसे शक्तिशाली और सबसे प्रभावशाली महाराजाधिराज को जूतियों से मारे और फिर भी राजा उस पासवान को महारानी का दर्जा दिलवाने के लिये आतुर रहे। हैरानी यह देखकर होती है कि टॉड के बाद किसी इतिहासकार या लेखक ने टॉड के कथन का खण्डन करने का प्रयास नहीं किया। इतिहासकार मौन हो गये और लेखक मुँह सिलकर बैठ गये।
मुझे इन दोनों ऐतिहासिक चरित्रों के बारे में वास्तविक तथ्यों की शोध करके यह उपन्यास लिखने की इच्छा हुई। मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास के माध्यम से इन दोनों का उज्जवल और जटिल चरित्र पाठकों के समक्ष आयेगा और पाठक उस युग की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में महाराजा विजयसिंह और गुलाबराय की वास्तविकता को समझ सकेंगे।
यह एक उपन्यास है, इतिहास नहीं। फिर भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि उपन्यास में ली गई कोई भी घटना ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध न हो। उपन्यास में वर्णित देश, काल एवं पात्रों का उल्लेख इतिहास सम्मत तथ्यों पर आधारित है जो उस समय के वातावरण की रचना करने में सहायक है। पाठकों से अनुरोध है कि इसे केवल उपन्यास समझ कर पढ़ें न कि इतिहास।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
63, सरदारक्लब योजना,
वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर
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