थार मरूस्थल के पूर्वी छोर पर ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी से, रणबांकुरे राठौड़ों का शासन चला आ रहा था। आकार की दृष्टि से यह भारत वर्ष की तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी रियासत थी। आज नई दिल्ली की जिस रायसीना पहाड़ी पर राष्ट्रपति भवन बना हुआ है, कई सौ साल तक वह पहाड़ी इन राठौड़ों की निजी जागीर के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा क्षेत्र था।
1678 इस्वी में जमरूद के मोर्चे पर मारवाड़ रियासत के पन्द्रहवें राठौड़ महाराजा जसवंतसिंह के निधन के बाद जब उनकी दोनों गर्भवती महारानियाँ जमरूद से मारवाड़ को लौट रही थीं तब मार्ग में दोनों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। उनमें से एक पुत्र दलथंभन तो मार्ग में ही काल का ग्रास बन गया तथा दूसरे शिशु अजीतसिंह को राठौड़ सरदारों ने अपना महाराजा घोषित किया। औरंगजेब ने इस शिशु-राजा तथा उसकी माताओं को छल से दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया। जब औरंगजेब ने शिशु-राजा की सुन्नत करनी चाही तब दिवंगत महाराजा के विश्वस्त सिपाही मरने मारने पर उतारू हो गये।
राठौड़ दुर्गादास तथा खीची मुकुंदास आदि सामंतों ने शिशु-राजा को किसी तरह औरंगजेब की कैद से छुड़वाकर मारवाड़ के लिये रवाना कर दिया। स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह की विधवा रानियों ने मर्दाना वस्त्र पहनकर मुगल सिपाहियों का सामना किया और रणखेत रहीं। राठौड़ों ने महारानियों के पार्थिव शरीर यमुनाजी में बहाये और किसी तरह लड़ते भिड़ते दिल्ली से बाहर आ गये। उन्होंने शिशु-राजा को मारवाड़ रियासत के दक्षिण में स्थित छोटी सी सिरोही रियासत की पहाड़ियों में छिपा दिया। औरंगजेब जीवन भर राठौड़ों के इस राजा को ढूंढता रहा किंतु उसे पकड़ना तो दूर उसकी छाया तक को न छू सका।
क्रुद्ध औरंगजेब ने मारवाड़ रियासत को खालसा कर लिया अर्थात् उसे बादशाह की जागीर में सम्मिलित कर लिया। अपने राजा को फिर से मारवाड़ की राजगद्दी दिलवाने के लिये राठौड़ सरदार उन्तीस बरस तक घोड़ों की पीठों पर बैठे रहे और मुगल थाने उजाड़ते रहे। मारवाड़ का चप्पा-चप्पा उनके घोड़ों की टापों से गूंजता रहा। औरंगजेब की मृत्यु होने पर यही अजीतसिंह जोधपुर के राजा हुए। जब फर्रूखसीयर मुगलों का बादशाह हुआ तो उसने महाराजा अजीतसिंह को विवश करके उनकी पुत्री इंद्रकुँवरी के साथ विवाह किया। महाराजा अजीतसिंह ने बेटी तो दे दी किंतु मन नहीं दिया। अवसर मिलते ही उन्होंने दिल्ली के लाल किले में फर्रूखसीयर की हत्या करवाई और इंद्रकुँवरी को जोधपुर लाकर उसका शुद्धिकरण करके क्षत्रिय राजकुमार के साथ दूसरा विवाह किया।
मुगलों को राजपूताने से बाहर करने के लिये महाराजा अजीतसिंह और कच्छवाहा राजा जयपुर नरेश सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने एक साथ मिलकर कार्य किया था किंतु शीघ्र ही दोनों में खटक गई और जयसिंह ने अजीतसिंह की हत्या का षड़यंत्र रचा। मुगल सान्निध्य के प्रभाव से, जयपुर नरेश के षड़यंत्र से और मारवाड़ के दुर्भाग्य से 23 जुलाई 1724 को अजीतसिंह के पुत्र बखतसिंह ने अपने बड़े भाई अभयसिंह के उकसाने पर, नींद में सोते हुए अपने पिता महाराजाधिराज अजीतसिंह और उसकी पड़दायत गंगा की हत्या कर दी। अजीतसिंह की मृत देह के साथ 6 रानियाँ, 20 दासियाँ, 9 उड़दा बेगणियाँ, 20 गायनें तथा 2 हुजूरी बेगमें सती हुईं। पिता की हत्या के बाद अभयसिंह और बखतसिंह ने मारवाड़ राज्य आपस में बाँट लिया। अभयसिंह जोधपुर का राजा हुआ और अभयसिंह नागौर का।
21 सितम्बर 1743 को महाराजा अजीतसिंह की हत्या करवाने वाले कच्छवाहा राजा सवाई जयसिंह की तथा उसके छः साल बाद पितृहत्या के षड़यंत्र में सम्मिलित महाराजा अभयसिंह की मृत्यु हो गई। जयसिंह के बाद उसका पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर के कच्छवाहों का राजा हुआ और अभयसिंह के बाद उसका पुत्र रामसिंह जोधपुर के राठौड़ों की महान गद्दी पर बैठा। ईश्वरीसिंह को सात साल की संक्षिप्त अवधि तक जयपुर पर शासन करने के बाद आत्मघात करना पड़ा और उसका छोटा भाई माधोसिंह कच्छवाहों का राजा हुआ।
राठौड़ों का युवक राजा रामसिंह प्रतिभा-सम्पन्न नहीं था। वह अपने ही राठौड़ सरदारों के साथ बुरा बर्ताव करता था। इस कारण राज्य के चारण उसके विरोधी होकर गाते फिरते थे-
रामो मन भावे नहीं, उत्तर दीनो देस।
जोधाणो झाला करे, आव धणी बखतेस।
राठौड़ सरदारों के उकसाने पर जून 1751 में महाराजा रामसिंह को उसके चाचा नागौर के राजाधिराज बखतसिंह ने मेड़ता के युद्ध में उसे हराकर जोधपुर की राजगद्दी पर भी अधिकार कर लिया। अपदस्थ राजा रामसिंह मराठों की शरण में पहुँचा किंतु मराठे उसे जोधपुर नहीं दिलवा सके।
सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह ने राठौड़ों से मधुर सम्बन्ध स्थापित किये। ईश्वरीसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा माधोसिंह ने स्वर्गीय ईश्वरीसिंह की पुत्री का विवाह जोधपुर नरेश रामसिंह से किया। इस कारण उनके सम्बन्ध भी जोधपुर से अच्छे बने रहे किंतु जब राजाधिराज बखतसिंह ने रामसिंह को जोधपुर से निकाल बाहर किया तब राठौड़ों और कच्छवाहों की दोस्ती खटाई में पड़ गई।
माधोसिंह ने प्रयास किया कि जोधपुर फिर से रामसिंह को मिल जाये किंतु वह अपने प्रयासों में सफल नहीं हुआ। इस पर माधोसिंह ने बखतसिंह की हत्या का षड़यंत्र रचा। किशनगढ़ रियासत की राठौड़ राजकुमारी अेजनकंवर माधोसिंह को ब्याही गई थी, उसने माधोसिंह के कहने पर एक विषबुझी पोषाक अपने चाचा मरुधरानाथ महाराजा बखतसिंह को उपहार में भेजी।
21 सितम्बर 1752 के दिन, इस विषबुझी पोषाक को पहनने से महाराजा बखतसिंह की तबियत खराब हो गई। वैद्यों ने राजा की चिकित्सा करने का विपुल प्रयास किया किंतु महाराजा मृत्यु की तरफ खिंचता ही चला गया। अपना अंत समय आया जानकर उसने अपने सबसे विश्वस्त सरदार गोवर्धन को अपने डेरे में बुलाया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला-‘सरदारां! आज से विजयसिंह मेरा नहीं, आपका बेटा है। उसके प्राणों की रक्षा करना।’
गोवर्धन था तो खीची राजपूत किंतु राठौड़ महाराजा बखतसिंह से बहुत प्रेम करता था। बखतसिंह भी उसे अपने छोटे भाई की तरह मानता आया था। महाराजा की ऐसी दशा देखकर खीची की आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली। अश्रुजल को अपने हाथ में लेकर खीची ने अपने मित्र को वचन दिया-‘शरीर में साँस रहने तक आपके पुत्र का साथ नहीं छोडूंगा।’
यह वचन पाकर बखतसिंह के प्राण पंखेरू उड़ गये।
उस समय महाराजाधिराज का पुत्र विजयसिंह मारोठ के सैन्य शिविर में उपस्थित था। उसने अभी जीवन के केवल तेबीस बसंत देखे थे जिनमें से आरंभ के कुछ बसंत पालने में और बाद के अधिकांश बसंत युद्ध के मैदानों में बीते थे। हिन्दू तेज, राजपूती गौरव, राजसी दर्प और यौवन का उन्माद उसके चेहरे से टपकते थे। देखने वाले इस सजीले राजकुमार को देखते ही रह जाते थे।