साधु आत्माराम परम संतोषी, ईश्वर का भक्त और निस्पृही साधु था। महाराजा विजयसिंह उसी को अपना गुरु, पथ-प्रदर्शक और संरक्षक मानता था। उसी के कहने पर महाराजा अपने नाराज सरदारों के पीछे घोड़ा लेकर गया था और सरदारों की सारी बातें स्वीकार करके उन्हें दरबार में बुला लाया था। जोधपुर लौटने के बाद राजा की सदाशयता के कारण कुछ सरदारों की आत्मा में तो परिवर्तन आ गया किंतु देवीसिंह चम्पावत और उसके गुट के सरदारों की उद्दण्डता पहले से भी अधिक बढ़ गई। वे खुले आम महाराजा की अवहेलना करने लगे। सरदारों के इस आचरण को देखकर मरुधरानाथ पहले से भी अधिक दुःखी हो गया।
एक दिन राजा बहुत उदास होकर साधु की सेवा में उपस्थित हुआ। राजा का बुझा हुआ चेहरा देखकर साधु को उस पर बहुत दया आई। उसने बड़ी आत्मीयता से राजा को अपने पास बैठाया और पीठ पर हाथ फेरता हुआ बोला- ‘क्या बात है राजन् आप क्यों उदास हैं?’
-‘गुरुदेव! या तो मैं इस संसार के योग्य नहीं हूँ या फिर यह संसार मेरे योग्य नहीं है। इसी कारण मन व्यथित रहता है।’ मरुधरानाथ अपने गुरु के प्रश्न का कोई सीधा उत्तर नहीं दे सका।
-‘यह मायावी संसार है राजन्। माया सबको भरमाती है। इसीलिये हमें लगता है कि न तो हम इस संसार के योग्य हैं और न यह संसार हमारे योग्य है। आप जानते हैं राजन् माया का अर्थ क्या है?’
-‘धन सम्पत्ति गुरुदेव।’
-‘नहीं, माया का अर्थ यह नहीं है।’ साधु ने हँसकर कहा।
-‘आप ही बतायें महाराज।’
-‘मा का अर्थ है-नहीं, या का अर्थ है- जो। अर्थात् जो नहीं है, वही माया है। यह सोने, चांदी, हीरे, मोती, हाथी, और घोड़े के रूप में दिखाई देती है। हम समझते हैं कि यही माया है। इस प्रकार पूरा संसार एक सुंदर छलावे के पीछे भागता रहता है।’
-‘मुझे माया नहीं चाहिये प्रभु किंतु जो भूमिका मुझे मिली है, उसके निर्वहन भर की शक्ति तो चाहिये!’
-‘आपको प्रकृति ने जो भूमिका सौंपी है, उसके निर्वहन के लिये शक्तियाँ भी इसी प्रकृति से मिलेंगी, मन छोटा न करो।’ साधु आत्माराम ने स्नेह से मरुधरानाथ की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।
-‘मैं शक्तिहीन हूँ गुरुदेव! मैं न मराठों को परास्त कर सका। न रामसिंह से मुक्ति पा सका। न अपने सरदारों को शिष्टता सिखा सका। सरदार राजकीय मर्यादाओं का भी पालन नहीं करते और मैं उनसे कुछ नहीं कह पाता। मुझे शक्तिहीन जानकर सबने भीतर ही भीतर एका कर लिया है।’ मरुधरानाथ का गला रुंधा सा हो गया।
-‘व्यथित न हों राजन्! मैं आपका सारा दुःख अपने साथ ले जाऊंगा और आप जी भरकर इस धरती को भोगेंगे। आप इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि बड़े से बड़ा राजा भी आपकी कृपा-कटाक्ष के लिये तरसेंगे। मैं अब शीघ्र ही चला जाऊँगा। आप घबराना मत।’
महाराजा ने चौंककर गुरु की ओर देखा। उनकी आँखें बंद थीं। ऐसा लगता था जैसे कहीं बहुत दूर से बोल रहे हों।
-‘क्या गुरुदेव किसी यात्रा पर जा रहे हैं?’ राजा ने प्रश्न किया।
-‘हाँ राजन्! यात्रा ही है वह। एक दिन सबको उस यात्रा पर जाना होता है। मेरे भी जाने का समय हो चला है।’
-‘यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव आप!’ राजा सहम गया।
-‘मैं आपकी सारी समस्याएं अपनी झोली में बांध कर ले जा रहा हूँ। आप श्री हरि चरणों में लौ लगाये रखना।’
-‘आप ऐसे शब्द न बोलें गुरुदेव! मेरा मन डरता है। मैं दुनिया में वैसे भी बहुत अकेला हूँ, आप भी चले जायेंगे तो मेरा सहारा कौन रहेगा!’
-‘भगवान अपनी एक भक्त को भेजेंगे आपके पास……उसे पहचान लेना राजन्। ठुकराना मत…….स्वीकार कर लेना। कोई कहे तब भी मत ठुकराना। जब आपको मेरी आवश्यकता अनुभव हो तो आप उससे पूछ लेना……भूलकर भी उसका हृदय मत दुखाना किंतु विधि का विधान कुछ ऐसा है कि जिस दिन से वह भगतन आपके पास आयेगी, उसी दिन से आपको जीवन भर किसी न किसी समस्या से जूझते रहना होगा किंतु आज के बाद हर संघर्ष में विजय आपकी होगी।’
महाराजा साधु के चेहरे की ओर अपलक देखता रहा। करुणा से भरा उसका चेहरा बालकों की तरह और भी भोला और सुकोमल हो आया था। जाने क्या रहस्य छुपा था उसकी बातों में! राजा जानना तो चाहता था किंतु पूछने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
काफी देर बाद साधु आत्माराम ने आँखें खोलीं। महाराजा उसके चरणों में शीश धरकर चला आया। वह नहीं जानता था कि आज वह अपने गुरु से अंतिम भेंट कर रहा है। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व ही डेवढ़ी के दरोगा ने महराजा को नींद से उठाकर संदेश दिया-‘आत्माराम महाराज ने रात्रि के अंतिम प्रहर में देह त्याग कर दिया।’