जब से देवीसिंह को बंदी बनाया गया था तबसे वह एक ही रट लगा रहा था-‘मुझे भड़ैत सैनिकों की गोली से नहीं मारा जाये। कोई राजपूत तलवार मारकर मेरे प्राण ले ले।’
जगन्नाथ उसे न तो बंदूक की गोली से मारना चाहता था और न तलवार से। वह चाहता था कि देवीसिंह की हत्या का आरोप जगन्नाथ के सिर नहीं आये। इसलिये उसने देवीसिंह को गढ़ के बंदीगृह में बंद कर दिया। देवीसिंह मारवाड़ नरेश अजीतसिंह के वंशज महासिंह का पुत्र था। इसलिये वह अपने आप को मरुधरपति विजयसिंह के बराबर ही मानता था। उसे विजयसिंह के बंदीगृह में रहकर अन्न-जल ग्रहण करना स्वीकार्य नहीं हुआ।
जब जगन्नाथ को ज्ञात हुआ कि ठाकुर देवीसिंह ने अन्न-जल त्याग दिया तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि इससे ठाकुर स्वतः ही कुछ दिनों में मर जायेगा और उसकी हत्या का आरोप भी मुझ पर नहीं आयेगा। एक-एक करके छः दिन निकल गये किंतु देवीसिंह के प्राण नहीं निकले। उधर कुछ सरदार इस बात का प्रयास करने लगे कि देवीसिंह आदि को राजा के बंदीगृह से मुक्त करवाया जाये। जब जगन्नाथ को इन प्रयासों की जानकारी हुई तो उसे चिंता हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मरुधरानाथ किसी के कहने में आकर देवीसिंह चाम्पावत और उसके साथियों को मुक्त कर दे। यदि ऐसा हुआ तो देवीसिंह, धायभाई जगन्नाथ और गोवर्धन खीची के प्राण लिये बिना नहीं रहेगा। इसलिये जगन्नाथ ने देवीसिंह से शीघ्र छुटकारा पाने की योजना बनाई। उसने और गोवर्धन ने मरुधरानाथ से अनुमति मांगी कि देवीसिंह को विष पिला कर मार डाला जाये।
मरुधरानाथ भी समझ रहा था कि देवीसिंह को अधिक दिनों तक बंदीगृह में रखना संभव नहीं होगा। इसलिये वह भी देवीसिंह से शीघ्र छुटकारा पाना चाहता था। उसने गोवर्धन और जगन्नाथ के प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और चुप होकर बैठा रहा। जगन्नाथ, राजा के मौन को उसकी स्वीकृति मानकर देवीसिंह की कोठरी में पहुँचा। देवीसिंह ने उसे आया देखकर घृणा से मुँह फेर लिया।
-‘महाराज ने तुम्हें विष देकर मारने के आदेश दिये हैं।’ जगन्नाथ ने देवीसिंह से कहा।
-‘उनकी बड़ी कृपा है। इसी दिन की आशा में तो मैं रामसिंहजी का साथ छोड़कर विजयसिंहजी की सेवा में आया था।’ देवीसिंह ने अविचलित भाव से उत्तर दिया।
-‘ये लो, इसे पी लो।’ जगन्नाथ ने अफीम में घुला हुआ विष उसकी ओर बढ़ाया।’
-‘विष पीने से इन्कार नहीं किंतु मैं राजा का बेटा हूँ। मिट्टी के बरतन में नहीं पी सकता।’ देवीसिंह ने जवाब दिया।
-‘तो क्या श्री जी आपके लिये सोने का प्याला भेजेंगे?’ जगन्नाथ ने व्यंग्य से पूछा।
-‘वे भी राजा के बेटे हैं। उन्हीं से पूछ लो।’
-‘ठाकर के दोनों हाथ पकड़ लो और यह अफीम जबर्दस्ती इनकी हलक में उंड़ेल दो।’ जगन्नाथ ने अपने साथ आये अनुचरों को आदेश दिया।
जब अनुचरों ने मिट्टी का पात्र देवीसिंह के मुँह से लगाना चाहा तो देवीसिंह ने अपने सिर से एक जोरदार प्रहार उस बरतन पर किया जिससे प्याला सेवकों के हाथों से छिटककर दूर जा गिरा और फूट कर बिखर गया। इसके बाद देवीसिंह ने अपने शरीर का पूरा बल लगाकर अपना सिर दीवार के पत्थरों पर दे मारा। अगले ही क्षण उसके सिर से रक्त का एक फव्वारा फूट पड़ा। देवीसिंह ने दूसरी बार अपने सिर से दीवार पर आघात किया। एक बार फिर रक्त का फव्वारा उछला और ढेर सारा गर्म रक्त कोठरी में बहने लगा।
यह दृश्य देखकर जगन्नाथ हैरान रह गया। उसमें इतना साहस नहीं था जो देवीसिंह को रोक सकता। देवीसिंह दीवार से सिर टकराता रहा और रक्त के फव्वारे उछलते रहे। यह क्रम तब तक चला जब तक कि देवीसिंह निढाल होकर एक ओर को गिर न गया। उसी रात उसके प्राण पंखेरू उड़ गये। जब दूसरे सरदारों को देवीसिंह के दर्दनाक अंत के समाचार मिले तो उन्होंने राजा के बंदीगृह में पड़े अन्य सरदारों को छुड़वाने के प्रयास बंद कर दिये। जगन्नाथ ने भी किसी ठाकुर को विष देने की आवश्यकता नहीं समझी। एक माह बाद छत्रसिंह और तीन साल बाद केसरीसिंह उदावत भी गढ़ के बंदीगृह में स्वतः मृत्यु को प्राप्त हो गये।
ये वही सरदार थे जिनके पूर्वजों ने मारवाड़ रियासत की श्री वृद्धि के लिये अपने प्राण न्यौछावर किये थे और इस गढ़ को खड़ा करने के लिये अपना रक्त बहाया था किंतु विद्रोही हो जाने के कारण न तो वे कुल के लिये किसी काम के रहे थे, न राज्य के और न गढ़ के।
अब गढ़ के बंदीगृह में केवल एक ही बंदी बचा था। वह था ठाकुर केसरीसिंह उदावत का युवा पुत्र दौलतसिंह जो बलपूर्वक निम्बाज का ठाकुर बन बैठा था। मरुधरानाथ ने उसकी कम आयु देखते हुए उसे क्षमा कर दिया।