अजमेर नगर और बीठली गढ़ मरुधपति के चित्त से उतरे नहीं। रात को स्वप्न में भी उसे बीठली गढ़ दिखाई देता। उसे पाने का कोई उपाय भी दिखाई नहीं देता था। गुरुदेव भी नहीं रहे थे। देवीसिंह चाम्पावत और केसरीसिंह उदावत भी मारे जा चुके थे। राठौड़ सरदारों द्वारा साथ नहीं देने के कारण बालू जोशी भी असफल हो चुका था किंतु महाराजा अजमेर को भूलने के लिये तैयार नहीं था। इससक उसके मन में स्थाई खिन्नता व्याप्त हो गई।
उधर धायभाई जगन्नाथ को मेड़ता में रहते हुए काफी समय हो गया था। वह बड़े ठाठ के साथ रह रहा था। इसी बीच मेड़ता के एक व्यापारी की लड़की उसकी दृष्टि को भा गई। जगन्नाथ उस पर सोना, चांदी, हीरे, मोती तथा रुपया लुटाने लगा। बालूजी जोशी को यह अच्छा नहीं लगा कि महाराजा का सेवक राजाओं की तरह रहे और अपनी रखैलों पर राजकोष लुटाता रहे। उसने जगन्नाथ के चरित्र और फिजूलखर्ची की सारी बातें महाराजा से जा कहीं।
महाराजा को बालूजी की बातों में दम लगा, उसने जगन्नाथ का सारा सरकारी लवाजमा छीन लिया और उसे जोधपुर बुला लिया। इस अपमान से दुःखी होकर जगन्नाथ बीमार पड़ गया और कुछ ही दिनों में उसकी मृत्यु हो गई। महाराजा फिर अकेला रह गया। राज्य में उसका कोई सच्चा हितैषी न रहा। अपने गुरु आत्माराम के गौलोक गमन से महाराजा विजयसिंह के दुःखों का पहले से ही पार नहीं था। यह एक नया पहाड़ महाराजा पर टूट पड़ा।
गुरुदेव ने परलोक गमन से एक दिन पहले, महाराजा से कहा था कि आपकी सारी समस्याओं को मैं अपने साथ ले जाऊँगा। महाराजा को समझ में नहीं आया कि इतना समय बीत जाने पर वह अपने गुरु के वचनों का क्या अर्थ लगाये! जिस दिन गुरुदेव ने महाप्रयाण किया, उसी दिन महाराजा के तीन बड़े विरोधी बिना किसी रक्तपात के, बड़ी सरलता के साथ, अनायास ही महाराजा की कैद में आ गये। उस दिन के बाद एक-एक करके विरोधी ठाकुरों का दमन होता ही चला गया किंतु मराठों का वह कुछ नहीं कर सका था। अपदस्थ महाराजा रामसिंह भी जब-तब मारवाड़ में घुस कर उपद्रव करता रहता था। अब तक तो धायभाई जगन्नाथ उसके साथ था किंतु उसकी इस तरह मृत्यु हो जाने से महाराजा सहम गया। मन ही मन वह जगन्नाथ की मृत्यु के लिये स्वयं को जिम्मेदार मानने लगा।
इन दिनों मरुधरानाथ को रह-रह कर किसी कवि की कही इस उक्ति का स्मरण हो आता था-‘राजा जोगी, अगन जल, इनकी उलटी रीत, बचता रहियो परसराम ये थोड़ी राखें प्रीत।’ तो क्या वह स्वयं भी उलटी रीत पर चलने वाला राजा है! महाराजा सोच-सोच कर विचलित हो जाता। धायभाई जगन्नाथ से अधिक उसका उपकारी और कौन रहा होगा! हर बार संकट की घड़ी में वही सच्चे हृदय से उसके काम आया था। उसने खानुजी यादव और रामसिंह को मारवाड़ से मार भगाया था। उसने देवीसिंह चाम्पावत और केसरीसिंह ऊदावत जैसे विद्रोही सामंतों को कैद करके महाराजा के चरणों में डाल दिया था। उसी ने पूरे मारवाड़ में घूम-घूम कर सामंतों और सरदारों को दबाकर मारवाड़ में शांति स्थापित की थी। उसी ने अपनी माँ से पचास हजार रुपये लेकर एक ऐसी वेतन-भोगी सेना खड़ी की थी जिसके भय से बड़े से बड़ा विद्रोही थर-थर काँपता था।
ऐसा परम उपकारी धायभाई, मरुधरानाथ के अपने राज्य में, मरुधरानाथ की अपनी उपेक्षा की मार से मर गया। धिक्कार है राजा को, उसके कच्चे कानों को और उसके कृतघ्न स्वभाव को! मरुधरानाथ स्वयं को धिक्कृत करने लगता। धायभाई ही क्यों, ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत के साथ भी तो यही सब हुआ। एक समय था जब देवीसिंह चाम्पावत उस समय के महाराजा रामसिंह को छोड़कर विजयसिंह और उसके पिता बख्तसिंह के पास चला आया था। उसी ने बख्तसिंह को सरदारों के हाथों बंदी बनाये जाने से बाचाया था। उसके जैसा उपकारी सेवक महाराजा के पास और कोई नहीं था। जब मराठों ने महाराजा को नागौर के दुर्ग में घेर लिया था तब देवीसिंह ने ही मरुधरपति की रक्षा की थी। उसी ने मराठों के साथ संधि करके मारवाड़ को बचाया था। क्या हुआ उस देवीसिंह का? वह भी तो महाराजा की कैद में साधारण कैदियों की तरह दीवारों से सिर टकराकर मरा!
मरुधरानाथ जितना सोचता था उतना ही दुःखी हो जाता था। उसके शोक का कोई पार न था। सबसे बड़े दुःख की बात तो यह थी कि उसे इस शोक सागर से उबारने वाला भी कोई न था। ऐसे अवसरों पर प्रायः साधु आत्माराम महाराजा को संभाल लेता था, उसके वचन महाराजा के तपते हुए मन पर अमृत की ठण्डी बौछार करते थे किंतु अब साधु आत्माराम नहीं था। वह तो महाराजा की समस्त समस्याओं को अपनी गठरी में बांध कर ले जाने के लिये किसी दूसरे लोक में जा बैठा था। उसे अब कहाँ पाया जा सकता था!
जब मरुधरानाथ संताप सागर की लहरों पर डूब और तिर रहा था, गोवर्धन खीची ने आकर उसे मुजरा किया।
-‘महाराज! मैं कुछ दिनों के लिये तीर्थयात्रा पर जाना चाहता हूँ।’
-‘विचार तो अच्छा है, हम भी चलें।’
-‘आपका मारवाड़ में रहना आवश्यक है बापजी। मराठे दूर नहीं हैं और सरदार-सामंत भी अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। आप यदि राज्य से बाहर रहे तो कोई भी षड़यंत्र हो सकता है।’
-‘फिर तो आपको हमारे साथ रहना चाहिये।’
-‘चाहता तो मैं भी यही हूँ किंतु मन बहुत खिन्न रहता है। तीर्थयात्रा से मन की खिन्नता कुछ दूर होगी।’
-‘आप उचित ही सोचते हैं ठाकरसा, ईश्वर के चरणों और तीर्थों से बढ़कर मन की खिन्नता दूर करने का स्थान और कौनसा है!’
-‘तो मुझे अनुमति है मरुधराधीश?’
-‘ठीक है, आप हो आइये किंतु लौट कर शीघ्र आइये।’
-‘जो आज्ञा महाराज।’ खीची ने महाराज को मुजरा किया और महल से बाहर चला गया।
उधर खीची ने पीठ मोड़ी और इधर मरुधरानाथ ने भी अपने मन के संताप से मुक्ति पाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाने का निर्णय लिया। वे ही उसके मन का संताप हर सकते हैं। राजा ने ड्यौढ़ी के दरोगा गोविंददास को बुलाकर आदेश दिया कि आज संध्याकाल में बालकृष्ण लाल के मंदिर में भगवद्-दर्शनों का प्रबंध करें।