बावरियों के आतंक से तो मारवाड़ की प्रजा को निजात मिल गई किंतु निम्बाज का ठाकुर कल्याणसिंह महाराजा की इस कार्यवाही से मन ही मन महाराजा का बड़ा शत्रु हो गया। विधि का विधान ही कुछ ऐसा था कि महाराजा के सरदार एक-एक करके महाराजा के शत्रु हो जाते थे। जैसे ही महाराजा जोधपुर पहुँचा, पोकरण का ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत, पाली का ठाकुर जगतसिंह चाम्पावत, आसोप का ठाकुर छत्रसिंह कूंपावत, नीम्बाज का ठाकुर कल्याणसिंह उदावत, लवेरा का ठाकुर दौलतसिंह भाटी आदि सामंत मरुधरानाथ से आज्ञा लिये बिना ही अपनी-अपनी जागीरों को चले गये। उनके लिये यह संभव नहीं था कि वे अब जोधपुर में रह सकते। खींवसर का ठाकुर जोरावरसिंह करमसोत उन सबके कच्चे चिट्ठे महाराजा के समक्ष खोल चुका था। महाराजा किसी भी समय इन सरदारों पर कोई भी कार्यवाही कर सकता था। इसलिये भलाई इसी में थी कि वे चुपचाप अपनी जागीरों को लौट जायें।
जिस प्रकार नासिका विहीन मनुष्य को यह सहन नहीं होता कि उसकी तो नासिका कटी रहे और दूसरे लोग अक्षत नासिका लेकर घूमें। उसी प्रकार इन विद्रोही ठाकुरों को भी यह सहन नहीं हुआ कि वे तो विद्रोही का कलंक लेकर घूमें और दूसरे ठाकुर स्वामीभक्त कहलायें। इसलिये इन विद्रोही ठाकुरों ने अन्य ठाकुरों को भी विद्रोह करने के लिये उकसाया।
बड़े ठाकुरों के उकसाने पर छोटी खाटू के ठाकुर जालमसिंह जोधा, मगरासर के ठाकुर हठीसिंह भोमिया तथा पश्चिमी नागौर क्षेत्र के करमसोत ठाकुर ने नागौर के क्षेत्र में लूटमार आरंभ कर दी। डीडवाना की ओर शेखावत ठाकुरों ने भी इलाके को उजाड़ना आरंभ कर दिया। जालमसिंह जोधा ने तो नये सैनिकों की भर्ती करके दौलतपुरा पर अधिकार कर लिया। मारवाड़ को उसके रखवाले ही उजाड़ रहे थे और मरुधरानाथ के पास इन विरोधियों और विद्रोहियों को दबाने का कोई उपाय नहीं था। खानुजी जाधव को डेढ़ लाख रुपये देने के बाद उसके खजाने में फूटी कौड़ी नहीं बची थी। राज्य की यह हालत देखकर मरुधरानाथ निराशा के पंक में धंसने लगा। एक दिन उसने धायभाई जग्गू से अपने मन की व्यथा कही।
जगन्नाथ को सब जग्गू कहते थे। वह था तो होशियार किंतु उसे अपनी होशियारी दिखाने का कभी अवसर नहीं मिला था। उसने ठान ली कि वह राजा की सहायता अवश्य करेगा किंतु उसकी भी जेब में भी फूटी कौड़ी न थी, न होनी थी! उसने कई लोगों से रुपया उधार लेने का प्रयास किया किंतु किसी ने उसे एक कौड़ी नहीं दी। हार-थककर जग्गू अपनी माँ के पास पहुँचा और उससे पचास हजार रुपये मांगे। उसकी माँ को राजा की धाय होने के कारण हर साल पाँच हजार रुपये वेतन मिलता था। इसलिये जग्गू को ज्ञात था कि माँ के पास अच्छी खासी पूंजी जमा है।
माँ, बेटे की इस मांग पर हैरान रह गई। आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि पुत्र ने उससे रुपये मांगे हों। उसने अचरज भरी दृष्टि से बेटे की ओर देखा।
-‘कारण मत पूछना माँ। सबकी शान जायेगी। बस इतना समझ ले कि तेरे दूध की लाज बचाने के लिये ये रुपये चाहियें।’ जग्गू ने माँ के चेहरे पर उभरे सवाल को पढ़कर जवाब दिया।
-‘यदि मैं रुपया देने से मना करूँ तो?’
-‘तो मुझे आत्मघात करना पड़ेगा।’ पुत्र ने विकल होकर जवाब दिया।
-‘अपनी जन्मदात्री से ऐसी बात कहते हैं क्या?’ माँ ने हैरान होकर पूछा।
-‘तो और क्या करूँ, मुझसे मरुधरानाथ का कष्ट देखा नहीं जाता।’ जग्गू ने कमीज की आस्तीन से आँखें पौंछते हुए कहा।
माँ समझ गई कि जग्गू को रुपया किस लिये चाहिये। इसलिये उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली-‘रुपया ले ले, कोई बात नहीं लेकिन यह ध्यान रखना कि यह रुपया तेरा नहीं है, मरुधरानाथ का है।’
-‘तू निश्चिंत रह माँ! यह मरुधरानाथ के लिये ही खर्च होगा, मेरे लिये नहीं। पर तू भी सुन ले, मुझे पता नहीं कि मैं यह रुपया वापस तुझे कभी लौटा पाऊंगा या नहीं।’ जग्गू की आँखों में एक बार फिर पानी की बूंदें तैर आईं। अपने ऊपर ग्लानि हो आई उसे। कैसा बेटा है वह, वृद्धा माँ से रुपया मांग रहा है! किंतु इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं।
-‘मैं रुपया लेकर तो ऊपर जाऊंगी नहीं, फिर मुझे इसे वापस लेकर क्या करना है।’ माँ ने बेटे को तसल्ली दी। उसने बेटे की आँखों में आँसू तैरते हुए देख लिये थे।
न माँ ने आगे पूछा, न बेटे न बताया कि रुपया क्यों चाहिये किंतु जग्गू को उसी समय रुपया मिल गया। उसने उन रुपयों से एक वैतनिक सेना खड़ी की। उन दिनों बहुत से पुरबिया राजपूत, सिन्धी मुसलमान, अरबी मुसलमान और रूहेले सिपाही उदरपूर्ति के लिये मारे-मारे फिरते थे। जग्गू ने उन्हें अपनी सेना में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया। कुछ ही दिनों में उसके पास दो हजार सैनिक इकट्ठे हो गये।
जग्गू ने दो हजार आदमी अपनी सेना में भरती तो कर लिये किंतु ये लोग सिपाही कम और भीड़ अधिक दिखाई देते थे। जग्गू ने इस भीड़ को सेना में बदलने का निश्चय किया। उसने बाजार से चार हजार मर्दाना सफेद धोतियाँ मंगवाईं और उन्हें हल्दी के घोल में डाल दिया जिससे धोतियाँ पीले रंग की दिखाई देने लगीं। उसने प्रत्येक सिपाही को दो-दो धोतियाँ दीं और हर समय यही धोती पहिनना अनिवार्य कर दिया। इसके बाद उसने चमड़े की दो हजार कमर पेटियाँ बनवाईं और प्रत्येक सिपाही को कमीज के ऊपर कमर पेटियाँ बांधने के आदेश दिये।
राठौड़ सामंतों ने जब इस विचित्र पोशाक वाले सिपाहियों को देखा तो हँस-हँस कर उनके पेट में बल पड़ गये। उन्हें यह कार्य किसी मसखरी से अधिक नहीं जान पड़ा। सामंतों की यह प्रतिक्रिया देखकर जग्गू का मुँह उतर गया किंतु वह निराश नहीं हुआ, अपने काम में लगा रहा। जग्गू की माँ तथा स्वयं मरुधरानाथ उसका हौंसला बढ़ा रहे थे। जब सेना तैयार हो गई तो जग्गू ने नागौर की तरफ कूच करने का विचार किया। उसके पास अश्व नहीं थे। दो हजार सिपाही जोधपुर से नागौर तक पैदल ले जाये जाने संभव नहीं थे। इसलिये जग्गू ने भाड़े की दो सौ बैलगाड़ियों का प्रबंध किया। प्रत्येक बैलगाड़ी पर उसने दस सैनिक बैठाये और उन्हें नागौर की तरफ हांक दिया।
इस समय सभी बड़े सामंत, पोकरण ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत के बहकावे में आकर मरुधरानाथ का साथ छोड़ चुके थे, इसलिये जग्गू ने नागौर की तरफ के कुछ छोटे ठाकुरों को महाराजा की तरफ से आदेश भिजवाया कि वे अपने सिपाहियों को लेकर नागौर में एकत्रित हों और स्वयं भी महाराजा से आज्ञा लेकर नागौर की तरफ चल पड़ा।
जब जग्गू नागौर पहुँचा तो कई छोटे-छोटे ठाकुर अपने सैनिक लेकर उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अब जग्गू के पास कुल सात हजार सिपाही हो गये जिनमें से दो हजार उसके अपने वैतनिक सिपाही थे और पाँच हजार सिपाही उसे नागौर पट्टी के छोटे ठाकुरों से मिल गये थे। नागौर पहुँच कर जग्गू ने गढ़ में पड़ी पुरानी और छोटी तोपों की मरम्मत करवाई। जब जग्गू अपनी तैयारियों से संतुष्ट हो गया तो उसने सबसे पहले छोटी खाटू के ठाकुर जालमसिंह जोधा को दण्डित करने का मन बनाया।
हिन्दू संस्कृति और क्षत्रियोचित परम्पराओं को ध्यान में रखकर जग्गू ने छोटी खाटू के ठाकुर के पास संदेश भिजवाया कि यदि वह अब भी विरोध छोड़कर महाराजा की शरण में आ जाये तो उसे क्षमा कर दिया जायेगा और पच्चीस हजार की जागीरी का पट्टा दिया जायेगा। ठाकुर जालमसिंह ने जग्गू की हँसी उड़ाते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर जग्गू ने छोटी खाटू पहुँच कर गढ़ी को घेर लिया। जब गढ़ी पर तोपें बरसने लगीं तो जालमसिंह घबरा गया और रात के अंधेरे में गढ़ी की दीवार फांद कर भाग गया। जग्गू ने गढ़ी गिरवाकर भूमि सपाट करवा दी और ठाकुर जालमसिंह के साथी मनाणा के ठाकुर से पेशकश वसूल की।
इस विजय से जग्गू का मनोबल ऊँचा हो गया। वह पूरी दृढ़ता के साथ अपनी माँ के दूध की लाज बचाने के लिये आगे बढ़ता गया और ठाकुरों को दण्डित करता गया। उसने डीडवाना पहुँचकर उस तरफ के शेखावतों और लाडखानियों में कसकर मार लगाई और उन्हें जबर्दस्त दण्डित किया। डीडवाना क्षेत्र में मिली सफलता से जग्गू के पास अच्छा पैसा हो गया। अब उसने मगरासर पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। मगरासर दूरस्थ मरुस्थलीय क्षेत्र था इसलिये वहाँ का भोमिया हठीसिंह जोधपुर की तरफ से बिल्कुल बेपरवाह था। वह समझ नहीं पाया कि इस समय जग्गू किस अभियान पर था और उसने क्या निश्चय कर रखा था!
एक दिन पौ फटने से पहले जग्गू ने मगरासर की गढ़ी को जा घेरा। हठीसिंह के हाथ-पाँव फूल गये। वह अपने दो पुत्रों सहित गढ़ी छोड़कर भागा। जग्गू ने उसका पीछा किया और उन तीनों को घेर कर मार डाला।
धायभाई की सफलताओं के समाचारों ने मारवाड़ के बड़े सामंतों की रातों की नींद उड़ा दी। मारवाड़ में यह पहली बार हो रहा था कि कोई धायभाई सेनापति हुआ घूम रहा था और वैतनिक सेना, ठाकुरों की सेनाओं पर भारी पड़ रही थी। अब वह जग्गू नहीं रहा था, धायभाई जगन्नाथ कहलाने लगा था। इस बीच महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वासपात्र ड्यौढ़ीदार गोयंददास तथा ठाकुर केसरीसिंह उदावत को पोकरण भेजकर देवीसिंह चाम्पावत को मनाने और फिर से जोधपुर ले आने का प्रयास किया किंतु घमण्ड और गुस्से से चूर देवीसिंह ने महाराजा के सारे प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिये।
इसी बीच नीम्बाज के ठाकुर कल्याणसिंह उदावत की मृत्यु हो गई। उसके कोई लड़का नहीं था। इसलिये केसरीसिंह उदावत ने मरुधरानाथ की अनुमति लिये बिना, अपने पुत्र दौलतसिंह को बलपूर्वक नीम्बाज की विधवा ठकुराइन को गोद दे दिया। मरुधरानाथ ने नाराज होकर नीम्बाज के पट्टे में से पीपाड़ गाँव जब्त कर लिया। इससे केसरीसिंह भी महाराजा से कुपित हो गया और दरबार छोड़कर मण्डोर में डेरा डालकर जा बैठा।
केसरीसिंह मारवाड़ रियासत का आखिरी प्रभावशाली ठाकुर था जो अब तक महाराजा का साथ दे रहा था किंतु अब वह भी महाराजा का विरोधी हो गया। महाराजा ने समय की आवश्यकता को देखते हुए पीपाड़ फिर से नीम्बाज के पट्टे में बहाल कर दिया तथा केसरीसिंह को मनाने के लिये अपने दीवान फतेहचंद सिंघवी को मण्डोर भेजा। केसरीसिंह फिर से दरबार में चला तो आया किंतु वह मन ही मन महाराजा का विरोधी हो गया। इसलिये वह मृत ठाकुर कल्याणसिंह का कारज करने के बहाने से मरुधरपति से अनुमति लेकर नीम्बाज के लिये रवाना हो गया।
मारवाड़ के सारे असंतुष्ट ठाकुर, शोक संवेदनाएं व्यक्त करने के बहाने से नीम्बाज आने लगे। केसरीसिंह ने खुलकर उनके सामने महाराजा के विरोध में अपनी भावनायें प्रकट कीं। इन ठाकुरों ने निर्णय लिया कि महाराजा विजयसिंह को अपदस्थ करके फिर से महाराजा रामसिंह को जोधपुर की गद्दी पर बैठाना चाहिये।
जब महाराजा को इन गतिविधियों का पता चला तो उसने दीवान फतेहचंद सिंघवी को नीम्बाज भेजा ताकि वह ठाकुरों को मनाकर जोधपुर ले आये। फतेहचंद की बातों से संतुष्ट होकर सभी ठाकुरों ने जोधपुर चलना स्वीकार कर लिया। जोधपुर पहुँच कर ठाकुरों ने बखतसागर की पाल पर अपने डेरे लगाये।