गुलाब की सुगंध फैलनी आरंभ हुई तो फैलती ही चली गई। मरुधरानाथ महाराजा विजयसिंह उस सुगंध सूत्र में ऐसे आबद्ध हुए कि फिर उसके पाश से बाहर निकल ही नहीं सके। उन्होंने बाहर निकलने की चेष्टा भी नहीं की। चेष्टा करने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी। सुगंध का वलय, दिवस प्रति दिवस वृहत्तर होता जाता था और उसी के साथ उसका मद भी बढ़ता जाता था।
गुलाब की पांखुरियाँ भी महाराजा का सान्निध्य पाकर दुगुने जोश से भर गईं। उसके पोर-पोर से सुगंध का झरना फूट पड़ा। महाराजा सुगंध के इस अजस्र स्रोत से पल भर भी अलग नहीं रहना चाहते थे। अब गुलाबराय, गढ़ में ही रहने लगी। महाराजा का लगभग सारा समय उसके निकट व्यतीत होता। जब से वह गढ़ में आई थी, गढ़ का पूरा वातावरण ही परिवर्तित हो गया था। चारों ओर सुगंध ही सुगंध फैल गई थी जिसे संगीत की स्वर लहरियाँ और भी कई गुना बढ़ा देती थीं।
जब प्रातःकाल में महाराजा के नेत्र खुलते तो गुलाब के कण्ठ से निःसृत भजन, महाराजा को साक्षात् केशव के दिव्य लोक में ही ले जाते। वह भगवान विष्णु की परम भक्त थी और गोकुलिये गुसाईयों की अनन्य शिष्या। उसके कण्ठ से त्रिलोकीनाथ की ऐसी-ऐसी स्तुतियाँ फूटतीं कि सुनने वाले को लगता, स्वयं स्वर्ग से अप्सराएं आकर मिहिरगढ़ के परकोटे पर नृत्य कर रही हैं।
महाराजा ने इस अनुपम नारी-रत्न को पाकर अपने जीवन को धन्य माना और गुलाब को अपने रनिवास में प्रवेश दिया। उसके पैर में सोने का कड़ा पहना कर उसे अपनी पड़दायत बना लिया गया। वह राणी तो नहीं बनी किंतु राणियों से कम भी नहीं रही। अब वह परदे में भले ही चली आई किंतु उसके आदेशों की पालना करना हर किसी के लिये शासकीय अनिवार्यता बन गया।
वैसे भी, शासकीय अनिवार्यता हुए बिना भी, गुलाबराय के आदेशों की अवहेलना करना धरती पर जन्मे किसी साधारण मनुष्य के लिये संभव नहीं था। इस समय गुलाब यौवन की जिस ऊँचाई पर स्थित थी, वहाँ से उसके दैहिक रूप, रस और गंध किसी को भी अपना दास बना सकने में सक्षम थे। इसके बल पर वह बिना किसी शासकीय अनिवार्यता के ही सबके हृदय की एकछत्र साम्राज्ञी थी। उसके भृकुटि विलास से जड़ पत्थर तक डोलायमान हो जाते थे, फिर नवकोटि मारवाड़ में तो किसी जीवित प्राणी की बिसात ही क्या थी जो उसकी इच्छा की अनदेखी कर सकता!
एक दिन प्रातः काल राजा के नेत्र खुले तो पूरा महल गुलाब के कण्ठ से निःसृत स्वर लहरी से पूरित हो रहा था। ऐसी मन-मोहक और सुरीली आवाज की सुनने वाला अपनी सुधि बिसरा दे। राजा सीधा उस तरफ गया जहाँ बैठकर गुलाब गा रही थी-
ललित लाल श्री गोपाल, सोइये न प्रातकाल
यशोदा मैया, लेत बलैया, भोर भयो बारे।
रवि की किरन प्रकट भई, उठो लाल निशा गई,
दही मथत, जहाँ तहाँ गावत, गुन तिहारे।
नंदकुमार उठे विहँसि, कृपादृष्टि सबपे हरषि
युगल चरण, कमल पर मानंद वारे।
यह राग भैरवी थी, लगता था इसे गुलाब नहीं कोई भैरवी ही देह धरकर गा रही थी। उसका हाथ इतना कम हिलता था कि सितार मानो स्वतः बज रहा हो। राजा ने गुलाब का यह दमदम करता रूप देखा और उसके कण्ठ से संगीत का निर्मल निर्झर झरते देखा तो भाव-विभोर हो गया। उसके नेत्रों से अश्रुओं की धार बहने लगी और गात में कम्पन्न होने लगा। जैसे-जैसे गुलाब भजन गाती जाती थी, राजा के मन में आनंद भरता जाता था। आखिर गुलाब ने सितार एक ओर रखकर नंदलाल को शीश झुकाया। उठकर खड़ी हुई तो राजा को अपने पीछे खड़े देखा।
-‘ऐसा गीत कहाँ सीखा गुलाब?’ राजा ने मंत्रमुग्ध व्यक्ति की तरह पूछा।
-‘मैं गोकुलिये गुसाईयों की शिष्या हूँ महाराज। उन्हीं से।’
-‘मैं भी उन्हें अपना गुरु बनाऊँगा।’
-‘अवश्य महाराज!’
-‘कब ले चलोगी?’
-‘हमारे गुसाईंजी तो आजकल नाथद्वारे बिराजते हैं। जब आप चाहें चलिये।’
राजा ने ठान लिया कि जिन गुसाइंयों ने गुलाब को ऐसा सुंदर भजन सिखाया है, वह उनका शिष्य अवश्य बनेगा। कुछ दिन बाद वह अपने अंतःपुर की स्त्रियों, मंत्रियों और गुलाब को लेकर नाथद्वारे की यात्रा पर निकल पड़ा। पाँच हजार अश्वारोही सैनिक मरुधरपति, उसके परिवार और मंत्रियों की रक्षा करता हुआ उनके साथ चला। श्रीनाथजी के दर्शन पाकर राजा धन्य हो गया। गोकुलिये गुसाइंयों ने उसे दीक्षा देकर अपने मत में सम्मिलित कर लिया और उसे अपना शिष्य बना लिया।
राजा ने अपने नये गुरुओं के सामने वचन दिया कि आज के बाद वह न माँस का भक्षण करेगा, न मदिरा का सेवन करेगा। वह ऐसा कुछ नहीं करेगा जो बाल गोपाल नंदनंदन को अच्छा नहीं लगता। वह गौओं की सेवा करेगा, साधुओं को अभय करेगा और मंदिरों की रक्षा करेगा। इसके पश्चात् राजा अपनी राजधानी को लौट आया। उसका मन एक अलौकिक शांति और आनंद से पूरित हो गया था। उसने ऐसा आनंद इससे पूर्व कभी अनुभव नहीं किया था। उसे रह रह कर साधु आत्माराम का स्मरण हो आता था। जाने क्यों उसे लगता था कि गुलाब के रूप में साधु आत्माराम फिर से उसके पास लौट आये हैं।
जब गुलाब को गढ़ में आये एक साल हो गया तब गुलाब ने इच्छा व्यक्त की कि जोधपुर में बालकृष्ण का भव्य मंदिर बने। गुलाब की इच्छा पूरी करने के लिये मरुधरानाथ ने जोधपुर नगर में बालकृष्ण का एक नया, विशाल और भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर के बन जाने पर महाराजा ने नियम बना लिया कि जब भी वह राजधानी से बाहर जायेगा अथवा किसी यात्रा से लौटकर आयेगा तो सर्वप्रथम बालकृष्ण तथा महाप्रभु के मंदिरों में उपस्थित होकर उनके दर्शन करेगा, तभी गढ़ में प्रवेश करेगा।
कुछ दिन और बीते, गुलाब ने राजा से करबद्ध होकर विनती की- ‘महाराज! महाप्रभु वल्लभाचार्य केशव के बाल रूप की पूजा किया करते थे। गोकुलिये गुसांईयों में वही परम्परा चली आ रही है। आप भी गोकुलिये गुसाइंयों के शिष्य और बालकृष्ण लाल के भक्त हो गये हैं। मेरी विनती है कि जिस भूमि पर केशव के सबसे सुकोमल स्वरूप अर्थात् बाल कृष्ण की पूजा होती हो, उस भूमि पर पशु-वध नहीं हो। बालकृष्ण गौओं को चराते थे, भला उन्हें पशुओं के वध का चीत्कार कैसे सहन हो सकता है! इसलिये हे मरुधरानाथ! पशुवध बंद करवाईये।’
उसी दिन मरुधरानाथ ने कसाइयों को बुलाकर आदेश दिये-‘या तो यह काम छोड़ दो, या फिर मारवाड़।’
अधिकतर कसाइयों ने अपना पैतृक कार्य छोड़कर पत्थरों की पट्टियाँ ढोने का काम पकड़ लिया। जो ऐसा न कर सके, वे सचमुच मारवाड़ छोड़कर भाग गये। मारवाड़ की भूमि से न केवल पशुवध बंद हो गया अपितु माँस का विक्रय एवं भक्षण भी निषिद्ध हो गया। इसके साथ ही मदिरा का बनाना, बेचना एवं सेवन करना भी निषिद्ध हो गया। महाराज को आशंका थी कि नागरिकों में मदिरा का सेवन करने पर माँस भक्षण की इच्छा भी जाग्रत होगी ही।
मूक पशुओं के लिये मांगने के बाद अब गुलाब ने अपने लिये मांगा-‘इस दासी के लिये गढ़ से बाहर भी महल बने जिसमें एक सुंदर उद्यान हो जहाँ बैठकर मैं महाराज को गोविंद के गीत सुना सकूं।’
महाराजा अपनी पड़दायत की इस मांग पर तो मानो निहाल हो गया। उसने विपुल धन खर्च करके गढ़ से बाहर नगर में गुलाबराय के लिये पृथक उद्यान युक्त भव्य महल बनवाया। यह महिला बाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस उद्यान में राजा प्रायः पड़दायत को साथ लेकर आता और उसके उद्यान में बैठकर भगवान मुरलीधर के गुणों का गायन सुनता। गुलाब तन्मय होकर गाती- म्हैं तो गोविंद के गुण गास्यां।
मरुधरानाथ इन भजनों को सुनकर बेसुध हो जाता। भाव-विभोर राजा की आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकलती।
पड़दायत का ऐसा प्रताप देखकर राज्य के बड़े से बड़े मुत्सद्दी और सरदार, पड़दायत की इच्छा को राजा की इच्छा मानने लगे किंतु राणियों और महाराणियों की भृकुटियों पर बल पड़ गये। उन्हें अपने पुत्रों का भविष्य अंधकार में दिखाई देने लगा। इधर महाराज पड़दायत की प्रेम माधुरी में दिन पर दिन गहरा डूबता जाता था और उधर महाराज को राजकीय कार्य से उदासीन देखकर राज्य के मुत्सद्दी और सरदार प्रजा पर जुल्म ढाने लगेे थे। कुछ लोगों की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है, वे अत्याचार किये बिना रह ही नहीं सकते।