Thursday, November 21, 2024
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29. ऊन का गोला

-‘घणी खम्मा हुकम।’ गुलाब के विश्वस्त अनुचर कानू ने बड़ी प्रातः पड़दायत गुलाब राय के महल में उपस्थित होकर उसे मुजरा किया।

-‘क्या बात है कानू, आज इतनी प्रातः क्यों आया?’

-‘दरबार, मुझे सूचना मिली है कि आसोप ठाकुर छत्तरसिंहजी ने बावड़ी से बकरे कटवाकर मंगवाये हैं। कटे हुए बकरे एक बंद बोरे में भरकर ऊँट पर लादकर लाये जा रहे हैं।’

-‘पक्की सूचना है?’

-‘हाँ दरबार, पक्की।’

-‘झूठी निकली तो?’

-‘तो जो चाहे सजा देना।’

-‘अभी वह ऊँट कहाँ है।’

-‘ऊँट आज तड़के ही बावड़ी से जोधपुर के लिये चला था। किसी भी समय नगर में प्रवेश कर सकता है।’

-‘ऊँट को बावड़ी से जोधपुर तक पहुँचने में पाँच-छः घड़ी समय लगता है।’

-‘जी।’

-‘तो तू एक काम कर। यदि काम ढंग से हो गया तो तेरा ईनाम पक्का।’

-‘हुकुम दरबार।’

-‘तू ये दुनाली बंदूक ले जा और ऊँट का पीछा कर। जब ऊँट शहर के परकोटे के भीतर भीड़ में घुसे तो ऊँट के पीछे हवा में धमाके करना। कोशिश करना कि ऊँट बिदक कर इतना उछले-कूदे कि उसकी पीठ पर लदे बोरे नीचे गिर जायें। उसी समय तू बोरों के मुँह खोल देना।’

-‘जी दरबार।’

-‘और देख। ध्यान रखना कोई तुझे पकड़ न ले। इसलिये चार आदमी अपने साथ रखना।’

-‘जी दरबार।’

कानू पक्का आदमी था। उसने ठीक वैसा ही किया जैसा उसे पड़दायत ने समझाया था। ठीक भीड़भाड़ वाले इलाके में उसने ऊँट के कान के पास दुनाली ले जाकर धमाका किया।

अचानक अपने कान के पास बंदूक के धमाके सुनकर ऊँट बिदक गया। इससे पहले कि वह संभलता कानू ने एक धमाका और कर दिया। इस धमाके ने ऊँट की व्यग्रता को गुस्से में बदल दिया। ऊँट बेकाबू होकर भीड़ में जा घुसा और बाजार में अफरा-तफरी मच गई। अंततः ऊँट की पीठ पर लदे हुए बोरे जमीन पर गिर पड़े। एक बोरा फट गया और उसमें से बकरे का कटा हुआ सिर बाहर निकलकर लुढ़क गया। कानू का काम स्वतः ही हो गया था। उसे बोरे का मुँह खोलने की आवश्यकता नहीं थी। इसलिये वह बड़ी सरलाता से सबकी दृष्टि से बचकर सरपट वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

खबर पक्की थी। गुलाब ने कानू को मोतियों की माला देकर विदा किया। गुलाब ने यह समाचार मरुधरानाथ को दिया-‘आसोप ठाकुर छत्तरसिंह ने बावड़ी से बकरे कटवाकर जोधपुर में मंगवाये और ऊँट के बिदक जाने से बकरे का कटा हुआ सिर, मार्ग पर लुढ़क गया जिसे बीच बाजार में सबने देखा।’

यह प्रत्यक्षतः राजकीय आदेशों के उल्लंघन का मामला था। मरुधरानाथ ने संध्या के दरबार में आसोप ठाकुर से सवाल किया-‘क्यों ठाकरां! आज आपके ऊँट पर लदे बोरे में से बकरे का कटा हुआ सिर निकलकर बाजार में बीच मार्ग पर गिर गया?’

-‘नहीं अन्नदाता। मेरे ऊँट पर बकरे का सिर कहाँ से आयेगा!’ छत्तरसिंह अनजान बन गया। वह एक दुष्ट व्यक्ति था। उसे अनुमान हो गया था कि इस घटना की सूचना अवश्य ही मरुधरानाथ तक पहुँचेगी इसलिये वह पूरी तैयारी के साथ आया था।’

-‘तो फिर वह क्या था?’

-‘वह तो बकरी की ऊन से बना हुआ एक गोला था जो ऊँट के बिदक जाने से बोरे में से निकल कर मार्ग पर लुढ़क गया था। आज प्रातः यह बात मेरे कानों तक भी आई थी कि कुछ लोगों ने उसे बकरे का कटा हुआ सिर समझकर हल्ला मचा दिया था। इसलिये मैं पहले से ही यह गोला श्री जी साहब को दिखाने के लिये अपने साथ लाया हूँ।’ छत्तरपति ने बकरी के काले बालों से कती हुई ऊन का बड़ा सा गोला मरुधरानाथ के समक्ष प्रस्तुत किया।

मरुधरानाथ यह देखकर हैरान हुआ कि छत्तरसिंह पूरी तैयारी के साथ दरबार में आया था। समझ तो गुलाब भी गई कि इतनी पूर्व तैयारी का क्या अर्थ है किंतु वह कानू को गवाह के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकती थी। क्योंकि इससे ठाकुरों को गुलाब पर आरोप लगाने का अवसर मिल जाता कि यह सब पड़दायत का षड़यंत्र है।

छत्तरसिंह के उत्तर के बाद मरुधरानाथ ने केवल इतना ही कहा-‘हम भी यही सोच रहे थे कि छत्तरसिंह हमारे विश्वास के सरदार हैं, वे हमारे रहते जोधपुर में कटा हुआ बकरा कैसे ला सकते हैं!’

-‘श्रीमंत का विचार अत्यंत श्रेष्ठ है। यह दास अपने स्वामी के आदेश की अवहेलना कर ही नहीं सकता।’ ठाकुर ने काइयाँ व्यक्ति की तरह मुस्कुराकर कहा।

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