पासवान ने जगतसिंह के हाथ से निकल जाने की बात सुनी तो उसका क्रोध ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा। वह तो जगतसिंह को प्रताड़ित, अपमानित और दण्डित करने के जाने क्या-क्या उपाय सोचे बैठी थी। अपने समधी प्रतापसिंह की हत्या का बदला लेने की अपनी शपथ को वह सबके सामने प्रकट और प्रचारित करती रही थी। अब वह सरदारों, मुत्सद्दियों, कारभारियों और दास-दासियों को क्या मुँह दिखायेगी! महाराजा की राणियाँ तो पासवान की ओर ऐसी विचित्र दृष्टि से देखकर मुस्कुरायेंगी कि पासवान का कलेजा छलनी हो जायेगा।
जब से पासवान ने दरबारी राजनीति में सक्रिय भाग लेना आरम्भ किया था तब से उसके स्वभाव में पुरुषों की सी कठोरता आने लगी थी। उसका पहले का सुकमोल शांत स्वभाव तो बहुत पीछे छूट चुका था। अब वह सत्ता के शिखर पर बैठकर राजनीति की चतुर खिलाड़ी बन चुकी थी। आदेशों की अवहेलना और असफलता के समाचार उसे विषदंश की भाँति असह्य प्रतीत होते थे। क्रोध में भरकर वह गालियाँ देने लगती थी। गालियाँ भी ऐसी जिन्हें सुनकर हर कोई हैरान रह जाता था। स्वयं मरुधरानाथ उसके स्वभाव में आये इस परिवर्तन को देखकर हैरान था।
पासवान को लगा कि ठाकुर जगतसिंह को भागने का अवसर देने के पीछे की सारी कारगुजारी भीमराज सिंघवी की है। वह बेसब्री से उसके आने की प्रतीक्षा करने लगी। कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद अंततः दोनों सिंघवी जोधपुर पहुँचकर महाराज को मुजरा करने के लिये हाजिर हुए। उनका साहस न हुआ कि पासवान की ओर आँख उठाकर देख सकें। पासवान ने क्रुद्ध नागिन की तरह सिंघवियों की ओर देखा और गुस्से से मुँह फेर लिया। मरुधरानाथ ने एक उदसीन दृष्टि सिंघवी भीमराज और जोरावरमल पर डाली और फिर नेत्र मूंद कर बैठ गया, मानो ईश्वर का ध्यान कर रहा हो। ऐसे अवसरों पर अब वह यही करता था, यह बात पासवान भी जानती थी और महाराजा के मुँह लगे मुत्सद्दी भी। कोई कुछ न बोला।
काफी देर की चुप्पी के बाद गोवर्धन खीची ने सिंघवियों से पूछा- ‘ठाकर कैसे भाग गया?’ उसकी आवाज में कोई उत्तेजना नहीं थी। साफ लग रहा था कि चूंकि सवाल पूछना है, इसलिये पूछा जा रहा है, पूछने वाले को उत्तर प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं है। फिर भी खीची का सीधा सवाल सुनकर सिंघवियों के मुँह सफेद पड़ गये। वे धरती पर दृष्टि गड़ाये हुए चुपचाप खड़े रहे।
-‘आप जानते हैं कि आपकी चुप्पी का अर्थ क्या लग सकता है?’ खीची ने फिर पूछा।
-‘हमारी स्वामीभक्ति पर कोई दोष नहीं लगाया जाये, ईश्वर हमारा साक्षी है।’ भीमराज सिंघवी ने जवाब दिया।
-‘आपकी स्वामीभक्ति पर कोई संदेह नहीं किंतु आपकी योग्यता पर तो संदेह कर लें।’ पासवान ने बड़े तीखे शब्दों में पूछा। यह ऐसा सवाल था, जिसका उत्तर किसी को नहीं चाहिये था, यहाँ तक कि पासवान को भी नहीं। पासवान को तो वैसे भी कोई उत्तर नहीं चाहिये था। उसका बस चलता तो सिंघवियों को गढ़ में घुसने ही नहीं देती। गढ़ के बाहर ही हाथी से कुचलवा देती। कितने बेशर्म हैं ये आदमी! पासवान के शत्रु को जीवित ही भाग जाने का अवसर देने के बाद अपना मुँह दिखाने के लिये गढ़ में चले आये हैं! पासवान के पास अपना क्रोध व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं थे।
जब वह स्वयं ही अपने क्रोध को सहन नहीं कर सकी तो उत्तेजित होकर प्रलाप करने लगी-‘आपकी स्वामीभक्ति पर तो संदेह किया ही नहीं जा सकता, चाहे पूरा जोधाणा लुट जाये! आपकी योग्यता पर भी कौन सवाल खड़ा कर सकता है, भले ही मराठे आकर मारवाड़ को पूरा का पूरा क्यों न खा जायें। आपकी स्वामीभक्ति और योग्यता के भरोसे ही तो मारवाड़नाथ यहाँ गढ़ में चैन से विराज रहे हैं? नमक हराम और अयोग्य तो हम हैं जो आपको राज के काम से भेजते हैं।’
-‘पासवानजी का गुस्सा वाजिब है, अपनी चूक के लिये मैं माफी चाहता हूँ।’ जोरावरमल ने हाथ जोड़कर अनुनय की।
-‘बिल्कुल कायदे की बात है। जब आप माफी मांगें तो दरबार को चाहिये कि आपको माफ कर दें। दरबार को कोई अधिकार नहीं कि आपकी और आपकी औलादों की खाल खिंचवाकर उनमें नमक भरवा दें।’
पासवान के मुँह से ऐसी विषबुझी बातें निकलते देखकर सिंघवियों के पैरों के नीचे की धरती खिसक गई। उन्हें लगा कि पासवान उन्हें जो सजा देने वाली है, यह उसकी पूर्व सूचना है। उन्होंने कातर दृष्टि से गोवर्धन खीची की ओर देखा। खीची बिल्कुल निस्पृह भाव से खड़ा था। ऐसा लगता था कि उसे इस पूरे प्रकरण से कोई लेना-देना नहीं है।
-‘आप दोनों की खाल में नमक भरवाकर तो राज का नुक्सान ही होगा! नमकहरामों पर और नमक बरबाद नहीं करना चाहिये, उन्हें तो काटकर कुत्तों के सामने डाल देना चाहिये।’ पासवान का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। पासवान की इस शब्दावली से मरुधरपति भी चौंका किंतु उसने अपने नेत्र नहीं खोले, उसकी समाधि जारी रही।
सिंघवी को कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या किया जाये। उसी समय मरुधरानाथ ने अपनी समाधि तोड़ी और गंभीर स्वर में बोला-‘सिंघवीजी! आपको छः महीने का समय दिया जाता है, जाइये और ठाकर को लाकर हमारी ड्यौढ़ी पर हाजिर कीजिये। जब तक ठाकर नहीं मिले, आपको यहाँ गढ़ में हाजिर रहने से छूट रहेगी।’
अपने मुत्सद्दियों में भीमराज सिंघवी, मरुधरानाथ की पहली पसंद रहा था। संकट की हर घड़ी में उसने मरुधरानाथ का बहुत साथ दिया था। मरुधरानाथ को अच्छा नहीं लग रहा था कि कोई उसके समक्ष सिंघवी का अपमान करे। यदि गुलाब के अतिरिक्त और किसी ने यह दुस्साहस किया होता तो मरुधरपति उसकी खाल खिंचवा लेता किंतु गुलाब के समक्ष वह कुछ नहीं बोल पाया। इन दिनों गुलाब जाने क्यों खीझी हुई सी रहती थी, महाराजा किसी भी कीमत पर उसका हृदय नहीं दुखाना चाहता था। फिर भी सिंघवी को गुलाब के कोप से बचाना आवश्यक था।
मरुधरानाथ की बात सुनकर सिंघवियों की जान में जान आई। वे मरुधरानाथ को शीघ्रता से मुजरा करके ऐसे भागे कि जब तक गढ़ की सबसे आखिरी पोल से बाहर नहीं निकल गये, उन्होंने पीछे मुड़कर न देखा। पासवान महाराजा की इस उदारता से भीतर ही भीतर कसमसा कर रह गई। प्रकट रूप में कुछ नहीं कह सकी किंतु भीतर ही भीतर उसने निश्चय कर लिया कि समय आने पर वह सिंघवियों से निबटेगी अवश्य।
उधर जब सिंघवियों को लगा कि उसकी जान बच गई और महाराज ने जानबूझ कर उन्हें निकल भागने का अवसर दिया, तब उनके मन का बल फिर से लौटने लगा। भरे दरबार में हुए अपमान के कारण भीमराज सिंघवी को पूरी रात नींद नहीं आई। जब आकाश में तड़का हुआ और चिड़ियाएँ चहचहाने लगीं, तब उसने मन ही मन प्रण लिया कि यदि अवसर मिला तो वह पासवान से अपने अपमान का बदला अवश्य लेगा।