जनवरी 1786 में महादजी सिंधिया जयपुर पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से डीग तक चला आया। इस पर कच्छवाहा राजा प्रतापसिंह ने मरुधरानाथ से सैन्य सहायता भेजने का अनुरोध किया। स्वयं गुलाब भी अनेक अवसरों पर महाराजा को सलाह दे चुकी थी कि मराठों को सबक सिखाकर पुरानी पराजय का हिसाब चुकता करना चाहिये। इन दोनों कारणों से भी बड़ा कारण यह था कि अजमेर और गढ़ बीठली आज भी महाराजा के चित्त से उतरे नहीं थे। वह उन्हें फिर से प्राप्त करने के लिये एक दांव लगाकर भाग्य आजमाना चाहता था। इसलिये मरुधरानाथ ने अपनी सेना जयपुर भेजने का निश्चय किया।
मरुधरानाथ ने अपनी सेना जयपुर भेजने से पहले जोधपुर दुर्ग सहित मारवाड़ के जालौर एवं नागौर आदि अन्य प्रमुख दुर्गों को सुदृढ़ करना और राठौड़ सैनिकों की एक बड़ी सेना बनाना आवश्यक समझा। क्योंकि अब तक वह मराठों की रणनीति को अच्छी तरह समझ चुका था। वे कभी भी एक मोर्चे पर नहीं लड़ते थे। जैसे ही कोई राजा अपनी सेना लेकर उनके मुकाबले के लिये आता था, मराठों की दूसरी सेना उस राजा की राजधानी अथवा प्रमुख नगरों एवं दुर्गों को घेर कर खड़ी हो जाती थी। लगभग तीस साल पहले मरुधरानाथ स्वयं भी इस कड़वे अनुभव से गुजर चुका था।
जब महाराजा ने दूसरी सेना खड़ी करने का काम आरंभ किया तो उसने जोधपुर में निवास कर रहे मराठा प्रतिनिधियों कृष्णाजी जगन्नाथ और रामराव सदाशिव पर जोधपुर में स्वतंत्र विचरण करने पर रोक लगा दी ताकि उन्हें जोधपुर में हो रही गतिविधियों की सूचना नहीं मिल सके और वे मराठा सरदारों तक यहाँ की गतिविधियों की सूचनाएँ नहीं भिजवा सकें। इसके बाद महाराजा ने जोधपुर दुर्ग की मरम्मत का कार्य आरंभ किया और दुर्ग में सैनिकों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से राठौड़ सरदारों को भी बुलावा भेजा।
इन सारे उपायों से भी मरुधरानाथ संतुष्ट नहीं हुआ। उसे महादजी के विरुद्ध एक प्रबल मित्र की सहायता की आवश्यकता थी। ऐसा मित्र जो मराठों का पहले से ही शत्रु हो। उसकी दृष्टि ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर पड़ी। इन दिनों ईस्ट इण्डिया कम्पनी मराठों के विरुद्ध प्रबल शक्ति के रूप में उभर रही थी। इसलिये मरुधरानाथ ने कच्छवाहा राजा प्रतापसिंह से सलाह करके जून 1786 में अपने वकील को कम्पनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स से सहायता मांगने के लिये भेजा। मरुधरानाथ के कहने से महराजा प्रतापसिंह ने भी अपना एक वकील लॉर्ड हेस्टिंग्स के पास भेज दिया और मराठों के विरुद्ध सहायता मांगी। अंग्रेजों ने मराठों से सालबाई की संधि कर ली थी इसलिये हेस्टिंग्स ने राजपूताना राज्यों की ओर से आये संधि के प्रस्तावों की ओर ध्यान नहीं दिया और मरुधरानाथ का यह दाँव खाली चला गया।
मरुधरानाथ ने बख्शी भीमराज सिंघवी को एक नयी राठौड़ सेना भर्ती करने का आदेश दिया। बख्शी भीमराज सिंघवी नये सैनिकों की भर्ती के लिये मेड़ता में शिविर लगाकर बैठ गया। मार्च का महीना आते-आते उसके पास अच्छी खासी सेना एकत्रित हो गई। इस बीच महादजी डीग से आगे बढ़कर लालसोट तक चला आया। ठीक इसी समय जोधपुर, जालौर एवं नागौर दुर्गों की मरम्मत का काम भी पूरा हो गया किंतु तब तक जयपुर नरेश ने अपने दीवान खुशालीराम बोहरा के कहने पर मराठों को तिरेसठ लाख रुपया देना स्वीकार करके महादजी से संधि कर ली और उसे ग्यारह लाख रुपये हाथों हाथ चुका भी दिये। 4 जून 1786 को महादजी ये रुपये लेकर लालसोट से दिल्ली के लिये रवाना हो गया।
जब राठौड़ों ने देखा कि पंछी दाना चुगकर उड़ने की तैयारी में है, तो उन्होंने पंछी को बीच आकाश में घेरने की योजना बनाई। मरुधरपति के पास इस समय अच्छी सेना तैयार थी, राज्य में भी शांति थी इसलिये वह महादजी से दो-दो हाथ करने और बीठली गढ़ छीनने का अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। इसलिये मरुधरपति ने जयपुर नरेश के समक्ष प्रस्ताव भिजवाया कि मराठों को दिये जाने से शेष बचे बावन लाख रुपये मराठों को देने के स्थान पर यदि कच्छवाहा नरेश, राठौड़ों को युद्ध का खर्चा दे दे तो राठौड़ अकेले ही महादजी सिन्धिया को कुचलने का पराक्रम दिखा सकते हैं। जयपुर का दीवान खुशालीराम बोहरा इस प्रस्ताव का विरोध करने लगा क्योंकि वह महादजी का मित्र था और महादजी ने उस पर कई उपकार कर रखे थे। इसलिये वह किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि जयपुर महादजी से हुई संधि को तोड़ ले। खुशालीराम के विरोध के उपरांत भी महाराजा विजयसिंह अपने आदमियों के माध्यम से महाराजा प्रतापसिंह को सहमत करने का प्रयास करता रहा।
इस प्रकार कच्छवाहों और राठौड़ों में वार्त्तालाप होते हुए छः माह बीत गये और अगला साल आरंभ हो गया। नये साल के आरंभ में महाराजा प्रतापसिंह ने खुशालीराम बोहरा को पदच्युत करके उसके स्थान पर दौलतराम हल्दिया को अपना दीवान बनाया। मराठों से उसकी पुरानी दुश्मनी थी इसलिये उसने महाराजा प्रतापसिंह को सलाह दी कि राठौड़ों की सहायता की जाये और मराठों से रार ठान ली जाये। अब तक जयपुर और जोधपुर में हो रही गतिविधियों के समाचार महादजी को लग गये। वह मार्च 1787 में दिल्ली से रवाना होकर फिर से डीग आ गया।
इस पर राठौड़ों की सेना भी मेड़ता से सांभर के लिये रवाना हो गई। जब तक राठौड़ सांभर पहुँचते, महादजी दौसा तक आ धमका। इस प्रकार एक ओर से मराठे और दूसरी ओर से राठौड़ जयपुर की तरफ बढ़ने लगे। राठौड़ों की प्रबलता देखकर महादजी ने जोधपुर के वकील जीवराज पुरोहित के माध्यम से महाराजा विजयसिंह के पास संदेश भिजवाया कि यदि वह इस समय कच्छवाहों का साथ न दे तो जोधपुर राज्य से ली जाने वाली खण्डणी माफ कर दी जायेगी। मरुधरपति ने महादजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। महाराजा को खण्डणी की माफी नहीं चाहिये थी, उसके मन में तो बीठली का गढ़ हिलोरें मार रहा था किंतु वह प्रकट रूप में यह बात किसी से कहता नहीं था।
जब महाराजा विजयसिंह से संधि की सारी आशायें समाप्त हो गईं तो महादजी दौसा से रवाना होकर सांगानेर के निकट आ गया। उसका सेनापति रायाजी पाटिल अपनी सेना के साथ पहले से ही सांगानेर में बैठा था। इधर भीमराज सिंघवी राठौड़ों की सेना को जोबनेर तक ले आया। इस पर महादजी ने महाराजा प्रतापसिंह से संधि की बात चलाई और प्रस्ताव भेजा कि यदि प्रतापसिंह बावन लाख रुपयों के स्थान पर तेबीस लाख रुपये ही दे दे तो मराठे वापस चले जायेंगे। प्रतापसिंह अब तक यह समझ चुका था कि इस बार राठौड़ भारी हैं और महादजी की हालत पतली है इसलिये उसने महादजी को संदेश भिजवाया कि यदि चार लाख रुपये लेना चाहते हो तो मैं विचार कर सकता हूँ।
महादजी बावन लाख रुपयों को चार लाख रुपयों में बदलते हुए देखकर क्रोध से तिलमिला गया। वह समझ गया कि युद्ध हुए बिना नहीं रहेगा। प्रतापसिंह तब तक बीस हजार कच्छवाहे एकत्रित कर चुका था। महादजी अपनी सेना को सांगानेर तक ले तो आया किंतु उसे आगे का रास्ता नहीं सूझा। राठौड़ों के मौजूद रहते जयपुर नगर में घुसकर लड़ना साक्षात् मौत के मुख में प्रवेश करने जैसा था। उधर राठौड़ सेनापति जोबनेर से आगे बढ़कर जयपुर नगर तक आ गया। यह सूचना पाकर महादजी की हालत और पतली हो गई। अब वह सांगानेर में भी नहीं रह सकता था इसलिये उसने वापस मुड़कर लालसोट जाने का निर्णय लिया।
जब से मुगल बादशाह शाहआलम ने महादजी सिन्धिया को अपना वकील ए मुत्तलक नियुक्त किया था, तब से उसके साथ मुगलों की काफी सेना रहती थी। मुगल सेना के लिये महादजी अब तक अजेय सेनापति रहा था किंतु यह पहली बार हो रहा था कि महादजी बिना लड़े ही सांगानेर से लालसोट के लिये मुड़ गया था। इसलिये मुगलों के दिल दहल गये। उनमें से बहुत से सिपाहियों ने रात के अंधेरे में महादजी का शिविर त्याग दिया और जयपुर पहुँचकर कच्छवाहों की सेना में भर्ती हो गये।
महादजी को सांगानेर से निकलकर लालसोट जाते हुए देखकर राठौड़ों को चिंता हुई। उन्हें लगा कि पंछी कहीं उड़ ही नहीं जाये। इसलिये बख्शी भीमराज सिंघवी तेजी से लालसोट की तरफ दौड़ा। जब महादजी ने सुना कि राठौड़ दौड़े चले आ रहे हैं तो वह भी तेज भागने लगा और बूंदी राज्य की सीमा पर बनास नदी के किनारे सारसोप तक पहुँच गया। जब कछवाहों ने मराठों और राठौड़ों के बीच हो रही इस भागमभाग के समाचार सुने तो उनके लिये भी जयपुर में बैठे रहना कठिन हो गया। वे भी अपनी तोपें और तलवारें लेकर मराठों के पीछे दौड़ पड़े और कागलिया होते हुए माधोगढ़ तक जा पहुँचे।
जब मुहम्मद बेग हमदानी ने सुना कि इस बार राजपूतों ने महादजी को दौड़ा दिया तब वह भी राजपूतों की सहायता के लिये आ जुटा। अब मराठे आगे-आगे थे। पंद्रह हजार राठौड़ घुड़सवार, चार हजार मीणा और पाँच हजार नागा एवं दादूपंथी साधुओं की सेना लेकर भीमराज सिंघवी उसके पीछे था। एक तरफ से बीस हजार कच्छवाहे आगे बढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ से चार हजार खूंखार, अर्धसभ्य एवं लुटेरे मुगल सैनिक मराठों को घेर रहे थे।
महादजी को दिखाई देने लगा कि राजपूत उसे बचकर नहीं जाने देंगे। युद्ध तो उसे करना ही होगा। अंग्रेज सेनापति मेजर एण्डरसन ने उसे सलाह दी कि इससे पहले कि राजपूत किसी तंग स्थान पर उसे घेर कर मारें, वह स्वयं अपने लिये एक बेहतर युद्ध स्थल का चयन करके खड़ा हो जाये। इस पर महादजी ने बुंदेलखण्ड से अप्पा खाण्डेराव हरि को तथा दोआब से अम्बाजी इंगले को पत्र लिखकर सहायता के लिये आने को कहा और स्वयं एक बार फिर लालसोट की तरफ मुड़ गया ताकि अपनी सेनाओं को तुंगा के मैदान में जमाकर खड़ी कर सके।
जब महादजी अपनी सेनाएँ लेकर तुंगा की ओर रवाना हुआ तब मीणा लुटेरों ने पहाड़ियों से निकलकर महादजी की सेना के बैल, घोड़े और रसद लूटने का काम आरंभ कर दिया। महादजी इन लुटेरों से परेशान हो गया। इस लूटमार से उसकी सेना में अव्यवस्था होने लगी। फिर भी महादजी लड़ाई आरंभ करने की शीघ्रता में नहीं था। उसे विश्वास था कि अविश्वसनीय हमदानी किसी भी दिन राजपूतों का साथ छोड़कर चल देगा तथा राजपूत सैनिक भी वर्षा आरंभ होते ही खेती के लिये अपने घरों को भाग लेंगे। जून के अंतिम सप्ताह में अप्पा खण्डेराव तीन हजार मराठों को लेकर आ गया। फ्रांसिसी सेनापति डी बोइने की भी दो पलटनें आ पहुँची। समथर का राजा राजधर गूजर भी अपनी सेना लेकर आ गया। इस प्रकार महादजी का पलड़ा पहले जितना कमजोर नहीं रहा।
इस पर भी दोनों पक्षों ने युद्ध की पहल नहीं की। दोनों पक्ष अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके एक दूसरे को डराने का काम करते रहे। वे सशस्त्र सैनिक टुकड़ियों को एक दूसरे के शिविरों के समक्ष घुमाते, एक दूसरे की अन्न और घास की गाड़ियाँ लूट लेते और अवसर मिलने पर एक दूसरे के पशु छीन लेते। इस बीच कच्छवाहों और हमदानी के बीच मतभेद उभरने लगे। वे युद्ध से पहले ही तय कर लेना चाहते थे कि यदि जीत हुई तो किसे क्या मिलेगा! दोनों ही पक्ष अधिक लाभ लेने की बात करते थे जिससे उनमें मनमुटाव हो गया। अभी यह मनमुटाव चल ही रहा था कि 16 जुलाई को अम्बाजी इंगले भी दोआब से आकर महादजी से मिल गया। इस कारण कच्छवाहे और हमदानी युद्ध से लगभग उदासीन होते चले गये और युद्ध का सारा दारोदम राठौड़ों पर आ गया। अब महादजी ने देर करना उचित नहीं समझा। 27 जुलाई को उसने बैलगाड़ियों में पाँच लाख रुपये भकर अपने सैनिकों में बंटवाये। मराठा सैनिक समझ गये कि कल युद्ध होगा।
28 जुलाई 1787 को लालसोट से तेबीस किलोमीटर दूर तुंगा के मैदान में दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई हुई। महादजी का सेनापति राणेखान पूरी तैयारी के साथ रण में उतरा। प्रातः होते ही उसने अपनी तोपों का मुँह राजपूतों की ओर खोल दिया। राठौड़ दो घण्टे तक मराठों के तोपखाने के समक्ष अविचल खड़े रहे उनके पास भी दूर तक मार करने वाली तोपें थीं, जिनका राठौड़ों ने सफलता पूर्वक उपयोग किया। इस तोपखाने के आगे राणेखान की तोपें नाकारा सिद्ध हुईं। दो घण्टे के भीषण युद्ध के बाद भीमराज सिंघवी ने जमातिया साधुओं की सेना को आदेश दिया कि वे मराठों से तोपखाना छीन लें।
इस आदेश के बाद जमातिया साधु मराठा तोपखाने की ओर बढ़े किंतु वे तोपखाने तक नहीं पहुँच सके। मराठे बड़ी बेरहमी से जमातिया साधुओं का सफाया करने लगे। तब शोभाचंद भण्डारी और गंगाराम भण्डारी चार हजार राजपूतों को लेकर इन साधुओं की रक्षा के लिये आगे बढ़े। इस पर मराठों की तोपें उन पर आग बरसाने लगीं किंतु राठौड़ सिपाही तोपों से बरस रही आग की परवाह किये बिना मराठों के तोपखाने पर चढ़ बैठे। थोड़ी देर की भयानक लड़ाई के बाद मराठों का तोपखाना शांत हो गया। तोपखाने के पीछे ही मराठों की नागा और मुगल पलटनें खड़ी हुई थीं। राठौड़ों ने उन्हें जा घेरा। राठौड़ों की भयानक तलवारों से बचने के लिये नागा साधु और मुगल सिपाही युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। तोपखाना शांत हो जाने के बाद युद्ध की नई चौसर बिछी। दोनों पक्षों की सेनाएं तलवारों से लड़ने के लिये एक दूसरे के बिल्कुल निकट आ गईं।
महादजी सिंधिया ने फ्रांसिसी सेनापति डी बोइन की प्रशिक्षित पैदल सेना को मोर्चा संभालने के आदेश दिये। मरुधरपति के राठौड़, बोयने के सैनिकों पर ऐसे टूट कर पड़े जैसे बाज चिड़ियों पर टूटते हैं। बोयने के सैनिक मार खाकर पीछे हटे। इस पलटन के युद्ध क्षेत्र से हटते ही अप्पा खण्डेराव हरि ने मोर्चा संभाला किंतु शीघ्र ही उसकी भी हालत पतली हो गई। यह देखकर राणेखान ने रायाजी पाटिल और अम्बाजी इंगले को अप्पा खण्डेराव हरि की सहायता के लिये आगे किया। राठौड़ों ने पाटिल और इंगले को भी तलवारों पर धर लिया। इस पर राणेखान ने मुर्तजा खां एवं गाजी खां को आगे किया। ये दोनों अपनी बिरादरी वालों के साथ पैदल ही रणक्षेत्र में उतरे और राठौड़ों द्वारा बुरी तरह पीट डाले गये।
आज के युद्ध में राठौड़ों के सिर पर रणचण्डी सवार थी। अपने प्राणों को युद्ध की देवी के चरणों में अर्पित करके वे मारवाड़ की समस्त पुरानी पराजयों का बदला ले रहे थे। वे दिन निकलने के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरे थे। कच्छवाहों की ओर से उन्हें कोई विशेष सहायता नहीं मिल रही थी। हमदानी भी केवल दिखावे के लिये युद्ध क्षेत्र में टिका हुआ था। इस कारण युद्ध क्षेत्र में चारों ओर राठौड़ वीर ही तलवार घुमाते हुए दिखाई देते थे। प्राची का पथिक आकाश के मध्य से होता हुआ अब पश्चिम की ओर झुकने लगा था। दिन भर के भूखे-प्यासे और थके हुए राठौड़ों की हलक में दो बूंद पानी भी नहीं पहुँचा था। फिर भी वे सिर पर कफन बांध कर लड़ रहे थे और लड़ते ही जा रहे थे। प्यास के मारे कण्ठ में कांटे उग आये थे। सारे दिन तलवार घुमाने से हाथों में छाले पड़ गये थे और शरीर पर लगे घावों से रक्त रिस रहा था।
इस भीषण रक्तपात को देखकर भगवान भुवन भास्कर इतने व्यथित हुए कि आगे का युद्ध अपनी आँखों से देखने की इच्छा त्यागकर उन्होंने लालसोट की पहाड़ियों में जाकर छिपने का उपक्रम किया। ठीक उसी समय पाँच हजार मराठों की सुरक्षित सेना ने इन थके हुए राठौड़ों पर धावा बोला। राठौड़ सारे दिन के थके हुए थे, मराठों की यह सुरक्षित सेना दिन भर अपने डेरों में आराम करती रही थी और अब सज-धज कर तोपों के साथ युद्ध के मैदान में उतरी थी। इस नवीन सेना को देखकर राठौड़ तुरंत दो फाड़ में विभक्त हो गये ताकि इस सेना को घेर कर मारा जा सके किंतु भूखे-प्यासे और थके हुए राठौड़ों में इतनी शक्ति शेष नहीं रही थी कि इन मराठों का मुकाबला कर सकें। अंधेरा भी होने लगा था। इसलिये राठौड़ों ने मैदान से पीछे खिसकना आरंभ किया। मराठे उन्हें बुरी तरह मौत के घाट उतारने लगे।
दिन भर के विजयी रहे राठौड़ों की संध्याकाल में हो रही बरबादी से हमदानी का पत्थर दिल भी पिघल गया। वह हाथी पर बैठकर सामने आया और अपने तोपखाने का संचालन करता हुआ मराठों की ओर बढ़ने लगा। इससे पहले कि वह राठौड़ों की कुछ भी सहायता कर पाता, मराठों की ओर से आये तोप के गोले ने उसका काम तमाम कर दिया। हमदानी के शहीद होने पर भी कच्छवाहे पूरी तरह युद्ध से निस्पृह बने रहे। मराठों ने पीछे खिसकती हुई राठौड़ वाहिनी का दूर तक पीछा किया और कई बड़े राठौड़ सरदारों को मार डाला। जब जीवित बचे राठौड़ सिपाही किसी तरह जान बचाकर अपने डेरों तक पहुँचे तब कच्छवाहों की मूक सेना ने अपनी आँखें नीची कर लीं। वीर राठौड़ों की क्रोध से रक्तिम आँखों का सामना करने का साहस कच्छवाहों में नहीं था।
उधर रात होने पर महादजी ने घायलों के उपचार की व्यवस्था करवाई तथा सैनिकों की हिम्मत बढ़ाने के लिये पाँच ऊँटों पर रुपये लदवाकर बंटवाये। अगले दिन जब मराठे मैदान में उतरे तो उनकी तरफ के मुगल सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र में जाने से मना कर दिया। बहुत से मराठा सैनिक भी अपना बकाया वेतन मांगने लगे। महादजी सैनिकों में काफी रुपया बांट चुका था। उसके पास इस समय सैनिकों का बकाया वेतन चुकाने का पैसा नहीं था। इसलिये उसने स्पष्ट कह दिया कि इस समय तो फूटी कौड़ी नहीं मिल सकेगी। तुम चाहो तो शिविर छोड़कर भाग जाओ किंतु यह सोच लेना कि भागते हुए मराठों को राठौड़ उसी तरह काट-काट कर मारेंगे जिस तरह आज से छब्बीस साल पहले अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के मैदान में एक लाख मराठों को काट डाला था। महादजी की बात सुनकर मराठा सैनिक युद्ध के मैदान में जाकर खड़े तो हो गये किंतु उन्होंने निर्णय किया कि जब तक राठौड़ उन पर आक्रमण नहीं करेंगे तब तक वे भी आगे बढ़कर हमला नहीं बोलेंगे।
उधर मराठों में परस्पर कलह मची हुई थी और इधर दिन निकलते ही राठौड़ों की सेना अपना तोपखाना लेकर नगाड़ा बजाती हुई युद्ध के मैदान में आ डटी। जब राठौड़ मराठों के काफी निकट चले आये फिर भी मराठों की ओर से न तो तोपें चलीं और न कोई हलचल हुई तो राठौड़ भी शांत होकर खड़े हो गये। पूरे दिन दोनों पक्षों की सेनाएँ इसी तरह खड़ी रहीं। इसी बीच समाचार आया कि सात हजार मुगलों का एक दस्ता मराठों का पक्ष त्यागकर मारेल नदी के उस पार चला गया। हमदानी के भतीजे इस्माईल बेग ने इन सात हजार मुगल सैनिकों का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया और उसी समय उनमें तीस हजार रुपये बंटवा दिये।
यहएक विचित्र स्थिति थी कि मुगल बादशाह ने महादजी सिंधिया को अपना वकील ए मुत्तलक नियुक्त कर रखा था तथा जयपुर से पुराने कर की बकाया राशि की वसूली का जिम्मा सौंपा था। साथ ही इस्माईल बेग को रेवाड़ी तथा नारनौल का फौजदार नियुक्त कर रखा था किंतु महादजी और इस्माईल बेग तुंगा के मैदान में एक दूसरे के विरुद्ध खड़े थे। सात हजार मुगल सैनिकों के इस्माईल बेग के साथ जा मिलने से महादजी की हालत दयनीय हो गई। अगली रात को तड़का होने से तीन घण्टे पहले वह अपने खेमे उखड़वाकर डीग की ओर भाग चला।
महादजी भागता चला जा रहा था और इस युद्ध में हुए नुक्सान का हिसाब लगाता जा रहा था। उसके एक हजार मराठा सैनिक मारे जा चुके थे। कई बड़े मराठा सरदार भी मौत के घाट उतार दिये गये थे। राठौड़ों ने मराठों के ढाई सौ घोड़े लूट लिये थे जबकि राठौड़ों की ओर से केवल पाँच सौ घुड़सवार काम आये थे। भण्डारी शोभाचंद अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ रणखेत रहा और हमदानी भी मारा गया। दोनों ही पक्षों में इतने बड़े विनाश के बाद भी हार-जीत का निर्णय नहीं हो सका था।
राठौड़ों ने रणक्षेत्र से पीछे हटते हुए महादजी सिन्धिया की सेना का रामगढ़ तक पीछा किया किंतु उन्होंने न तो महादजी की सेना के डेरे लूटने का प्रयास किया न उन पर आक्रमण किया। फिर भी जाने क्यों महादजी को भय सताता रहा कि कहीं तुंगा की लड़ाई एक बार फिर पानीपत की लड़ाई सिद्ध न हो जिसमें अहमदशाह अब्दाली ने एक लाख मराठे मार डाले थे। यही कारण था कि तुंगा से डीग तक की एक महीने की यात्रा उसने केवल सात दिन में पूरी कर ली।
जब महादजी जयपुर से डीग होता हुए आगरा लौट गया तब मरुधरपति ने राहत की सांस ली। उसने तुंगा युद्ध को राठौड़ों की महान विजय बताया तथा जोधपुर राज्य में रह रहे पेशवा के प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस के वकील कृष्णाजी जगन्नाथ को दरबार में बुलाकर कहा-‘हमारी यह धारणा है कि तुर्कों के राज्य से हिन्दुओं का राज्य बहुत अच्छा है। श्रीमंत पेशवा का राज्य भी बहुत अच्छा है, मामलत का चुकारा हम करेंगे। इसमें आप संशय न रखें किंतु जब राज्य ही विनष्ट होने लगा तो हमें युद्ध में महादजी सिन्धिया का सामना करना पड़ा। पेशवा, महादजी के स्वामी हैं। इसलिये वे महादजी को समझायें कि जब मामलत लेने का निश्चय हो तो उसे लेकर अन्यत्र प्रस्थान करें। प्रारंभ से ही हम उत्तर भारत की भूमि के स्वामी हैं। पहले जब बादशाह शक्तिशाली था तब भी हमने इस तरह के प्रयत्नों से अपनी जमीन की रक्षा की है।’
मरुधरानाथ ने तुकोजी राव होलकर को पत्र लिख कर सलाह दी कि वे महादजी सिन्धिया का साथ न दें। तुकोजी भी समझ गया कि महाराजा इस समय काफी शक्तिशाली हो चुका है और उसने अपनी शक्ति को युद्ध के मैदान में सिद्ध किया है। उससे तत्काल निबटना सरल नहीं है। इसलिये तुकोजी ने पत्र लिखकर महाराजा को सलाह दी कि वे सिन्धिया के साथ अपना झगड़ा समाप्त कर लें।
तुंगा के युद्ध में महाराजा विजयसिंह ने जयपुर नरेश की सहायता के लिये भाग लिया था किंतु युद्ध से निस्पृह रहने के कारण जयपुर नरेश प्रतापसिंह तो कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सका किंतु महाराजा ने अपना एक अधूरा सपना पूरा कर लिया। उसने तुंगा के मैदान से महादजी के हटते ही धनराज सिंघवी को सेना देकर अजमेर के लिये रवाना किया। धनराज सिंघवी ने बड़ी सरलता से अजमेर नगर पर अधिकार कर लिया और गढ़ बीठली को घेर लिया। मराठा किलेदार शेरखान ने महादजी सिंधिया, अम्बाजी इंगले और अन्य मराठा सरदारों से सहायता मांगी किंतु उसे कोई सहायता नहीं मिल सकी। इसलिये शेरखान ने जहर खाकर आत्मघात कर लिया और 24 दिसम्बर 1787 के दिन बीठली गढ़ पर धनराज सिंघवी का ध्वज फहराने लगा।
पाठक भूले नहीं होंगे कि महाराजा ने 1752 ईस्वी में अजमेर पर पहली बार अधिकार किया था किंतु 1756 में महादजी ने उसे अजमेर खाली करने पर विवश कर दिया था। यद्यपि तब से गढ़ बीठली एवं अजमेर नगर पर मराठों का अधिकार चला आ रहा था किंतु इस दौरान अजमेर नगर के अतिरिक्त पूरे अजमेर प्रांत पर महाराजा विजयसिंह का अधिकार था। पूरे 31 साल बाद एक बार फिर अजमेर नगर और बीठली गढ़ महाराजा की झोली में आ गिरे थे और महाराजा को इसके लिये कोई विशेष कीमत भी नहीं चुकानी पड़ी थी।