मरुधरानाथ ने महादजी सिंधिया को तुंगा के मैदान से मार तो भगाया किंतु वह अच्छी तरह जानता था कि यह राठौड़ों की अंतिम विजय नहीं थी। महादजी दुर्दान्त लड़ाका था और जिद्दी भी। वह अवश्य ही अपनी पराजय का बदला लेने के लिये लौटकर आयेगा। अजमेर और बीठली गढ़ को तो वह कदापि मरुधरानाथ के अधिकार में नहीं रहने देगा। इसलिये मरुधरानाथ तुंगा विजय के पश्चात् चुप होकर नहीं बैठा। उसने भविष्य में होने वाले युद्ध के लिये अभी से तैयारी करने की योजना बनाई। विगत बत्तीस सालों तक मराठों से लड़ते रहने के कारण मरुधरानाथ मराठों की शक्ति और रणनीति दोनों को अच्छी तरह समझ चुका था।
तुंगा में विजय का स्वाद चखने के बाद मरुधरानाथ हर समय मराठों को सदैव के लिये परास्त करने के उपाय सोचता रहता था। उसने भले ही महादजी सिन्धिया के वकील को बुलाकर मराठों के साथ हुई पूर्व संधि पर दृढ़ रहने का आश्वासन दिया था किंतु अब वह उत्तर भारत में महादजी को फूटी आँखों से भी नहीं देखना चाहता था। उसे विश्वास हो गया था कि मराठे अजेय नहीं हैं। उन्हें परास्त किया जा सकता है यदि त्रुटिरहित रणयोजना बनाई जाये और राजपूताना के बड़े राजा मिलकर मराठों का सामना करें। उसने सिन्धिया को कमजोर करने के लिये उसके शत्रुओं को बढ़ावा देने का विचार किया।
मरुधरानाथ यह भी जानता था कि इस बार सिन्धिया बड़ी सेना और बड़ी तैयारी के साथ आयेगा। इसलिये मरुधरानाथ ने अपने मित्रों की संख्या बढ़ाने का विचार किया। अपने संभावित मित्रों की सूची में उसने मराठों के शत्रुओं का नाम सबसे ऊपर लिखा। सबसे पहले उसने कोटा के वकील को अपने महल में बुलाकर बात की। कोटा के वकील ने मरुधरानाथ के निजी महल में उपस्थित हो, अभिवादन किया-‘मरुधरपति को इस अकिंचन् का प्रणाम ज्ञात हो।’
-‘आइये पण्डितजी, यहाँ विराजिये।’ महाराजा ने वकील को एक आसन पर बैठने का संकेत करते हुए कहा।
-‘मैं मरुधर नरेश की क्या सेवा कर सकता हूँ?’ वकील ने खड़े-खड़े ही उत्तर दिया।
-‘आपको हमारी बहुत सेवा करनी है पण्डितजी महाराज किंतु खड़े रहकर नहीं, आसन पर विराजमान होकर।’ महाराजा ने वकील के कंधे पर हाथ रखकर उसे बैठा दिया, ‘हमने सुना है कि आपके दीवान झाला जालिमसिंह ने पिण्डारी नेता कपूर खां और भीमू खां से दोस्ती करके उन्हें शेरगढ़ के दुर्ग में रहने की अनुमति प्रदान की है!’
-‘स्वामी अधिक जानते हैं, इस अंकिचन को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं।’ वकील ने महाराजा की बातों में कोई रुचि नहीं दर्शाते हुए संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
-‘राजदूत के लिये यह श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता कि वह अपने देश में होने वाली बड़ी घटनाओं से अनजान रहे।’ महाराजा ने हँसकर जवाब दिया। वे जानते थे कि कोटा का दीवान झाला जालिमसिंह इन दिनों जोधपुर राज्य में हो रही गतिविधियों से विशेष प्रसन्न नहीं है।
-‘स्वामी उचित कहते हैं किंतु सेवक का धर्म यह है कि वह अपने स्वामी के हित का चिंतन करते हुए केवल आज्ञा पालन में ही निरत रहे। कोटा राज्य के स्वामी क्या करते हैं, इसकी सूचना रखना और दूसरे राज्य के स्वामी को देना, सेवक-धर्म का उल्लंघन है महाराज।’ कोटा का वकील जैसे मन में ग्रंथि लगाकर आया था कि मरुधरानाथ की किसी बात का न तो समर्थन करना है और न सीधा उत्तर ही देना है।
-‘आपके विचार अत्यंत उच्च हैं, क्या ही अच्छा होता कि जोधपुर राज्य के पास भी कोटा राज्य की भाँति उत्तम सेवक होते।’ महाराजा को पण्डित वकील की बातों में आनंद आ रहा था।
-‘मारवाड़ की धरती पर एक से बढ़कर एक सेवक हुआ है, यह वीरवर दुर्गादास और मुकुंददास खीची की जन्मभूमि है। अकिंचन उनके समक्ष कुछ भी नहीं।’
-‘आप हमारा एक संदेश अपने स्वामी झाला जालिमसिंह तक पहुंचा देंगे!’
-‘मेरे स्वामी झाला जालिमसिंह नहीं है महाराज, मैं महाराव उम्मेदसिंह का सेवक हूँ और कोटा राज्य के दीवान और फौजदार झाला जालिमसिंह भी उनके ही चाकर हैं।’
-‘अपने स्वामी के प्रति आपकी निष्ठा देखकर हम अत्यंत प्रभावित हैं पण्डितजी, आप कृपा करके हमारा संदेश कोटा के दीवान झाला जालिमसिंह तक पहुँचायें क्योंकि आपके दरबार अभी उम्र में छोटे हैं, उन्हें हमारा संदेश समझ में नहीं आयेगा।’
-‘आपके आदेश की पालना होगी महाराज!’
-‘आप झाला से कहिये कि राठौड़ों के राजा ने आपके इस दूरदर्शी कदम की सराहना की है कि आपने कपूर खाँ और भीमू खाँ पिण्डारियों को शेरगढ़ के दुर्ग में रहने की अनुमति प्रदान करके उन्हें कोटा राज्य का मित्र बनाया है। इससे एक तरफ कोटा राज्य को पिण्डारियों की समस्या से छुटकारा मिलेगा तो दूसरी तरफ वे पिण्डारियों की शक्ति को मराठों के विरुद्ध लगा सकेंगे।’
-‘जो आज्ञा महाराज।’ वकील ने महाराजा के संदेश को एक बही में लिख लिया।
-‘और यह भी लिखिये कि इस काल में जब सारा राजपूताना मराठों के द्वारा नोंचा, खसोटा और लूटा जा रहा है, बड़े-बड़े राजाओं के मुकुटों की चमक फीकी पड़ गई है, तब कोटा के दीवान झाला जालिमसिंह ही एक मात्र शक्ति बनकर खड़े हैं जो मराठों से कोटा की रक्षा सफलतापूर्वक कर रहे हैं।’
वकील ने इस संदेश को भी लिख लिया।
-‘और यह भी लिखिये कि मरुधरानाथ ने झाला जालिमसिंह के इस कदम की भी सराहना की है कि उन्होंने कोटा नरेश की ससुराल अर्थात् बेगूं को बचाने के लिये मराठों को छः लाख रुपये देने स्वीकार किये किंतु मेवाड़ के महाराणा के विरुद्ध तलवार उठाना उचित नहीं समझा। हम समझते हैं कि ऐसे दूरदर्शी फौजदार के रहते, समय आने पर मेवाड़, मारवाड़, आम्बेर और कोटा जैसी बड़ी रियासतों की सेनाएं मराठों को राजपूताने से मार भगाने के लिये एक साथ अभियान करेंगी।’
-‘जी महाराज!’ कोटा के वकील ने महाराजा का यह संदेश भी लिख लिया।
महाराजा संदेश लिखवाते समय, वकील के चेहरे को ध्यान से देख रहे थे ताकि उसके मनोभावों को पढ़कर कोटा राज्य के भावी रुख का कुछ पूर्वानुमान लगाया जा सके किंतु वकील इतने निर्विकार भाव से लिख रहा था कि महाराजा के लिये कुछ भी अनुमान लगाना संभव नहीं हुआ।
-‘हमारा संदेश पूरा हो चुका है पण्डितजी। आपकी क्या राय है?’ महाराजा ने सीधे ही प्रश्न कर लिया।
-‘सेवकों का धर्म है कि वे स्वामी के आदेश पर अपनी राय व्यक्त नहीं करें।’
-‘और यदि स्वामी चाहे तो भी नहीं?’ महाराजा ने किंचित् रुष्ट होकर कहा।
-‘यदि स्वामी सत्य सुनना चाहें तो अवश्य, अन्यथा कदापि नहीं।’
-‘हम आपके स्वामी तो नहीं किंतु आपके स्वामी के मित्र और हितचिंतक अवश्य हैं। हम सुनना चाहते हैं आपका सत्य।’
-‘यदि मरुधर नरेश सत्य सुनना चाहते हैं तो सुनें। सेवक क्षमा चाहते हुए कहना चाहता है कि यह समय उत्तरी भारत में बड़ी विपन्नता का है। मराठों की लूटमार से राजपरिवारों और जनसामान्य की दशा खराब है। इस समय राजपूताने को कूटनति और युद्धों की नहीं, अपितु शांति की आवश्यकता है। पहले ही सबका खूब नुक्सान हो चुका है, राजपूताने का और बुरा क्यों करते हैं?’ यह पहली बार था जब वकील ने मरुधरानाथ के समक्ष इतना लम्बा वाक्य बोला था।
वकील के ऐसे कठोर शब्द सुनकर मरुधरानाथ को क्रोध आ गया। वह तमक कर बोला-‘हमारे कारण किसका नुक्सान हुआ? किसका बुरा हुआ?’
-‘महाराणा अड़सी गोड़वाड़ के लिये तरसते हुए परलोकवासी हुए। राणा रतनसिंह और सिन्ध का साहबजादा शाहनवाज खाँ आज भी भूखों मर रहे हैं। किशनगढ़ के महाराजा बिड़दसिंह आपके कारण राज्य से विरक्त होकर वृंदावन जा बैठे और वहीं उनका निधन भी हुआ। करकेड़ी का राजा अमरसिंह और रूपनगढ़ का राजा प्रतापसिंह भी विशेष सुखी नहीं। इससे अधिक मैं क्या निवेदन करूं, इतना पर्याप्त है।’ कोटा के वकील ने विनम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर दिया और हाथ जोड़कर महल से बाहर हो गया।
मरुधरपति को लगा कि प्रथम ग्रासे मक्षिकापात हो गया। उन्होंने तुंगा विजय के बाद मराठों के विरुद्ध राजपूतना के राज्यों का संघ बनाने के लिये यह पहला प्रयास किया था जिसमें कोटा का वकील मक्षिकापात करके चला गया। मरुधरपति इस बात को समझता था कि राजपूताने के राजा इस बात का श्रेय कभी भी मरुधरानाथ को नहीं लेने दंेगे कि उसने राजपूताने के राजाओं को संगठित करके मराठों को उत्तर भारत के मैदानों से मार भगाया।