जब पेशवा का वकील कृष्णाजी जगन्नाथ पासवान के बुलाने पर भी बगीचे में उपस्थित नहीं हुआ तो गुलाब ने उसे ठिकाने लगाने का निश्चय किया। गुलाब की तरफ के जिन मुत्सद्दियों और ठाकुरों ने महाराजा को मराठों के विरुद्ध भड़काकर युद्ध का षड़यंत्र रचा था, वे पहले से ही कृष्णाजी से नाराज चल रहे थे क्योंकि कृष्णाजी ने ही मरुधरानाथ के समक्ष इस षड़यंत्र का भाण्डा फोड़ा था। इसलिये गुलाब का संकेत पाकर खींवसर के ठाकुर भौमसिंह, पासवान के मुख्तियार भैरजी साणी, प्रधान सवाईसिंह चाम्पावत और दीवान भवानीराम भण्डारी ने कृष्णाजी जगन्नाथ को हवेली में जान से मार डालने की योजना बनाई। जगन्नाथ को इस षड़यंत्र की भनक लग गई। उसे कुछ सूझा नहीं कि क्या किया जाये। वह राज्य छोड़कर चुपचाप भाग नहीं सकता था, क्योंकि ऐसी स्थिति में तो गुलाब और उसके साथियों के लिये कृष्णाजी को मार डालना और भी आसान हो जाता। किसी को कुछ पता नहीं लगता और कृष्णाजी की हत्या का आरोप भी गुलाब और उसके साथी ठाकुरों पर नहीं आता।
यह केवल और केवल मरुधरानाथ का दायित्व था कि मराठों का दूत होने के नाते कृष्णाजी जगन्नाथ जोधपुर राज्य में सुरक्षित रहे किंतु मरुधरानाथ तो स्वयं ही चारों ओर षड़यंत्रों से घिरा हुआ था। इसलिये उस पर भरोसा करना किसी तरह प्रयोजन को सिद्ध करने वाला नहीं था। फिर भी कृष्णाजी के पास इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था कि वह राजा के पास जाकर अपने प्राणों की सुरक्षा के लिये गुहार लगाये।
जब षड़यंत्र पर अमल करने की तिथि में केवल एक दिन शेष रह गया तब ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन कृष्णाजी मरुधरपति के दरबार में उपस्थित हुआ और जनेऊ हाथ में लेकर उच्च स्वर से बोला-‘मेरे बारे में यह जो योजना बनाई गई है, उसका क्या उपाय है….. मुझे जो गाँव दिया था, वह भी वापस लेंगे…… आपकी निष्ठापूर्वक की गई सेवा का यदि ऐसा परिणाम निकलता है तो नियति के आगे कोई उपाय नहीं है….. मैं श्रीमंत पेशवा का नौकर हूँ और निरपराध मारा जा रहा हूँ…… आपके पूछने पर मैंने वही कहा जो हितकर था…… इस तरह की घटनाएँ धर्माचरण और प्रतिष्ठा को घटा देती हैं…… जीव और शरीर दोनों ही ईश्वर के अधीन हैं। अब तो प्राणों पर बन आई है।’
मरुधरानाथ कृष्णाजी के टूटे-फूटे वाक्यों का सही अर्थ नहीं लगा सका। इसलिये बोला-‘पण्डितजी! आप निर्भय होकर बात कहें। किसी से घबराने की आवश्यकता नहीं है।’
-‘कल अर्थात् प्रतिपदा के दिन मुझसे दगा किया जाने वाला है।’
-‘कौन करेगा।’
-‘आपके राजपूत करेंगे। अब ये लोग एक ब्राह्मण की हत्या करने से भी नहीं डरते।’
-‘आप डरिये नहीं, सारे संदेह मन से निकाल दीजिये, आप इस राज्य में मराठों के दूत हैं। इसलिये अवध्य हैं। हर तरह से आपकी सुरक्षा की जायेगी।’
-‘क्षमा करें महाराज! आपके शब्दों का क्या विश्वास! यदि आपके प्रधान सवाईसिंह चाम्पावत और पासवानजी के मुख्तियार भैरजी साणी मुझे वचन दें तो मेरे मन को विश्वास हो।’
-‘यह एक विचित्र बात है। दूसरे देश का दूत एक राजा से कह रहा है कि वह अपने सेवकों से वचन दिलवाये!’
-‘आपके राज्य का ऐसा ही प्रताप है महाराज!’ जगन्नाथ ने चिढ़कर कहा।
महाराज ने सवाईसिंह और भैरजी को दरबार में उपस्थित होने का आदेश देकर ड्यौढ़ीदार को उनकी हवेलियों पर भेजा। ड्यौढ़ीदार तो उन्हें मरुधरानाथ का आदेश देकर वापस लौट आया किंतु वे दोनों काफी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी उपस्थित नहीं हुए। इस पर जगन्नाथ मरुधरानाथ को प्रणाम करके बाहर आ गया। वह समझ गया कि राजा के किये कुछ न होगा। सचमुच ही मेरे प्राणों पर बन आई है। अब मेरे प्राण बचाने के लिये यहाँ न तो महादजी सिंधिया आयेगा, न नाना साहब और न श्रीमंत पेशवा साहब। प्राण तो अब जाकर ही रहेंगे। यह सोचकर जगन्नाथ अपने जीवन से निराश होकर अपने डेरे पर चला गया।
अगले दिन प्रतिपदा थी। आज का ही दिन दगा के लिये निश्चित किया गया है, यह सोचकर कृष्णाजी जगन्नाथ विचलित होकर बड़े सेवेरे भैरजी साणी की हवेली के बाहर पहुँच गया और जो मन में आया, बकने लगा। भैरजी को सूचित किया गया कि कृष्णाजी आया है और बाहर खड़ा हुआ कटु वचन कह रहा है। भैरजी ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि उसे यहाँ से भगा दो। इस पर कृष्णाजी जोधपुर नगर के परकोटे के बाहर निकलकर रामेश्वरजी के मंदिर में चला गया। वहाँ जाकर उसने अपने बिस्तर जला दिये और पागल का वेश बनाकर मंदिर से बाहर निकला। दो कोस तक वह पैदल ही घूमता रहा। भारती के मठाधीश ने उसे इस प्रकार भटकते हुए देखा तो उसे कृष्णाजी पर बड़ी दया आई। उसने कृष्णाजी को ब्राह्मण जानकर उसे अपने मठ में आश्रय दिया।
उधर जब पासवान और भवानीराम भण्डारी को ज्ञात हुआ कि कृष्णाजी पागल होकर नगर में भटक रहा है तब उन्होंने दो सौ घुड़सवार उसके पीछे भेजे तथा आदेश दिया कि जहाँ कहीं भी पण्डित दिखाई दे, उसका काम तमाम कर दो। ड्यौढ़ीदार के माध्यम से मरुधरानाथ को भी गुलाब और भवानीराम भण्डारी की इस कार्यवाही की जानकारी हो गई। उसने भी अपनी खास ड्योढ़ी के दस आदमियों को ड्यौढ़ीदार खींवकरण के साथ मठ में भेज दिया और जगन्नाथ की सुरक्षा की व्यवस्था कर दी।
तीसरे प्रहर जब गुलाबराय और भवानीराम के सवार जगन्नाथ को ढूंढते हुए मठ में पहुँचे तब तक मरुधरानाथ की खास ड्यौढ़ी के सिपाही उसकी सुरक्षा के लिये तैनात हो चुके थे। पासवान के सिपाहियों की यह हिम्मत नहीं हुई कि वे महाराजा की खास ड्यौढ़ी के सिपाहियों पर हथियार उठा सकें। इसलिये वे वापस लौट गये। इस प्रकार बड़ी कठिनाई से वकील के प्राण बचे। कई दिनों तक मठ में रहने के बाद जगन्नाथ फिर से अपनी हवेली को लौट गया।