हरसौर डेगाना-पुष्कर मार्ग पर स्थित है। यह एक प्राचीन गांव है। इसका पुराना नाम हर्षपुर है। आज से सवा सौ वर्ष पहले इस गांव में महेश्वरियों के पांच सौ परिवार तथा ओसवालों के एक सौ तेरह परिवार रहते थे।
17वीं शताब्दी ईस्वी में रचित विनय विजय की कल्पसूत्र सुबोधिनी टीका, धर्मसागर की किरणावली टीका तथा उपाध्याय विनय विजय की सुबोधिका टीका आदि जैन ग्रंथों के अनुसार ईसा से एक शताब्दी पहले प्रियग्रंथ के समय में इस गांव में तीन सौ जैन मंदिर, चार सौ हवेलियां, आठ सौ ब्राह्मणों के घर, छत्तीस हजार बनियों के घर, नौ सौ उद्यान तथा वाटिकायें, नौ सौ कुएं तथा सात सौ घर दानशीलों के बने हुए थे। उस समय सुभटपाल नामक राजा हरसौर पर शासन करता था।
यह विवरण अतिश्योक्ति पूर्ण जान पड़ता है। इसमें दी गई तिथि, राजा का नाम तथा नगर का वर्णन तीनों ही विश्वास योग्य नहीं हैं। फिर भी जैन ग्रंथों में दिये गये वर्णन से इतना अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि यह नगर बहुत पुराना है तथा अपनी आरंभिक अवस्था में काफी समृद्ध रहा होगा।
स्थानीय किवंदन्तियों के अनुसार हंसा गूर्जर ने यह गांव बसाया तथा यहाँ पर देवजी का देवरा तथा गुजरी नाड़ी बनवाई। ईसा की नौंवी शताब्दी ईस्वी में हरसौर नगर के अस्तित्व में होने के प्रमाण मिलते हैं। शांकभरी और अजमेर के चौहानों के राज्य में यह गांव भी सम्मिलित था। चौहान शासकों के संरक्षण में हरसौर में जैन धर्म खूब फला फूला।
ईसा की 9वीं शताब्दी से भी पहले हरसौर में ब्रह्माजी का विशाल मंदिर बनवाया गया। इसके निर्माण में लाल पत्थर काम में लिया गया, जिस पर बारीक खुदाई की गई। इस मंदिर से ब्रह्मा, विष्णु और शिव की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ई.1182 का एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ है।
12वीं सदी के जैन मुनि सिद्धसेन सूरि ने सकलतीर्थ स्रोत में हरसौर का उल्लेख किया है। जैनियों के पार्श्वनाथ कुल की हर्षपुरिया गच्छ शाखा हरसौर से निकली है। इस शाखा के कुछ जैन मुनि बड़े प्रभावशाली थे तथा उनका प्रभाव समकालीन शासकों पर भी था।
इस गच्छ का उल्लेख ई.1498 के नागौर अभिलेख में भी हुआ है। हरसौर के वसी मौहल्ले में ओसवालों का पूर्वाभिमुखी मंदिर काफी पुराना है। इस मंदिर से ई.996 की एक जैन मूर्ति प्राप्त हुई है। इस मंदिर का काफी हिस्सा ईसा की 13वीं शताब्दी में बना।
ईसा की तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में यह गांव मुसलमानों के अधीन हो गया। नगर परकोटे के द्वार पर फारसी भाषा में दस पंक्तियों का एक शिलालेख लगा हुआ है जो तेरहवीं शताब्दी में इस नगर पर मुसलमानों के अधिकार की पुष्टि करता है।
इस स्थान से मनुष्यों की हड्डियों का बहुत बड़ा ढेर प्राप्त हुआ है इससे अनुमान किया जाता है कि इस गांव को अधिकार में लेने से पहले मुसलमानों ने भीषण रक्तपात किया। ई.1538 के एक शिलालेख में हरसौर के शासक अभयराव राठौड़ की मृत्यु का उल्लेख है।
यह लेख एक छतरी से प्राप्त हुआ है। इससे अनुमान होता है कि ईसा की 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हरसौर पुनः हिन्दुओं द्वारा छीन लिया गया। ई.1542 में राठौड़ कल्याणमल की रानी भटियानी खुल्हा ने ब्रह्माजी के मंदिर के निमित्त एक सरोवर का निर्माण करवाया। इस अवसर पर एक विशाल समारोह आयोजित किया गया।
अकबर के शासनकाल में हरसौर अजमेर सरकार के अंतर्गत था। ई.1576 में अकबर ने कूंपावत गोर्धनसिंह को हरसौर प्रदान किया। गोर्धनसिंह की स्मृति में हरसौर में एक विशाल चबूतरे का निर्माण किया गया। कूंपावतों से हरसौर मेड़तिया राठौड़ों के अधीन हुआ तथा बाद में जोधपुर के अधीन चला गया।
मध्यकाल में इस गांव में शैवों की नाथ शाखा का प्रभाव रहा। चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में रामचन्द्र ने हरसौर मे नाथों की गद्दी स्थापित की। यहाँ से मिले एक शिलालेख में बहुत से नाथ साधुओं का उल्लेख हुआ है। इन नाथों का समाज पर गहरा प्रभाव था। ई.1546 के एक लेख में कहा गया है कि सनुकनाथ ने सुरसनाथ को अपना शिष्य बनाया। नृसिंह को पूजने वाले निरंजनी साधु भी हरसौर में रहते थे।
ई.1743 मे हरसौर में जैन मूनि रत्नभूषण सूरि ने जिनदत्त रास की रचना की। महाजनों की हरसौरा शाखा हरसौर से निकली है। सोनराज कटारिया की बही से एक विवाहोत्सव निमन्त्रण भेजे जाने की सूची प्राप्त हुई है। इस सूची के अनुसार आज से सवा सौ वर्ष पहले हरसौर में महेश्वरियों के पांच सौ परिवार तथा ओसवालों के एक सौ तेरह परिवार रहते थे। संभवतः हरसौर नदी की बाढ़ से हरसौर नगर उजड़ गया।
-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



