मध्यकाल में मालवा क्षेत्र से हाड़ौती क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए दो मार्ग उपलब्ध थे। इनमें से पहला मार्ग मुकन्दरा होकर आता था और दूसरा मार्ग मधुकरगढ़ होकर आता था।
कोटा महाराव मुकन्दसिंह ने मराठा आक्रमणकारियों को रोकने के लिये इनमें से पहिले मार्ग पर किलेबन्दी करायी थी तथा अपनी मीणी रानी अबली के लिये एक महल भी बनवाया था, जिसे अबलोमीनी का महल कहते हैं। इस मार्ग को महाराव मुकन्दसिंह के नाम पर मुकन्दरा कहते थे। अब भी यह क्षेत्र मुकन्दा ही कहलाता है।
मुकन्दरा अरावली पर्वत शृंखला के बीच में मालवा जाने का मार्ग है तथा इसी स्थान पर गुप्तकालीन प्रसिद्ध भीम चौरी भी स्थित है। [1]
मालवा से हाड़ौती आने का दूसरा मार्ग मधुकरगढ़ होकर था जो अब काम में न आने के कारण लोगों की स्मृति से हट गया है। इसका नाम बदल जाने से भी लोगों को मधुकरगढ़ की स्थिति ज्ञात नहीं है।
मधुकरगढ़ की स्थिति इस प्रकार से थी। कोटा से 35 किलोमीटर दूर कोटा-झालावाड़ मार्ग पर मण्डाना कस्बे से 4-5 किलोमीटर जंगली रास्ते को पर करने पर मधुकरगढ़ के खण्डहर आते हैं।
मधुकरगढ़ अरावली पर्वत शृंखला के क्षेत्र में एक संकरे पहाड़ी मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग के दोनों ओर पहाड़ियां, आगे की ओर एक विशाल झील तथा पीछे की ओर मधुकरगढ़ गांव एवं दुर्ग शृंखला है। दुर्ग तक पहुंचने वाले मार्ग के सामने झील होने के कारण यह दुर्ग बाहरी आक्रमणकारी से पूरी तरह सुरक्षित था। इसमें सामने की ओर से आने के लिए केवल एक संकरी पगडण्डी थी जिस पर चलकर आने वाले किसी भी आक्रमणकारी को सुगमता से रोका जा सकता था।
मधुकरगढ़ की झील काफी बड़ी है तथा इस झील के दूसरी ओर से मधुकरगढ़ पर की गई गोलाबारी भी अधिक प्रभावी नहीं हो सकती थी। मधुकरगढ़ दुर्ग अब अवशेष के रूप में ही शेष बचा है। मधुकरगढ़ गांव अब नष्ट प्रायः है तथा घरों के स्थानों पर पत्थरों के ढेर बहुत लम्बे क्षेत्र में फैले हुए हैं।
यद्यपि मधुकरगढ़ बस्ती के घर पूर्णतः धराशायी हो गये हैं तथापि इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में बने मन्दिर आज भी खड़े हुए हैं, जिनमें से अनेक मंदिरों में देव-प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं एवं उनकी नियमित पूजा भी होती है।
मधुकरगढ़ बस्ती में मन्दिरों के बचे रहने के कारण अब इस स्थान को मन्दिरगढ़ कहा जाता है। स्थानीय लोग इसे मन्दरगढ़ कहते हैं तथा इसका पुराना नाम मधुकरगढ़ बिल्कुल भूल चुके हैं।
मधुकरगढ़ के मंदिरों की स्थापत्य शैली इस क्षेत्र के अन्य खींची मंदिरों एवं भवनों से साम्य रखती है। अतः मधुकरगढ़ मंदिरों का निर्माण खींची शासकों द्वारा ही हुआ होगा। अतः कहा जा सकता है कि मधुकरगढ़ कोटा के हाड़ा राजाओं के अधिकार में आने से पहले खींचियों के अधिकार में था।
यद्यपि इस क्षेत्र के मन्दिर खींची काल में निर्मित हैं तथापि इनमें कुछ ऐसी भी प्रतिमायें शुद्ध रूप में या अलंकरण रूप में मिली है जो कि खींची काल से भी बहुत पहले की हैं। अतः अनुमान होता है कि इस क्षेत्र पर खींचियों द्वारा अधिकार किए जाने से पहले भी मानव बस्ती थी। इस क्षेत्र में हाड़ाओं से पहले का कोई शिलालेख अभी तक नहीं मिल सका है।
झील के किनारे कुछ सतियों के चबूतरे हैं जिनमें से एक पर लेख भी खुदा हुआ है किंतु क्षतिग्रस्त होने के कारण पूर्ण पठनीय नहीं है इस लेख में सम्वत् 1791 तथा मधुपुरगढ़ का उल्लेख हुआ है।
इस शिलालेख का अधूरा लेख इस प्रकार है- ‘श्री प्रेमपुरजी संवत् 1791 ब्रषमा पोस सुदी 4 बार मंगलवार के दीन मधुपुरगढ़ माहारानी माहाराव जी श्री दुरजनसाल जी पाती साही महान साही जा को हजूरी दली।‘
इस लेख से विदित होता है कि मधुकरगढ़ कहलाने से भी पहले इसका वास्तविक नाम ‘मधुपुरगढ़’ था। ई.1761 में जब कोटा राज्य एवं जयपुर राज्य में भटवाड़ा का युद्ध हुआ, तब मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर इसी मार्ग से कोटा की सीमा में आया था तथा कुछ समय तक उसका मुकाम यहीं पर रहा था। बाद में कोटा महाराव का कर्मचारी राय अखैराज पन्चोली मल्हारराव होलकर को यहीं से भटवाड़ा के मैदान तक ले गया था। [2]
सन्दर्भ
[1] जगत नारायण, मधुकरगढ़, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स।
[2] (i) Jhala Zalim Singh – Dr- R- P- Shastri Page 40
(ii) Kota State Archives – Somvat 1818