Friday, March 7, 2025
spot_img

महाराणा प्रताप के साथी

आज संसार में जिस श्रद्धा एवं विश्वास के साथ महाराणा प्रताप (ई.1540-ई.1597) का स्मरण किया जाता है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जिस समय महाराणा प्रताप अकबर से संघर्षरत थे, उस समय उन्हें समस्त हिन्दू शक्तियों का साथ मिला होगा किंतु वास्तविकता इससे उलट है महाराणा प्रताप के साथी बहुत कम थे।

ईस्वी 1568 में अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। तथा ई.1572 में महाराणा उदयसिंह का निधन हो गया। महाराणा उदयसिंह ने बड़े कुंवर प्रतापसिंह के स्थान पर, रानी भटियाणी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया किंतु मेवाड़ के सरदारों ने जगमाल की अयोग्यता तथा प्रताप की योग्यता को देखते हुए प्रताप को मेवाड़ का नया महाराणा चुना। उस समय प्रताप की आयु 32 वर्ष थी। 

महाराणा प्रताप को राज्यगद्दी प्राप्त होने में यद्यपि समस्त मेवाड़ी सरदारों की सहमति थी किंतु इस कार्य में सोनगरा सरदारों की भूमिका प्रमुख थी। क्योंकि प्रताप की माँ सोनगरों की राजकुमारी थी। सोनगरा सरदार जीवन भर महाराणा प्रताप के स्वामिभक्त मित्र एवं संरक्षक बने रहे।

महाराणा प्रताप के साथी भील

मेवाड़ महाराणाओं के सम्बन्ध विगत कई शताब्दियों से अपने राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले भीलों से बहुत अच्छे थे। ये भील जीवन भर महाराणा प्रताप के साथी बने रहे। भीलों से सम्बन्धों का लाभ महाराणा प्रताप को जीवन भर मिला। प्रतापसिंह और भीलों के बीच आत्मीयता और विश्वास का जो अद्भुत सम्बन्ध बना, वह प्रतापसिंह के लिये ऐसा सुरक्षा कवच बन गया जिसने प्रतापसिंह को राष्ट्रीय नायक बनने का अवसर प्रदान किया। अफगान और मुगल सब कुछ तोड़ सकते थे किंतु अरावली की उपत्यकाओं में भीलों के बीच सुरक्षित प्रताप का सुरक्षा चक्र नहीं बेध सकते थे। 

हिन्दू राजाओं द्वारा अकबर की अधीनता

महाराणा प्रताप के गद्दी पर बैठने से पूर्व, ई.1561 में मालवा, जौनपुर एवं चुनार, ई.1562 में आम्बेर, मेड़ता तथा नागौर, ई.1564 में गोंडवाना, ई.1568 में चित्तौड़, ई.1569 में रणथंभौर तथा कालिंजर  , ई.1570 में मारवाड़ तथा बीकानेर   एवं ई.1571 में सिरोही   आदि राज्य एवं दुर्ग अकबर के अधीन हो चुके थे। ई.1573 में गुजरात भी अकबर के अधीन हो गया।  

राजपूताना राज्यों द्वारा अकबर की अधीनता

जिस समय महाराणा प्रताप सिंहासनारूढ़ हुए उस समय राजपूताना में 11 हिन्दू राज्य थे- मेवाड़, मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर, बूंदी, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ एवं करौली। ई.1573 तक 7 राज्य मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे- मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर, बूंदी एवं करौली।

गुहिल राजवंशों की स्वतंत्रता

अब केवल मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के गुहिल ही मुगलों की अधीनता से बाहर थे। ये चारों राजा उसी गुहिल के वंशज थे जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के समय छठी शताब्दी ईस्वी में अपने राज्यवंश की स्थापना की थी। 

डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ द्वारा अकबर की अधीनता

ई.1573 में अकबर ने कच्छवाहा मानसिंह को मेवाड़ की तरफ यह आज्ञा देकर भेजा कि मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के राजाओं से मुगलों की अधीनता स्वीकार करवाओ। जो राजा हमारी अधीनता स्वीकार कर ले उसका सम्मान करना और जो ऐसा न करे उसे दण्ड देना। महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया किंतु डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार ईस्वी 1573 तक मेवाड़ को छोड़कर पूरा राजपूताना मुगलों के अधीन हो गया। 

कुंअर अमरसिंह के साथी

ईस्वी 1576 में अकबर ने आम्बेर के कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रताप पर चढ़ाई करने के लिए भेजा। युद्ध निश्चित हुआ जानकर महाराणा प्रताप ने अपने साथी सामंतों के पुत्रों को अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह के साथ गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच स्थित भूताला गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक पहाड़ में बनी गुफा में भेज दिया।

इस गुफा में महाराणा ने अपना राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में, मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके। इस गुफा की रक्षा का भार कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये। 

महाराणा प्रताप के साथी सामंत एवं मुत्सद्दी

यद्यपि इस समय तक आम्बेर के कच्छवाहे और जोधपुर तथा बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से मित्रता छोड़ चुके थे तथापि संकट की इस घड़ी में मेवाड़ी सरदारों एवं मुत्सद्दियों ने प्राणप्रण से महाराणा प्रताप का साथ निभाने का निश्चय किया। महाराणा प्रताप के साथी महाराणा के लिए मरने-मारने को तैयार थे।

रामशाह तंवर

ग्वालियर का राजा रामशाह तंवर  मुगलों के हाथों अपना राज्य गंवाकर महाराणा की सेवा में रहता था। वह भी अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया।

झाला सरदार

झाला सरदार सैंकड़ों सालों से महाराणाओं के विश्वस्त साथी बने हुए थे। खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की रक्षा करते हुए झाला अज्जा ने अपने प्राण न्यौछावर किए थे। हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने के लिए झाला मानसिंह सज्जावत  तथा झाला बीदा (सुलतानोत)  भी लड़ने के लिए आए।

महाराणा प्रताप के साथी – सोनगरा

महाराणा प्रताप की माँ सोनगरों की राजकुमारी थी। अखैराज सोनगरा जालोर के सोनगरा चौहानों का वंशज था। सोनगरा चौहान ने ही कुंअर जगमाल को मेवाड़ के सिंहासन से उतारकर प्रताप को महाराणा बनया था। सोनगरों ने जीवन भर महाराणा प्रताप का साथ दिया। हल्दीघाटी के युद्ध में सोनगरों की भी मुख्य भूमिका थी।

डोडिया, पडिहार, मेड़तिया

सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत , रावत सांगा, राठौड़ रामदास , पडिहार कल्याण, राठौड़ शंकरदास  भी महाराणा की तरफ से लड़ने के लिए आए।

मेवाड़ के पुरोहित

यद्यपि पुरोहित ब्राह्मण होते थे और उनका मुख्य कार्य राजा को धर्म के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करते रहना था तथापि जब कभी धर्म पर संकट आता था तो पुरोहित भी हाथ में तलवार लेकर युद्धक्षेत्र में उतरते थे। जब बाबर के सेनापति मीरबाकी ने अयोध्याजी के जन्मभूमि मंदिर पर आक्रमण किया था तब देवीदास पुरोहित ही अपनी सेना लेकर लड़ने के लिए आया था और युद्ध क्षेत्र में ही परमपद को प्राप्त हुआ था। महाराणाओं को सदियों से हिन्दू धर्म का रक्षक माना जाता था। इसलिए पुरोहित गोपीनाथ तथा पुरोहित जगन्नाथ भी इस युद्ध में अपने साथ बहुत से युवकों को लेकर महाराणा की तरफ से लड़ने के लिए आए।

मेरपुर का राणा पुंजा

मेरपुर का राणा पुंजा भीलों का सरदार था। वह अपने भील सैनिकों को लेकर अपनी प्यारी मेवाड़ भूमि के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए आया।

मेवाड़ के मुत्सद्दी

मुत्सद्दियों का कार्य राज्यकोष की व्यवस्था करना होता था किंतु जब राजा पर संकट आता था तो मुत्सद्दी भी हाथों में तलवार लेकर रणक्षेत्र में उतरते थे। हल्दीघाटी के युद्ध में मुत्सद्दी भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये।  भामाशाह का पुत्र जीवाशाह कुंवर अमरसिंह के साथ नियुक्त कर दिया गया था। बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत तथा महासानी जगन्नाथ भी युद्धक्षेत्र में उतरे।

महाराणा प्रताप के साथी – चारण

चारण मूलतः कवि थे और युद्ध के मैदान में रहकर अपने पक्ष के राजा का उत्साहवर्द्धन किया करते थे किंतु अपने स्वामी पर संकट आया देखकर हाथ में तलवार उठाने से भी नहीं चूके थे। महाराणा पर संकट आया जानकर सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने के लिए आए।

महाराणा प्रताप के साथी – पठान

मुगलों ने दो बार भारत से अफगानिस्तान के पठानों की सल्तनत नष्ट की थी। पहली बार इब्राहीम लोदी को मारकर तथा दूसरी बार शेरशाह सूरी के वंशजों को मारकर। इसलिए इस काल में पठान लोग मुगलों के विरुद्ध युद्ध किया करते थे। हकीम खाँ सूरी  नामक एक पठान भी अकबरी की सेना से लड़ने के लिये महाराणा की सेना में सम्मिलित हुआ। 

महाराणा के साथी- घुड़सवार राजपूत एवं प्यादे भील

मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 घुड़सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।  अल्बदायूनी ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा की सेना में 3,000 सवार होना लिखा है।  आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे।

महाराणा की सेना का संयोजन

Mewar-in-National-Politics - www.rajasthanhistory.com
To purchase this book please click on Image.

मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीम खाँ सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था। उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे। 

वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया (18 जून 1576) को हल्दीघाटी और खमणोर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। महाराणा की सेना के आगे के भाग का नेतृत्व हकीम खाँ सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये। दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये। वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा (झाला मानसिंह) तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये।

राणा प्रताप ठीक बीच में था। सबसे पीछे पानरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महसानी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।

महाराणा का आक्रमण

जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया। राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह पर आक्रमण करने लगे। दिन निकलने के लगभग तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला। उसके पीछे थी सेना की अग्रिम पंक्ति हरावल हकीम खाँ सूर के नेतृत्व में।  पहले धावे में ही प्रताप ने मुगलों पर धाक जमा ली।

रामशाह तंवर का बलिदान

राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।  जगन्नाथ ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। 

बहलोल खाँ का अंत

जब महाराणा का घोड़ा मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोल खाँ ने महाराणा पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी, उसी समय महाराणा ने अपना घोड़ा उस पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोल खाँ का बख्तरबंद फट गया और वह वहीं मर गया। 

मानसिंह पर प्रहार

प्रताप का घोड़ा मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया। महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो इतिहास में चेटक के नाम से विख्यात हैं। महाराणा ने मानसिंह पर भाले का वार किया परन्तु मानसिंह के हौदे में झुक जाने से महाराणा का बर्छा उसके कवच में लगा और वह बच गया।  महाराणा के घोड़े के अगले दोनों पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड के सिरे पर लगे  जिससे उसकी सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया। 

महाराणा पर संकट

रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह अफवाह फैला दी गई कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है। अकबर के आगमन की सूचना से उत्साहित होकर मुगल सेना ने महाराणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया, इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।

महाराणा पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। एक बार जब वह दब कर मरना ही चाहता था कि झाला सरदार दौड़ा और राणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया।

झाला मन्ना का बलिदान

संकट का आभास पाते ही झाला बीदा (झाला मान अथवा झाला मन्ना)   ने प्रताप पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने ऊपर लगा लिया और शत्रुओं को ललकारा कि महाराणा मैं हूँ। वह बिना किसी भय के आगे बढ़ने लगा। मुगल सैनिक झाला के पीछे भागे, प्रताप पर से उनका दबाव ढीला पड़ गया। फिर भी प्रताप, युद्धक्षेत्र छोड़ने को सहमत नहीं हुआ।

प्रताप के स्वामिभक्त सामंतों और सैनिकों ने चेटक की रास अपने हाथ में ले ली और उसका मुंह मोड़ दिया। पीछे हल्दीघाटी थी। उसमें से निकलकर वे घायल प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गये। प्रताप की जगह झाला बीदा (झाला) के प्राण गये। इस बलिदान के लिये उसने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया था। उसके गिरते ही युद्ध समाप्त हो गया। 

मेवाड़ी वीरों का बलिदान

महाराणा प्रताप के युद्धक्षेत्र से हट जाने के बाद झाला मानसिंह, राठौड़ शंकरदास, रावत नेतसी आदि वीर सेनानियों ने अपने सैनिकों को थोड़ी देर और जमाये रखने का यत्न किया परंतु कच्छवाहा मानसिंह के अंगरक्षकों ने उनके पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाड़ी सेना के बचे हुए लोगों को भी मैदान छोड़ना पड़ा। झाला मन्ना अपने 150 सैनिकों के साथ खेत रहा।  झाला बीदा (झाला मान), तंवर रामशाह (रामसिंह), रामशाह के तीनों पुत्र, रावत नेतसी (सारंगदेवोत), राठौड़ रामदास, डोडिया भीमसिंह, राठौड़ शंकरदास आदि कई सरदार काम आये।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा के साथियों की संख्या बहुत कम रह गई थी किंतु महाराणा ने हार नहीं मानी। शाही सेनाओं के मेवाड़ से लौट जाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने अपनी सेना के साथ बादशाही थानों को लूटकर अपनी भूमि छुड़ाने लगा।

भाण सोनगरा

महाराणा प्रताप के साथी जो हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी जीवित बच गए थे वे अपने शरीरों में प्राण रहते हुए मेवाड़ की सेवा करते रहे। इनमें अखैराज सोनगरा का पुत्र भाण सोनगरा का नाम प्रमुख है जो कुंभलगढ़ के दुर्ग की रक्षा करते हुए बलिदान हुआ। वह महाराणा प्रताप का सगा मामा भी था।

भामाशाह का अविस्मरणीय योगदान

अधिकांश मनुष्य इस संसार में पद, प्रतिष्ठा, धन एवं स्त्री के लिए बड़े से बड़ा अपराध करते हैं किंतु कुछ लोग धर्म के पथ पर चलते हुए जीवन भर उच्च आदर्शों का पालन करते हैं। भामाशाह भी उन्हीं में से एक था। हल्दीघाटी युद्ध के समाप्त हो जाने के कुछ समय बाद भामाशाह ने अकबर के अधिकार वाले मालवा प्रांत पर आक्रमण करके मुगलों से 25 लाख रुपये तथा 20 हजार अशर्फियां वसूल कीं। भामाशाह ने वे अशर्फियां चूलियां ग्राम में महाराणा को भेंट की।  इस धन से 25 हजार सैनिक 12 वर्ष तक जीवन निर्वाह कर सकते थे। 

शक्ति के आधार महाराणा प्रताप के साथी

महाराणा प्रताप के साथी जीवन भर उसकी शक्ति बनकर उसके साथ रहे। इन्हीं के बल पर महाराणा प्रताप ने अपने जीवन काल में मुगलों से वह समस्त भूमि छुड़वा ली जो महाराणा उदयसिंह तथा महाराणा प्रताप के समय में अकबर ने छीन ली थी। केवल चित्तौड़ दुर्ग ही महाराणा प्रताप के हाथ नहीं आ सका।

महाराणा प्रताप ने उजड़े हुए मेवाड़ को फिर से बसाया, उदयपुर नगर में श्रेष्ठ लोगों को लाकर उनका निवास करवाया तथा मुगलों के विरुद्ध अपना साथ देने वाले अपने सरदारों की प्रतिष्ठा और पद में वृद्धि की तथा उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं।  चावण्ड के महलों में निवास करते हुए ही 19 जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास हुआ।  महाराणा प्रताप के साथी भी उसी सम्मान के अधिकारी हैं, जो सम्मान महाराणा प्रताप को दिया जाता है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source