Friday, February 21, 2025
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लोहागढ़ दुर्ग भरतपुर

लोहागढ़ दुर्ग भरतपुर आगरा से 55 किलोमीटर, मथुरा से 33 किलोमीटर, जयपुर से 176 किलोमीटर तथा दिल्ली से 170 किलोमीटर दूर स्थित है। इस कारण मध्यकाल में यह दुर्ग दिल्ली के मुगलों एवं जयपुर के कच्छवाहों के लिये गंभीर चुनौती खड़ी करने वाला था।

मुगलों एवं कच्छवाहों ने इस बात का भरसक प्रयास किया कि जाटों का ऐसा मजबूत किला लोहागढ़ दुर्ग न बने किंतु महाराजा सूरजमल के अटल निश्चय के कारण दुर्ग ने केवल बनकर खड़ा हो गया, अपितु आगे चलकर भारत की आन, बान और शान का प्रतीक बना। इस दुर्ग को भारत में जाटों की सबसे बड़ी राजधानी रहने का गौरव प्राप्त है।

लोहागढ़ दुर्ग के निर्माता

गंगा-यमुना के दो-आब में जिस स्थान पर बाणगंगा, रूपारेल एवं गंभीरी नामक तीन नदियों का संगम होता था, उस स्थान पर ई.1700 में जाट नेता रुस्तम सगोरिया ने एक कच्ची गढ़ी की स्थापना की जो चौबुर्जा कहलाती थी। आगे चलकर रुस्तम का पुत्र खेमकरण, जाट राजा बदनसिंह के लिये गंभीर चुनौती बन गया।

ई.1733 में राजकुमार सूरजमल ने एक रात्रि को चौबुर्जा पर अचानक आक्रमण करके खेमकरण जाट को मार भगाया तथा 19 फरवरी 1733 को इस स्थान पर नये दुर्ग की नींव डाली। इस दुर्ग को तैयार होने में लगभग 8 साल लगे। परिवर्तन, रूपांतर और विस्तार का कार्य महाराजा जसवंतसिंह (1853-93 ई.) के राज्य काल तक चलता रहा।

लोहागढ़ दुर्ग का नामकरण

यह दुर्ग, भरतपुर का दुर्ग तथा लोहागढ़ के नाम से विख्यात है।

लोहागढ़ की स्थिति तथा क्षेत्रफल

लोहागढ़ दुर्ग भरतपुर नगर के दक्षिणी हिस्से में स्थित है तथा आयताकार बना हुआ है। दुर्ग का विस्तार 6.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है।

दुर्ग की श्रेणी

यह स्थल दुर्ग श्रेणी में विश्व का पहले नम्बर का दुर्ग है जिसका निर्माण भारतीय दुर्ग निर्माण पद्धति पर किया गया है। इसके चारों ओर दोहरा परकोटा होने से यह पारिघ श्रेणी का दुर्ग है। परकोटे के बाहर चारों ओर जल से भरी हुई खाई मौजूद होने से यह पारिख श्रेणी का दुर्ग है।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

लोहागढ़ दुर्ग की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये इसका निर्माण ऐसे स्थान पर करने का निर्णय लिया गया जहाँ शत्रु का सरलता से पहुंचना संभव न हो। इसलिये डीग से बीस मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर के जंगल को काटा गया एवं उसके बीच स्थित विशाल दलदल को पाटकर भरतपुर का भव्य किला बनाया गया। मुख्य किलेबंदियां आठ वर्षों में पूरी हो गईं। इनमें दो खाइयां भी थीं, जिनमें से पहली खाई शहर की बाहर वाली चार-दीवारी के पास थी और दूसरी वाली कम चौड़ी पर ज्यादा गहरी खाई, किले को घेरे हुए थी। बाढ़ के पानी को रोकने और अकाल के समय सहायता पहुंचाने के लिए दो बांध और दो जलाशय बनाए गये थे।

सम्पूर्ण दुर्ग पत्थर की पक्की प्राचीरों से घिरा हुआ है। बाहरी प्राचीर की लम्बाई उत्तर-दक्षिण में डेढ़ मील एक सौ फुट तथा पूर्व-पश्चिम में डेढ़ मील में चार सौ फुट कम है। इसकी ऊंचाई 25 फुट तथा चौड़ाई 40 फुट है। इस प्राचीर के बाहर 61 फुट गहरी तथा 100 फुट चौड़ी खाई है।

किले के चारों ओर की खाई में मोती झील से सुजान गंगा नहर द्वारा पानी लाया जाता था। यह झील रूपारेल और बाणगंगा नदियों के संगम पर अजान बांध खड़ा करके बनायी गयी थी। सुजान नहर 150 से 200 फुट चौड़ी तथा 50 फुट गहरी है। इस खाई के बाहर मिट्टी की एक ऊंची प्राचीर है। इस प्रकार यह दोहरी प्राचीर से घिरा हुआ है। दुर्ग की इस प्रकार की बनावट से लड़ाई के समय तोपों के गोले मिट्टी की बाहरी प्राचीर में ही धंस जाते थे जिससे किले का भीतरी भाग, जिसमें महल आदि थे, सुरक्षित रहता था।

लोहागढ़ दुर्ग में प्रवेश

दुर्ग में प्रवेश करने के लिये इसके चारों ओर की खाई पर दो पुल बनाये गए हैं।

पोल एवं दरवाजे

दुर्ग की प्राचीर में 8 विशाल बुर्जें, 40 अर्ध चंद्राकार बुर्जें तथा दो विशाल दरवाजे हैं। मूल रूप से भरतपुर दुर्ग में 12 द्वार थे जो मथुरापोल, बीनारायण पोल, अटलबंद पोल, नीम पोल, अनाह पोल, कुम्हेर पोल, चांद पोल, गोवर्धन पोल, जधीना पोल, सूरज पोल तथा दिल्ली दरवाजा के नाम से जानी जाती थीं। इनमें से कई पोल अब नष्ट हो गये हैं।

खाई पर बने पुलों के ऊपर गोपालगढ़ की तरफ बना हुआ दरवाजा अष्ट-धातुओं के मिश्रण से निर्मित है। यह द्वार पहले चित्तौड़गढ़ दुर्ग में लगा हुआ था जिसे तेरहवीं शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली ले गया था। ई.1765 में महाराजा जवाहरसिंह मुगलों के शाही खजाने की लूट के समय इसे लाल किले से उतार लाया था। दक्षिणी द्वार लोहिया दरवाजा कहलाता है।

बुर्ज

दुर्ग की प्राचीर में आठ बुर्ज बनाई गई थीं। इनमें सबसे प्रमुख जवाहर बुर्ज है जो ई.1765 में महाराजा जवाहरसिंह की दिल्ली विजय के स्मारक के रूप में बनायी गयी थी। यह बहुत बड़ी बुर्ज है। भरतपुर के शासकों के राजतिलक का समारोह इसी बुर्ज पर होता था। फतह बुर्ज का निर्माण ई.1805 में भरतपुर के महाराजा रणजीतसिंह द्वारा अंग्रेजों पर फतह पाने के उपलक्ष्य में किया गया था। किले की अन्य बुर्जों के नाम सिनसिनी बुर्ज, भैंसावाली बुर्ज, गोकला बुर्ज, कालिका बुर्ज, बागरवाली बुर्ज तथा नवलसिंह बुर्ज हैं।

लोहागढ़ दुर्ग के विभाग

पूरे दुर्ग को चार विभागों में बांटा गया है जो गोपालगढ़, रामगढ़, किशनगढ़ तथा फतहगढ़ कहलाते हैं।

महल, हवेलियां एवं मंदिर

दुर्ग परिसर में कई महल बने हुए हैं। इनमें रानी किशोरी महल, दादी-माँ का महल, वजीर की कोठी, दरबार खास प्रमुख हैं। दुर्ग में बिहारी एवं मोहनजी के मंदिर भी रियासती काल के बने हुए हैं। महल खास एवं दरबार खास में अजायबघर बना दिया गया है जिसमें शिलालेख, मूर्तियां, अस्त्र-शस्त्र एवं पुरातत्व महत्व की सामग्री रखी गई है।

भगवान बुद्ध की अभय-मुद्रा की पत्थर से बनी कुषाण-कालीन प्रतिमा तथा दो मीटर ऊंचा शिवलिंग दर्शनीय है। इस संग्रहालय में हस्तलिखित ग्रंथ, चित्र, पीपल के पत्ते तथा अभ्रक की चिप्पी पर की गई चित्रकारी भी देखने योग्य है। कमरा खास महल में विशाल दरबारों का आयोजन होता था। 17 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद्घाटन समारोह भी इसी महल में हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दुर्ग की अनेक इमारतों में सरकारी कार्यालय खुल गये।

जाट राजाओं की वंशावली

दुर्ग में बने एक गोल चबूतरे पर छः मीटर ऊँचे गोल स्तम्भ पर भरतपुर के राजाओं की वंशावली दी गई है। इसमें महाराजा उग्रसेन से महाराजा ब्रजेंद्रसिंह तक का विवरण दिया गया है।

भरतपुर दुर्ग पर अंग्रेजों के आक्रमण

ई.1804 में अंग्रेजों और जसवंतराव होलकर की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। कर्नल बर्न, मेजर फ्रैजर और जनरल लेक की सेनाओं ने होलकर का पीछा किया। होलकर की सेनाओं ने डीग के पास हुई लड़ाई में मेजर फ्रैजर को मार डाला तथा डीग दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस पर अंग्रेजों ने 23 दिसम्बर 1804 को होलकर को परास्त करके डीग पर अधिकार कर लिया।

होलकर ने डीग से भागकर भरतपुर के दुर्ग में शरण मांगी। भरतपुर के राजा रणजीतसिंह ने होलकर तथा उसकी सेना को भरतपुर दुर्ग में शरण दे दी। अब तक तो जाट और मराठे एक दूसरे के शत्रु थे किंतु रणजीतसिंह द्वारा होलकर को शरण दिये जाने से अंग्रेजों के सारे समीकरण बिगड़ गये और उन्होंने मराठों की बजाय जाटों से ही पहले निबटने का निर्णय लिया।

गर्वनर जनरल लार्ड वेलेजली चाहता था कि होलकर, अंग्रेजों को सौंपा जाये किन्तु महाराजा रणजीतसिंह ने अपनी शरण में आये व्यक्ति के साथ विश्वासघात करने से मना कर दिया। 7 जनवरी 1805 को जनरल लेक ने भरतपुर के दुर्ग पर तोपों से हमला कर दिया। दुर्ग की प्राचीर मिट्टी से निर्मित थी, इस कारण कुछ स्थान से गिर गयी। जब अंग्रेजों ने खाई पार करके अटल दरवाजे से नगर में प्रवेश करना चाहा तो जाटों ने उन्हें मजबूती से पीछे धकेल दिया। इस प्रकार अंग्रेजों का पहला आक्रमण निष्फल हो गया।

प्रथम आक्रमण में असफल रहने पर, अंग्रेज सेना ने 14 दिन तक भरतपुर दुर्ग पर तोप के गोलों की भयानक वर्षा की जिससे 21 जनवरी को नीमंदागेट के पास का भाग टूट गया। इसे देखकर भरतपुर के सैनिकों ने और अधिक दृढ़ता से युद्ध करना आरम्भ कर दिया। जाटों का प्रतिरोध इतना प्रबल था कि अंग्रेज सेना नगर में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा सकी।

इस पर जसवन्तराव होलकर की सेना भी जाटों की सहायता के लिये आ गई। रणजीतसिंह ने छः लाख रुपये देकर पिण्डारी अमीर खाँ की सेवाएं प्राप्त कर लीं जो कि होलकर की घुड़सवार सेना का सेनापति भी था। जनरल लेक 2400 घुड़सवार, 6400 पैदल सिपाही और 3000 बम्बई के प्रशिक्षित सिपाही अपने साथ लेकर आया था। इनमें से उसके 3,100 सैनिक और 103 सैनिक अफसर मारे गये फिर भी वह भरतपुर को नहीं जीत सका।

इस युद्ध के बारे में एक कवि ने लिखा है-

चढ़े हैं फिरंगी भयो भारत भरतपुर में,

तोपन तरपि कै, हलान पै हलान की।

काली करी तृप्त, फिरंगी को कुरंगी भए

एक हू कला न चली, पथरकलान की।।

कम होती हुई रसद सामग्री तथा क्षीण होती हुई सेना के कारण जनरल लेक इतना चिन्तित हो गया कि उसने कुछ दिनों के लिये युद्ध स्थगित कर दिया। आगरा तथा गुजरात से अतिरिक्त सेना आने पर लेक ने भरतपुर पर तीसरा आक्रमण किया। इस आक्रमण से परकोटा तो भंग हो गया किन्तु जाटों से भयभीत अंग्रेज सैनिकों ने नगर में प्रवेश करने से मना कर दिया। इस प्रकार तीसरा आक्रमण भी विफल हो गया।

जब सम्मुख युद्ध से न तो जसवंतराव होलकर हाथ आया और न भरतपुर तो अंग्रेजों ने कूटनीति खेली। उन्होंने होलकर की घुड़सवार सेना के सेनापति अमीर खाँ पिण्डारी को 32 हजार रुपये रिश्वत देकर अपनी और फोड़ लिया। अमीर खाँ को दायित्व सौंपा गया कि वह किसी तरह रणजीतसिंह को राजी करे ताकि रणजीतसिंह होलकर को पकड़कर जनरल लेक के सुपुर्द कर दे। रणजीतसिंह प्रबल हिन्दू संस्कारों से जुड़ा हुआ राजा था। उसने अमीर खाँ से कहा कि वह गद्दारी के इस काम में अमीर खाँ का साथ नहीं देगा।

इस समय तक राजा रणजीतसिंह भी अपने सैनिकों के बड़ी संख्या में मारे जाने तथा दुर्ग में रसद की कमी हो जाने से आशा-निराशा के झूले में झूलने लगा था, फिर भी शरणागत-वत्सलता को त्यागने के लिये तैयार नहीं था। जब उसने देखा कि होल्कर के अपने सेनापति अमीर खाँ की नीयत बिगड़ी हुई है तो उसने मई 1805 में जसवंतराय होल्कर को बहुत सा दान, मान, सम्मान, धन तथा सेना देकर भरतपुर से होल्कर के अपने राज्य के लिये रवाना कर दिया ताकि अमीर खाँ के षड्यंत्र से भरतपुर पर कलंक का टीका न लगे।

यद्यपि अक्टूबर 1805 में जनरल लेक के चौथे आक्रमण में लोहागढ़ दुर्ग का पतन हो गया तथा भरतपुर को फिर से अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी जिसकी कुछ शर्तें अपमानजनक थीं किन्तु तीन यु़द्धों में कम्पनी बहादुर को हिन्दुस्तानी तलवार का पानी पिलाने में सफल रहने के कारण भरतपुर दुर्ग अगले 20 वर्षों तक सम्पूर्ण उत्तर-भारत में विजय का प्रतीक बनकर खड़ा रहा।

अंग्रेजों से हुई संधि के फलस्वरूप जाटों ने बीस लाख रुपये युद्ध हर्जाने के रूप में अंग्रेजों को दिये। राजा का पुत्र रणधीरसिंह कम्पनी ने अपने पास रख लिया ताकि राजा अपनी संधि से नहीं मुकरे। यह संधि करके राजा रणजीतसिंह मर गया और उसका पुत्र रणधीरसिंह गद्दी पर बैठा। उसके जीवनकाल में अंग्रेजों और जाटों के संबंध कटु ही रहे।

ई.1823 में रणधीरसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई बलदेवसिंह भरतपुर के सिंहासन पर बैठा किन्तु वह मात्र डेढ़ वर्ष शासन करके मर गया। उसके मरने पर रणजीतसिंह के सबसे छोटे पुत्र लक्ष्मणसिंह के बेटे दुरजनसाल ने राजगद्दी हथिया ली। दुरजनसाल को राजा रणधीर सिंह ने गोद ले रखा था, अतः वह अपने आप को राज्य का वास्तविक अधिकारी समझता था। जिस समय बलदेवसिंह मरा, उस समय बलदेवसिंह का पुत्र बलवंतसिंह मात्र सात वर्ष का बालक था। अतः दुरजनसाल को राज्य हथियाने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। जैसे ही दुरजनसाल गद्दी पर बैठा, ऑक्टर लोनी विशाल सेना लेकर भरतपुर पर आक्रमण करने चल दिया।

इस पर दुरजनसाल ने गर्वनर जनरल को पत्र लिखा और ऑक्टर लोनी के कारनामों का पर्दा फाश किया। गर्वनर जनरल ने ऑक्टर लोनी को आदेश दिया कि वह भरतपुर पर आक्रमण न करे। इस पर दुखी होकर ऑक्टर लोनी ने इस्तीफा दे दिया और उसके स्थान पर चार्ल्स मेटकाफ को लगाया गया। मेटकॉफ जाटों का बड़ा शत्रु था। उसे तो किसी न किसी बहाने भरतपुर पर आक्रमण करना ही था। अतः उसने गर्वनर जनरल को समझाया कि भरतपुर को पूरी तरह रौंदे बिना जाट शक्ति अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं करेगी। गवर्नर जनरल ने उसे भरतपुर दुर्ग पर आक्रमण करने की अनुमति दे दी।

मेटकॉफ ने नये सिरे से लोहागढ़ दुर्ग पर आक्रमण करने की योजना बनाई। हाथरस का किला, भरतपुर दुर्ग के नक्शे के आधार पर बना हुआ था। अंग्रेजी सेनापतियों ने भरतपुर का किला तोड़ने के लिये हाथरस के किले का अवलोकन किया तथा एक योजना निर्धारित की। ब्रिटिश सेनापति कोम्बर मेयर ने 27 हजार सैनिक एवं विशाल तोपाखाना लेकर भरतपुर दुर्ग घेर लिया। दुर्ग की दीवारों पर 64,446 गोले बरसाये गये जो बेकार सिद्ध हुए। अंततः 18 जनवरी 1826 को 10 हजार पौण्ड विस्फोटक सामग्री रखवाकर विस्फोट करवाया गया।

इससे लोहागढ़ दुर्ग भरतपुर का पतन हो गया। इस विस्फोट की आवाज आगरा तक सुनी गई। दुर्ग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जब राजा दुर्जनसाल भरतपुर छोड़कर बयाना की तरफ भागने लगा, तब पत्नी और पुत्रों सहित अंग्रेजों के हाथों में पड़ गया। उसे गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में बनारस भेज दिया गया। इस प्रकार भरतपुर दुर्ग अंग्रेजों के अधीन हो गया। मेटकाफ ने बालक बलवन्तसिंह को भरतपुर का राजा बना दिया तथा शासन प्रबन्धन के लिये रीजेन्सी काऊन्सिल स्थापित कर दी।

लोहागढ़ दुर्ग भरतपुर के बारे में एक कवि ने लिखा है-

दुर्ग भरतपुर अडग जिमि, हिमगिरि की चट्टान।

सूरजमल के तेज को, अब लौं करत बखान।।

किसी अन्य कवि ने लिखा है-

यह भरतपुर दुर्ग है, नुस्सह दुर्जय भयंकर।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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