Friday, February 21, 2025
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माण्डलगढ़ दुर्ग

भीलवाड़ा जिले में, जिला मुख्यालय से 52 किलोमीटर उत्तर में स्थित माण्डलगढ़ दुर्ग 615 मीटर ऊंची अरावली पर्वत शृंखला पर बना हुआ है। इसे गिरि-दुर्ग श्रेणी में रखा जाता है।

दुर्ग का क्षेत्रफल

माण्डलगढ़ दुर्ग की लम्बाई लगभग 800 मीटर तथा चौड़ाई भी लगभग 800 मीटर है।

दुर्ग की सुरक्षा

माण्डलगढ़ दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है तथा मजबूत परकोटे से घिरा हुआ है।

माण्डलगढ़ दुर्ग के निर्माता

कुछ लोगों के अनुसार माण्डिया भील के नाम पर इस दुर्ग का नाम माण्डलगढ़ पड़ा। इसके सम्बन्ध में एक जनश्रुति इस प्रकार से है- माण्डिया नामक एक भील खेतों की रखवाली किया करता था। एक दिन बकरियां चराते समय माण्डिया अपना तीर पत्थर पर रगड़कर पैना कर रहा था। अचानक उसके तीर का एक हिस्सा सोने में बदल गया।

तीर को लेकर वह चानणा नामक गुर्जर के पास पहुंचा तथा उसे सारी बात बताई। चानणा उस पत्थर की करामात को समझ गया और उसने वह पत्थर अपने पास रख लिया। चानणा ने उस पत्थर की सहायता से बहुत सारा सोना बनाया तथा सोना बेचकर इस दुर्ग का निर्माण करवाया।

चानणा ने माण्डिया के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये इस दुर्ग का नाम माण्डलगढ़ र खाँ उसने दुर्ग में सागर तथा सागरी नामक दो जलकुण्ड भी बनवाये। सागर की सीढ़ियों पर चानणा की देवली मौजूद है। इस किंवदन्ती पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि इस क्षेत्र में भीलों के बनवाये हुए दुर्ग हैं न कि गुर्जरों द्वारा बनवाये गये। इस दुर्ग का निर्माण काल ज्ञात नहीं है। वर्तमान दुर्ग 12वीं शताब्दी ईस्वी में चौहान शासकों ने बनवाया था।

दुर्ग का मार्ग

माण्डलगढ़ दुर्ग जिस पहाड़ पर स्थित है वह पूर्व की ओर ऊंचा तथा उत्तर की ओर नीचा है। दुर्ग के उत्तर की तरफ बीजासण माता का पहाड़ एवं नकटिया का चौढ़ (चढ़ाई) स्थित है। यह पहाड़ माण्डलगढ़ से लगभग आधा मील दूर है। इसकी घाटी के चढ़ाई पर किसी शत्रु की नाक काटी गई थी, इस कारण इसे नकटिया का चौढ़ कहा जाता है।

दुर्ग में प्रवेश

दुर्ग के मुख्य प्रवेश मार्ग पर स्थित सात दरवाजों को पार करके ही दुर्ग में पहुंचा जा सकता है। संकट कालीन उपयोग के लिये पूर्व और पश्चिम में दो छोटे-छोटे द्वार बने हुए हैं जिन्हें बारी कहते हैं।

माण्डलगढ़ दुर्ग का स्थापत्य

श्ृंगी ऋषि के शिलालेख के अनुसार यह मण्डलाकार अर्थात् गोलाई में बना हुआ है इसलिये इसे माण्डलगढ़ कहते हैं। इस शिलालेख में इस दुर्ग का उल्लेख इस प्रकार हुआ है- ‘भग्नो विद्युत मंडलाकृति गढ़ी जित्वा समस्तानरीन।’

दुर्ग में कई महल बने हुए हैं जिनमें राठौड़ रामसिंह, राजा रूपसिंह, मोरध्वज एवं किलेदार मेहताजी के महल प्रमुख हैं। दुर्ग परिसर में स्थित कचहरी भवन, तोपखाना, लाल गुरुजी का बाड़ा भी प्रमुख स्थल हैं। दुर्ग के भवन मुख्यतः हिन्दू स्थापत्य शैली में बने हुए हैं, कुछ भवनों पर मुस्लिम स्थापत्य कला का प्रभाव है।

दुर्ग में चारभुजा मंदिर, उंडेश्वर मंदिर, चामुण्डा देवी मंदिर, रघुनाथद्वारा, जैन मंदिर, ऋषभदेव मंदिर सहित जैन उपाश्रय तथा जैन स्थानक विद्यमान हैं। हिन्दू मंदिरों के मण्डपों के नीचे लगे स्तंभों पर आकर्षक अंकन किया गया है तथा शिलालेख उत्कीर्ण किये गए हैं। दुर्ग में स्थित सागर, सागरी, जालेश्वर और देवसागर नामक जलाशय दर्शनीय हैं। दुर्ग के पूर्व में जालेश्वर तथा उत्तर में देवसागर नामक जलाशय स्थित है।

माण्डलगढ़ दुर्ग का इतिहास

भीलों के बाद यह दुर्ग शाकंभरी के चौहानों के अधिकार में चला गया। चौहानों ने 12वीं शताब्दी में यहाँ एक नये दुर्ग का निर्माण करवाया। जिस समय कुतुबुद्दीन ऐबक ने पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज से अजमेर का राज्य छीना, उस समय माण्डलगढ़ भी मुसलमानों के अधिकार में चला गया।

कुछ समय बाद हाड़ौती के हाड़ा देवीसिंह ने इसे मुसलमानों से छीन लिया। जब मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह (ई.1364-82) ने हाड़ौती को अपने अधीन किया, तब यह दुर्ग मेवाड़ के अधीन चला गया। एकलिंग के दक्षिण द्वार के ई.1488 के शिलालेख में कहा गया है कि क्षेत्रसिंह ने मंडलकर के प्राचीर को तोड़कर उसके भीतर के योद्धाओं को मारा तथा युद्ध में हाड़ों के मंडल को नष्ट कर उनकी भूमि को अपने अधीन किया। ई.1482 के श्ृंगीऋषि के शिलालेख में भी यही बात कही गई है।

ई.1396 में माण्डलगढ़ दुर्ग गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह ने जीत लिया। एकलिंग महात्म्य में इस दुर्ग का नाम मण्डलकर अंकित है तथा इसे महाराणा कुंभा (ई.1433-68) द्वारा लीला मात्र से विजित किया जाना बताया गया है। कुंभा के समय में गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने भी इस दुर्ग पर हमला किया। ई.1446 में मालवा के सुल्तान महमूद ने भी दुर्ग पर घेरा डाला किंतु कुंभा ने ये आक्रमण विफल कर दिये। महाराणा रायमल (ई.1473-1509) के समय में गयासुद्दीन ने माण्डगढ़ पर चढ़ाई का एक विफल प्रयास किया।

अकबर (ई.1556-1605) के समय में यह दुर्ग मुगलों तथा मेवाड़ के सिसोदियों के बीच कई बार आया और गया। ई.1567 में अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण करने से पहले, माण्डलगढ़ पर अधिकार किया। इसके बाद अकबर ने मांडलगढ़ को केन्द्र बनाकर महाराणा प्रताप के विरुद्ध अभियान किये।

ई.1576 की सुप्रसिद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई से पहले, कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह ने इस दुर्ग में निवास किया तथा शाही सेना को युद्ध के लिए तैयार किया। महाराणा प्रताप माण्डलगढ़ पहुंचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करना चाहता था किंतु महाराणा के सरदारों ने महाराणा को माण्डलगढ़ की बजाय दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में स्थित हल्दीघाटी में लड़ने की सलाह दी, जिसे महाराणा द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

जब हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो गया, तब महाराणा प्रताप ने मेवाड़ राज्य के खोये हुए दुर्गों पर फिर से अधिकार करना आरम्भ किया। ई.1586 तक चित्तौड़गढ़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष पूरे मेवाड़ राज्य को महाराणा प्रताप ने फिर से अपने अधीन कर लिया। महाराणा प्रताप निरंतर माण्डलगढ़ पर आक्रमण करता रहा। मुगलों के सेनापति जगन्नाथ कच्छवाहा तथा खंगारोत शाखा के प्रधान राव खंगार ने मांडलगढ़ के निकट पुरामण्डल में शाही थाने की रक्षा करते हुए वीरगति प्राप्त की जिनके स्मारक आज भी बने हुए हैं।

ई.1654 में किशनगढ़ के महाराजा रूपसिंह को वजीर सादुल्ला खाँ के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण करने भेजा गया। रूपसिंह द्वारा मचाई गई भयंकर मारकाट के कारण ही बादशाह चित्तौड़ पर अधिकार करने में समर्थ हो सका। इसके फलस्वरूप बादशाह ने उसे चार हजारी जात और चार हजार सवारों का मनसब दिया।

रूपसिंह किशनगढ़ के पास खोड़ा नामक स्थान पर बड़ा किला बनाना चाहता था। शाहजहाँ ने रूपसिंह से कहा कि वह खोड़ा में किला न बनवाये, इसके बदले ई.1654 में शाहजहाँ ने मेवाड़ का मांडलगढ़ दुर्ग जागीर में दिया। महाराजा रूपसिंह ने माण्डलगढ़ दुर्ग के दक्षिणी छोर पर एक महल भी बनवाया और बाद में वहाँ तोपखाना बना दिया।

जब शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ, तब अवसर देखकर ई.1658 में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने माण्डलगढ़ पर आक्रमण किया। उन दिनों रूपसिंह की तरफ से महाजन राघवदास माण्डलगढ़ का किलेदार था। उसे परास्त कर महाराणा ने माण्डलगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा माण्डल से बाईस हजार रुपये वसूल किये। इस पर महाराजा रूपसिंह मुंह बिगाड़ कर घर को गया।

ई.1679 के आसपास औरंगजेब ने एक बार फिर मेवाड़ से माण्डलगढ़ छीन लिया। ई.1681 में जब औरंगजेब के पुत्र अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया, तब मेवाड़ के सरदारों ने फिर से माण्डलगढ़ पर आक्रमण कर मुगलों के किलेदार को मार डाला तथा माण्डलगढ़ पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद यह दुर्ग पुनः औरंगजेब के अधिकार में चला गया। ई.1700 में औरंगजेब ने यह दुर्ग पीसांगन के राठौड़ सरदार जुझारसिंह को दे दिया।

ई.1706 में महाराणा अमरसिंह ने माण्डलगढ़ फिर से मुगलों की दाढ़ में से निकालकर मेवाड़ राज्य में सम्मिलित किया। महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने यह दुर्ग शाहपुरा के शासक उम्मेदसिंह को प्रदान किया। ई.1769 तक यह दुर्ग उम्मेदसिंह के वंशजों के पास रहा।

मेवाड़ के महाराणा अड़सी (अरिसिंह द्वितीय) (ई.1761-73) ने मेहता अगरचंद को माण्डलगढ़ दुर्ग का दुर्गपति नियुक्त किया। वर्तमान में इस दुर्ग में लखपतसिंह मेहता का अकेला परिवार निवास करता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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