बौंली दुर्ग सवाईमाधोपुर जिले में स्थित है। यह टोंक जिले के निवाई कस्बे से 20 किलोमीटर पूर्व में स्थित है।
यह दुर्ग मूलतः रणथंभौर के चौहानों ने 12वीं शताब्दी ईस्वी में बनवाया था। यह दुर्ग बौंली कस्बे के पश्चिम की ओर स्थित एक पहाड़ी पर बना हुआ है। बाौंली दुर्ग काफी बड़ा है। दुर्ग के निर्माण का समय, दुर्ग की एक दीवार पर अंकित शिलालेख से पता चलता है।
दुर्ग के चारों ओर का पहाड़ी भाग जंगलों से घिरा हुआ है। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण इस दुर्ग को पार्वत्य दुर्ग के श्रेणी में तथा जंगलों से घिरा हुआ होने के कारण इस दुर्ग को अरण्य दुर्ग की श्रेणी में रखा जा सकता है।
मध्य काल में इस प्रकार के दुर्ग राजपरिवार तथा प्रजा के लिए सुरक्षा स्थल के रूप में तथा राजा एवं सैनिकों के लिए मोर्चाबंदी के लिए उपयुक्त स्थल के रूप में प्रयुक्त होते थे किंतु जब शत्रु लम्बे समय के लिए दुर्ग की घेराबंदी करके बैठ जाता था तब दुर्ग में भोजन-पानी की कमी हो जाती थी। इस स्थिति में सेना को दुर्ग के द्वार खोलकर बाहर आना पड़ता था ताकि शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हो सकें।
जब कभी भी हिन्दू वीर दुर्ग के द्वारा खोलकर बाहर आते थे, तब वे केसरिया धारण करते थे। इसे केसरिया करना या साका करना भी कहते थे। इस अवसर पर हिन्दू वीरांगनाएं जौहर करती थीं। दुर्ग में रहने वाली सभी महिलाएं एवं बच्चे इस जौहर में भाग लेते थे। हिन्दू जाति किसी भी कीमत पर शत्रु के हाथों में पड़कर होने वाली दुर्गति से बचने के लिए साका एवं जौहर जैसे आयोजन करती थी।
किले का पहला द्वार पूर्व दिशा में बना हुआ है, तथा मध्यम आकार का है। इस द्वार में प्रवेश करके आगे बढ़ने पर दो कचहरियां एवं रानियों के महल आते हैं। अब ये निर्माण काफी जर्जर अवस्था में हैं। इनके निकट एक बड़ी तोप रखी हुई है।
जब बौंली दुर्ग पर जयपुर राज्य का अधिकार हुआ तब उत्तर दिशा में एक नया द्वार बनवाया गया तथा दुर्ग के आकार में पर्याप्त वृद्धि की गई।
राजस्थान सरकार का पर्यटन विभाग दुर्ग के जीर्णोद्धार के लिए प्रयास कर रहा है ताकि रणथंभौर देखने के लिए आने वाले पर्यटकों के लिए बौंली का दुर्ग भी आकर्षण का केन्द्र बन सके। राजस्थान में ऐसे दुर्गों की कमी नहीं है किंतु उनके जीर्णोद्धार के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता है जिसे जुटा पाना किसी भी राज्य सरकार के लिए एक कठिन कार्य है।