अलवर से लगभग 38 किलोमीटर दूर अरावली पहाड़ियों पर राजगढ़ का दुर्ग स्थित है। ढूंढाढ़ राज्य से अलग अलवर राज्य की स्थापना इसी दुर्ग में हुई थी। यह एक प्राचीन पहाड़ी दुर्ग है। इस कारण इस पर शत्रु का आक्रमण आसानी से नहीं हो सकता था।
दुर्ग तक पहुंचने का मार्ग
राजगढ़ कस्बे के मुख्य बाजार से चौपड़ होकर पुलिस थाने तक पहुंचने पर एक ढलवां सड़क दिखाई देती है। यह सड़क राजगढ़ दुर्ग की ओर जाती है।
राजगढ़ दुर्ग के निर्माता
इस दुर्ग का निर्माण गुर्जर प्रतिहार राजा बाघसिंह ने आरम्भ करवाया था। बाघसिंह का शासनकाल ज्ञात नहीं है। इस राजा की सिर कटी प्रतिमा आज भी दुर्ग के नीचे देखी जा सकती है।
कच्छवाहों के अधिकार में
जब ई.1771 में कच्छवाहा राजकुमार प्रतापसिंह ने जयपुर राज्य के कुछ हिस्से को अलवर राज्य के रूप में अलग किया तब उसने सबसे पहले राजगढ़ दुर्ग में ही अपनी राजधानी स्थापित की थी। उसने राजगढ़ दुर्ग में अनेक नवीन निर्माण करवाये। उसके पुत्र महाराजा बख्तावरसिंह तथा पौत्र महाराजा विनयसिंह ने इस दुर्ग के उत्थान में रुचि ली। इसका निर्माण राजपूत शैली में हुआ है।
महाराजा विनयसिंह ने इस दुर्ग के चारों ओर परकोटा खिंचवाया तथा खाई भी बनवाई। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण यह दुर्ग पार्वत्य श्रेणी में आता है तथा परिघा से घिरा होने के कारण यह दुर्ग पारिघ श्रेणी में आता है। दुर्ग की बुर्जों पर आज भी कुछ तोपें रखी हैं।
राजगढ़ दुर्ग की वर्तमान स्थिति
दुर्ग के भीतर स्थित महलों में अनेक कक्ष बने हुए हैं। शीश महल सबसे ऊंचा महल है। इस महल की दीवारों एवं छतों पर रंगीन शीशे जड़े हुए हैं। महल की जालियों के नीचे बेल-बूटे और भित्तिचित्र बने हैं। राजा प्रतापसिंह के दरबारी चित्रकार डालूराम द्वारा रामलीला, गौचारण, हिण्डोला, वेणीगुंथन, राजतिलक और गायों के सतरंगी चित्र बनाये गये हैं जो आज भी देखे जा सकते हैं। दुर्ग के नीचे व्याघ्रराज की प्रतिमा और दुर्ग के पीछे की ओर तीन दिगम्बर जैन मूर्तियां स्थापित हैं।