आहड़ का धूलकोट आहड़ सभ्यता के इतिहास का भूला-बिसरा पन्ना है। आहड़ सभ्यता दक्षिणी राजस्थान में आहड़, बनास, बेड़च आदि नदियों के प्रवाह क्षेत्र में बसी थी। यह ऋग्वैदिक सभ्यता से लेकर महाभारत काल की सभ्यता के किसी काल में अस्तित्व में आई होगी। इसने हड़प्पा सभ्यता अर्थात् सिंधु सभ्यता को भी अपनी आंखों से देखा होगा।
राजस्थान में मानव ने आहड़, गंभीरी, लूनी, डच तथा कांटली आदि नदियों के किनारे अपनी प्रारम्भिक बस्तियां बसाईं। इन सभ्यताओं का काल पश्चिमी विद्वानों द्वारा आज से 7 हजार से लेकर 3 हजार वर्ष तक पुराना ठहराया गया है जिसे कुछ भारतीय विद्वानों ने भी ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है किंतु कुछ भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी विद्वानों द्वारा बताये गए इन सभ्यताओं के इतिहास को इन तिथियों से भी तीन हजार वर्ष पूर्व का होना सिद्ध किया है।
उदयपुर जिले में आहड़ नदी के आस-पास, बनास, बेड़च नदी के किनारे, चित्तौड़गढ़ जिले में गंभीरी एवं वागन नदियों के किनारे, भीलवाड़ा जिले में खारी एवं कोठारी आदि नदियों के किनारे तथा अजमेर तक एक सभ्यता फैली थी जिसे आहड़ सभ्यता तथा बनास सभ्यता भी कहा जाता है।
आहड़ सभ्यता वाले क्षेत्र में प्रारंभिक रूप से प्रस्तर युगीन मानव निवास करता था। प्राचीन शिलालेखों में आहड़ का पुराना नाम ताम्रवती अंकित है जिससे अनुमान लगाना सहज ही है कि प्रस्तर युग से निकलकर यहाँ की सभ्यता ताम्र-धातु के उपयोग वाले काल में पहुंची क्योंकि इस क्षेत्र से ताम्बा निकलने के कारण ही यह नगर ताम्रवती कहलाने लगा होगा।
आहड़ का धूलकोट आहड़ सभ्यता में ही मिट्टी की दीवार से घिरी मानव बस्ती के रूप में बनना आरम्भ हुआ होगा तथा बार-बार के जीर्णोद्धार एवं पुनिर्निमाण के माध्यम से हजारों साल तक अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहा होगा किंतु उस काल का कोई बड़ा प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
ईसा की दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी में इस स्थान को आघाटपुर अथवा आहड़ का धूलकोट दुर्ग के नाम से जाना जाता था। बाद के काल में ताम्रवती अथवा आघाटपुर अथवा आहड़ का धूलकोट भी कहा जाता था। संभवतः उस काल में यहाँ धूल अर्थात् मिट्टी का दुर्ग रहा होगा जिसके अब कोई चिह्न नहीं मिलते हैं।
उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर 1600 फुट लम्बे और 550 फुट चौड़े धूलकोट के नीचे आहड़ का पुराना कस्बा दबा हुआ है जहाँ से ताम्र युगीन सभ्यता प्राप्त हुई है। ये लोग लाल, भूरे और काले मिट्टी के बर्तन काम में लेते थे जिन्हें उलटी तपाई शैली में पकाया जाता था। मकान पक्की ईंटों के होते थे। पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था।
यूनानियों के अधिकार में
आहड़ सभ्यता की खुदाई में मानव सभ्यता के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रथम स्तर में मिट्टी की दीवारें और मिट्टी के बर्तन मिले हैं। दूसरा स्तर प्रथम स्तर के ऊपर स्थित है। यहाँ से बस्ती के चारों ओर दीवार भी मिली है। तीसरे स्तर से चित्रित बर्तन मिले हैं। चतुर्थ स्तर से ताम्बे की दो कुल्हाड़ियां, मकानों से अनाज पीसने की चक्कियां, ताम्बे के औजार, पत्थरों के आभूषण, गोमेद तथा स्फटिक की मणियां, तांबे की छः मुद्रायें एवं तीन मोहरें मिली हैं।
एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकश से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यह मुद्रा दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व की है। इससे अनुमान होता है कि यहाँ सभ्यता के कई स्तर बसे तथा दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में यूनान से आये कुछ सैनिक परिवारों के लोगों ने यहाँ निवास करना आरम्भ कर दिया। यहाँ के लोग मृतकों को कपड़ों तथा आभूषणों के साथ गाढ़ते थे।
गुहिलों के अधिकार में
आठवीं शताब्दी ईस्वी में गुहिल वंश के प्रतापी राजा बापा रावल की राजधानी चित्तौड़ हस्तांतरित होने से पहले आहड़ मानी जाती है। बापा के बाद मत्तट और मत्तट के बाद भर्तृभट्ट चित्तौड़ के राजा हुए। आहड़ से प्राप्त एक शिलालेख में भर्तृभट्ट (द्वितीय) को तीनों लोकों का तिलक तथा राष्ट्रकूट वंश की रानी महालक्ष्मी से विवाह करने वाला बताया गया है। इस शिलालेख की आहड़ में उपस्थिति यह बताती है कि इस समय में भी आहड़ का धूलकोट दुर्ग महत्वपूर्ण स्थिति में था।
नौवीं शताब्दी इस्वी में गुहिल वंशी अल्लट ने आहड़ को पुनः अपनी राजधानी बनाया। उसने नागदा के स्थान पर आहड़ को अपनी राजधानी बनाया जिसमें दूर-दूर के व्यापारी रहते थे। ई.951 में अल्लट ने आहड़ में वराह भगवान का विख्यात मंदिर बनवाया। इस मंदिर को कर्णाट, मध्यदेश, लाट और टक्क देश के व्यापारियों ने दान दिये।
अल्लट ने अपनी भयानक गदा से अपने प्रबल शत्रु देवपाल को युद्ध में मारा। यह निश्चित नहीं है कि देवपाल कहाँ का राजा था किंतु अनुमान है कि अल्लट का समकालीन देवपाल, कन्नौज का राजा था। उसने मेवाड़ पर चढ़ाई की होगी तथा अल्लट द्वारा सम्मुख युद्ध में मार डाला गया होगा।