वसंतगढ़ दुर्ग गुप्त काल में निर्मित हुआ था। यह राजस्थान का एकमात्र गुप्तकालीन दुर्ग है जिसके अवशेष अब तक देखे जा सकते हैं। गागरौण दुर्ग, नागौर दुर्ग, भटनेर दुर्ग तथा मण्डोर दुर्ग सहित सैंकड़ों किले जो गुप्तों से भी पहले निर्मित हुए थे, गुप्तकाल में अपना अस्तित्व बनाये रहे। इनमें से कुछ आज भी जीर्णोद्धार और पुननिर्माण होते हुए हमारे सामने हैं।
गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (ई.335-375) ने वर्तमान राजस्थान के बड़े भू-भाग को अपने अधीन किया था। गुप्तों के काल में राजस्थान में कई दुर्गों का निर्माण हुआ जो अब काल के क्रूर पंजों द्वारा नष्ट कर दिये गये हैं। फिर भी वसंतगढ़ के खण्डहर गुप्तकालीन दुर्ग स्थापत्य के प्रतीक के रूप में हमारे सामने हैं।
सिरोही जिले में पिण्डवाड़ा रेलवे स्टेशन से लगभग आठ किलोमीटर तथा अजारी से तीन किलामीटर दूर, सड़क मार्ग पर वसंतगढ़ नामक प्राचीन गांव स्थित है। लाहिणी बावड़ी से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार इस गांव का प्राचीन नाम वटपुर है। इसे वसिष्ठपुर भी कहते हैं। बाद में यहाँ एक दुर्ग बनने पर यह वसंतगढ़ के नाम से विख्यात हुआ। यहाँ स्थित प्राचीन वटपुर नगर किसी समय समृद्धिशाली नगर था जिसके राजप्रासाद, तालाब, कुएं, मन्दिर तथा दुर्ग के खण्डहर आज भी विद्यमान हैं।
वसंतगढ़ का दुर्ग गुप्तकालीन माना जाता है। यह दुर्ग पर्वतीय ढलान पर लगभग छः किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। प्राचीरों के बुर्ज भी खण्डहर हो चले हैं। दुर्ग प्राकार की दीवारें लगभग 25 फुट ऊंची हैं। दुर्ग के नीचे दाहिनी ओर नदी बहती है जिससे दुर्ग को जल की आपूर्ति होती थी।
संस्कृत के महाकवि माघ ने वसंतगढ़ दुर्ग को श्रीमाल क्षेत्र का प्रहरी दुर्ग बताया है। यहाँ शिवनाग नामक प्रख्यात् शिल्पकार हुआ जो निर्माण कला में प्रजापति ब्रह्मा का प्रतिस्पर्धी कहा जाता था। वसंतगढ़ में स्थित ब्रह्मा मंदिर एवं सूर्य मन्दिर पांचवी से छठी शताब्दी के हैं जिनसे प्राचीन लेख प्राप्त होते हैं।
पहाड़ी की तलहटी में एक मंदिर समूह के खण्डहर मौजूद हैं जिनमें केन्द्रीय मंदिर भगवान शिव का प्रतीत होता है। यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में है। अन्य मंदिर पूरी तरह धरती पर गिरा दिये गये हैं। दुर्ग परिसर में स्थित लाहिणी बावड़ी के दूसरी तरफ एक छतरी है जिसमें भगवान शेषशायी नारायण का विग्रह स्थित है। इस विग्रह में ब्रह्माजी को भगवान की नाभि से निकले कमल नाल से प्रकट हुआ दिखाया गया है।
निकट ही स्थित ब्रह्माजी का मंदिर भी उल्लेखनीय है जो पांचवी से छठी शताब्दी का जान पड़ता है। इस छतरी में ब्रह्माजी की मनुष्याकार प्रतिमा स्थित है। सामने की ओर ब्रह्माजी के तीन मुख हैं। मुखमण्डल के पीछे आभामण्डल बना हुआ है। प्रतिमा के दो हाथों में से एक में माला तथा दूसरे में कमण्डल है। ब्रह्मा मंदिर का समकालीन एक सूर्य मंदिर भी है जिसमें सूर्य प्रतिमा तो नहीं है किंतु मंदिर के द्वार पर अंकित सूर्य प्रतिमा से इसके सूर्य मंदिर होने का प्रमाण मिलता है।
दुर्ग के पश्चिम में एक पहाड़ी पर खीमेल माता का छोटा मंदिर स्थित है। यहाँ से ई.625 का एक लेख प्राप्त हुआ है इसमें आबू क्षेत्र के राजा वर्मलात के सामंत रज्जिल का उल्लेख है। इस शिलालेख में वसंतगढ़ का नाम वटपुर अथवा वट लिखा हुआ है तथा देवी का नाम क्षेमर्या बताया गया है। इस शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण वसंतगढ़ नगर समिति के निर्देश पर श्रेष्ठि सत्यदेव द्वारा करवाया गया। इस मंदिर के निकट से ही एक शिलालेख और मिला है जिसमें देवी का नाम खीमेल बताया गया है। वस्तुतः क्षेमर्या तथा खीमेल, क्षेमंकरी देवी के नाम हैं।
यहाँ की गई खुदाई में पीतल की कुछ प्रतिमाएं प्राप्त हुई थीं जो संभवतः इस क्षेत्र के शासक द्वारा पिण्डवाड़ा के जैन धर्मावलम्बियों को समर्पित की गई थीं। उन्होंने इन प्रतिमाओं को वसंतगढ़ के जैन मंदिर में स्थापित किया। ये प्रतिमाएं काफी पुरानी हैं। रिखबनाथ की प्रतिमा पर वि.सं. 744 (ई.687) की तिथि अंकित है।
मंदिर समूह के उत्तर-पश्चिम में एक बावड़ी है जहाँ से परमार राजा पूर्णपाल के समय का एक शिलालेख प्राप्त हुआ था। वंसतगढ़ दुर्ग में स्थित लाहिणी बावड़ी का निर्माण रानी लाहिणी ने करवाया था। यहाँ से मिले शिलालेख में कहा गया है कि रानी लाहिणी ने सरस्वती (इस बावड़ी का नाम) का जीर्णोद्धार ई.1042 में करवाया। राजकुमारी लाहिणी, परमार शासक पूर्णपाल की विधवा बहिन थी।
इस शिलालेख के अनुसार परमारों से पहले, भावगुप्त इस क्षेत्र पर शासन करता था जो कि राजा विग्रहराज का पूर्वज था। रानी लाहिणी इसी विग्रहराज की विधवा रानी थी। रानी लाहिणी के एक लेख से ज्ञात होता है कि उस काल में इस क्षेत्र में दूर-दूर तक जंगल खड़ा था तथा वटवृक्ष के नीचे ऋषि वसिष्ठ का आश्रम था।
संभवतः इसी वट वृक्ष की विशाल संख्या में उपस्थिति के कारण यह क्षेत्र वटपुर कहलाया। वसिष्ठ ऋषि ने इस वटपुर की स्थापना की तथा यहाँ सूर्य एवं ब्रह्मा के मंदिर बनाये। यह घटना छठी शताब्दी ईस्वी से पहले के किसी समय की मानी जानी चाहिये क्योंकि ई.625 के शिलालेख में इस स्थान का नाम वटपुर होना प्रमाणित है।
ग्यारहवीं शताब्दी के अंत तक यह स्थान वटकड़, वटपुर तथा वट आदि नामों से जाना जाता रहा। वसंतगढ़ दुर्ग एवं यहाँ स्थित मन्दिरों को महमूद गजनवी (ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी), शहाबुद्दीन गौरी (बारहवीं शताब्दी ईस्वी) तथा कुतुबुद्दीन ऐबक (तेरहवीं शताब्दी ईस्वी) के आक्रमणों में भारी क्षति पहुंचाई गई। पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग यह स्थान वसंतगढ़ के नाम से प्रसिद्ध था। इससे स्पष्ट है कि पंद्रहवीं शताब्दी तक भी यहाँ गढ़ मौजूद था।
परमारों का शासन समाप्त होने के बाद महाराणा कुम्भा ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा अपनी चौकी बैठाई। इस क्षेत्र से मिले पंद्रहवीं शताब्दी के एक लेख में इस क्षेत्र पर गुहिल शासक कुंभकर्ण का शासन होने का उल्लेख है। वसंतगढ़ दुर्ग के पूर्व में पंद्रहवीं शताब्दी में बना एक जैन मंदिर है। इस मंदिर में एक प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार इसकी स्थापना कुंभकर्ण के काल में ई.1450 में की गई थी। गुहिलों के बाद, सिरोही के राव सुरताण ने इसे अपने अधिकार में ले लिया।
इस दुर्ग में ई.1899 में पंच-धातु प्रतिमाओं का खजाना प्राप्त हुआ था जो अत्यंत प्राचीन था। दुर्ग परिसर में स्थित अनेक प्राचीन मूर्तियों को विक्रम संवत् 1956 (ई.1899-1900) के भीषण अकाल में स्वर्ण प्राप्ति की अभिलाषा में तोड़ डाला गया। वसंतगढ़ दुर्ग ही राजस्थान में अब एकमात्र चिह्नित दुर्ग है जिसका निर्माण गुप्त काल में हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता