जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह राठौड़ राजवंश की महान् विभूति हुए हैं। उन्होंने भक्ति एवं शृंगार रस से ओत-प्रोत रचनाएं लिखकर साहित्य जगत में अपना स्थान अमर कर लिया है। महाराजा मानसिंह का साहित्य राजस्थानी साहित्य परम्परा के उत्तर-मध्यकाल के अंतर्गत रखा जाता है।
महाराजा मानसिंह का साहित्य साठ ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध है। इन साठ ग्रंथों के अतिरिक्त भी उनकी रचनाएं फुटकर रूप् में मिलती हैं। महाराजा मानसिंह ने डिंगल एवं पिंगल भाषाओं में साहित्य की रचना की। उनके काल में मारवाड़ की चारण जाति डिंगल में एवं राव जाति पिंगल में साहित्य लिखा करती थी। डिंगल से राजस्थानी भाषा का तथा पिंगल से ब्रजभाषा का उदय हुआ था। जोधपुर नरेश मानसिंह इन दोनों भाषाओं में पारंगत थे।
यद्यपि जोधपुर के राठौड़ राजा वंश परम्परा से वैष्णव थे तथापि नाथों के प्रभाव के कारण महाराजा मानसिंह का झुकाव शैव मत की ओर हो गया था। इस पर भी महाराजा मानसिंह ने मारवाड़ राज्य में वैष्णव भक्ति और शैव भक्ति परम्परा दोनों को प्रोत्साहन दिया।
मानसिंह ने अनेक कवियों, कलाकारों और पंडितों को राज्याश्रय और सम्मान दिया। उनकी राजसभा से कवि, गवैये, चित्रकार एवं पंडित आदि निराश होकर नहीं लौटते थे। इसका कारण यह था कि मानसिंह स्वयं एक विराट प्रतिभा से सम्पन्न कवि और चिंतक थे।
राजस्थान के प्रथम इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि मानसिंह उच्चकोटि के कवि और विद्वान थे। मानसिंह के समकालीन अन्य कवियों और विद्वानों ने भी इस तथ्य को स्वीकारा है। राजस्थान के इतिहास ग्रन्थों में भी मानसिंह के साहित्यिक व्यक्तित्व का उल्लेख हुआ है। उनके हस्ताक्षरों में लिखी कुछ रचनायें मेहरानगढ़ के पुस्तक प्रकाश में एवं छीतर की पहाड़ी पर स्थित उम्मेद भवन में संगृहीत हैं।
महाराजा मानसिंह के कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है- 1. नाथ चरित, 2. श्री जालन्धरनाथ रो चरित ग्रन्थ, 3. जलंचर चन्द्रोय, 4. नाथ वर्णन ग्रन्थ, 5. अनुभव मंजरी, 6. नाथ स्तुति, 7. कृष्ण विलास, 8. रास चन्द्रिका, 9. राम विलास, 10. दूहा संजोग शृंगार, 11. राग रत्नाकर, 12. मानसिंह साहबांरी बरगवट रा ख्याल-टप्पा, 13. शृंगार पद, 14. षड़ऋतु वर्णन, 15. चौरासी पदार्थ नामावली कोश, 16. रतना हमीर री वारता।
महाराजा मानसिंह का साहित्य युगीन परिवेश से प्रभावित है। इनकी रचनाओं में शृंगार वर्णन, रीति विवेचन, भक्ति और वैराग्य मिश्रित काव्य, प्रकृति का उद्दीपन आदि विषय प्रमुख रूप से विद्यमान हैं। मानसिंह की शृंगारिक रचनायें मुख्यतः गेय मुक्तकों के रूप में है। नाथभक्ति और दर्शन इनकी रचनाओं का दूसरा प्रमुख विषय है।
राजा मानसिंह लोक में शृंगार और नाथभक्ति के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने राम और कृष्ण के चरित्र से सम्बन्धित काव्य भी लिखे हैं किन्तु समालोचकों का मानना है कि इन पदों में भक्ति का सुष्ठु स्वरूप प्रकट नहीं हुआ है। इस काल की कवि-परम्परा के अनुसरण में ही इन काव्यों की रचना की गई प्रतीत होती है। प्रकृति-चित्रण पर मानसिंह की कुछ स्वतन्त्र कृतियां हैं। इनके काव्य में प्रकृति का चित्रण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मानसिंह ने काव्य के साथ अलंकृत गद्य भी लिखा और पदार्थ नाममाला कोशग्रन्थ भी तैयार किये।
मारवाड़ में मानसिंह के पूर्ववर्ती कवियों में महाराजा जसवन्तसिंह, नरहरिदास, कविवृन्द, नागरीदास, हिमवृन्दावन दास आदि अनेक कवि हुए। इन कवियों का राजस्थानी और ब्रज-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु विषय-विविधता, भाषा-विविधता, काव्य-शास्त्रीय ज्ञान आदि के रूप में जो काव्य-चातुर्य मानसिंह को प्राप्त था, वह उनके पूर्ववर्ती कवियों में उपलब्ध नहीं था। इनमें से किसी भी कवि की मानसिंह से तुलना नहीं की जा सकती।
मानसिंह के समकालीन कवियों में बांकीदास और सूर्यमल मिश्रण प्रमुख थे। बांकीदास मानसिंह के भाषा-गुरु थे, किन्तु काव्यत्व की जो गरिमा मानसिंह में दृष्टिगोचर होती है वह बांकीदास में नहीं है। गुण और परिमाण दोनों दृष्टियों से मानसिंह बांकीदास से श्रेष्ठ ठहरते हैं।
सूर्यमल का राजस्थानी काव्य में महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु मानसिंह का भी उस काल के भक्ति-काव्य, शृंगार, मुक्तक और राशि राशि पद साहित्य के कारण एक पृथक स्थान है। पद साहित्य तो मानसिंह की अपनी निधि है जो सूर्यमल के खाते में शून्य है।
मानसिंह की कविता में रागतत्व की प्रधानता है जो मानसिंह की बड़ी विशेषता है। मानसिंह द्वारा लिखे गए नाथ सम्प्रदाय के ग्रन्थों में नीरस वर्णन भी हैं किन्तु मानव हृदय के सौन्दर्य का मानसिंह के शृंगार और प्रेम काव्य में अत्यन्त मार्मिक चित्रण हुआ है।
नाथ भक्ति साहित्य में मानसिंह विशिष्ट स्थान रखते हैं। राजस्थान में यह सम्प्रदाय बहुत काल से प्रचलित था किन्तु इसमें जो उत्साह मानसिंह के काल में आया, इससे पूर्व के काल में नहीं मिलता।
मानसिंह ने शृंगार और भक्ति पदों में शास्त्रीयसंगीत के साथ लोकसंगीत को भी अपनाया। कवि-कल्पना और प्रेम-माधुर्य को उन्होंने संगीत का परिधान देकर संगीत और काव्यकला दोनों की सेवा की। आज भी मानसिंह के पद लोकवाणी में प्रतिष्ठित हैं। सन्तों और भक्तों को छोड़ कर ऐसे भाग्यवान् कवि विरले ही हैं जो अपने काव्य-लालित्य के कारण लोक-कंठ में सदैव के लिए बस गये हों।
‘रतना हमीर की वारता‘ शैली का अलंकृत डिंगल गद्य मानसिंह की प्रतिभा और कवि-सामर्थ्य का द्योतक है। राजस्थानी में प्रेम-वार्ताओं का अभाव नहीं है किन्तु मानसिंह की गद्यशैली अप्रतिम है। भाषा, छन्द और अलंकार प्रयोग की दृष्टि से भी मानसिंह ने एक से अधिक भाषाओं में साहित्य रचना की है।
यद्यपि काव्य शास्त्रीय दृष्टि से महाराजा मानसिंह का साहित्य कोई नवीन प्रतिमान स्थापित नहीं करता है तथापि विषय-वस्तु एवं अलंकारों की दृष्टि से उनका साहित्य अनेक नवीन प्रयोग करता हुआ दिखाई देता है।