राजस्थान में पर्यटन प्रबन्धन विषय को लेकर लिखी गई पुस्तक ‘राजस्थान में पर्यटन स्थलों का प्रबन्धन तथा लोककलाओं का संरक्षण’ एक विस्तृत शोध पर आधारित है। इसमें राजस्थान के पर्यटन स्थलों एवं लोककलाओं के संरक्षण के विविध आयामों की विस्तार से जानकारी दी गई है।
वाल्मिकि रामायण एवं महाभारत में तीर्थाटन एवं देशाटन के उल्लेख मिलते हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म में अत्यंत प्राचीन काल से तीर्थाटन एवं देशाटन की परम्परा रही है जिसमें ईश्वरीय अवतारों की लीला स्थलियों, मंदिरों, पवित्र नदियों, सरोवरों, देव स्वरूप माने जाने वाले पर्वतों, साधु-संतों की तपःस्थलियों आदि की यात्रा एवं दर्शनों से ईश्वरीय कृपा एवं मोक्ष प्राप्ति का भाव निहित था।
अंग्रेजों के शासनकाल में तीर्थाटन का स्थान पर्यटन ने ले लिया। पर्यटन में तीर्थाटन भी सम्मिलित है किंतु इसमें ऐतिहासिक एवं मनोरम प्रदेशों की यात्रा का भाव अधिक है। आज पूरे संसार में प्रति वर्ष करोड़ां लोग संसार भर में स्थित विविध पर्यटन स्थलों की यात्रा करते हैं।
विश्व पर्यटन संघ द्वारा 1993 में दी गई सर्वमान्य परिभाषा के अनुसार पर्यटन के अंतर्गत व्यक्तियों की वे गतिविधियाँ समाविष्ट हैं जो उनके नित्यप्रति के पर्यावरण से बाहर जाकर यात्रा तथा विश्राम करते हुए सुसम्पन्न की जाती हैं। ये यात्राएं फुर्सत, वाणिज्य-व्यापार तथा अन्य प्रयोजनों की सिद्धि के लिए एक वर्ष के भीतर निरंतर गति से की जानी चाहिये।
इस परिभाषा के अनुसार राजस्थान विश्व पर्यटन के मानचित्र पर प्रमुख स्थान रखता है। यह प्रदेश अपने शौर्यपूर्ण इतिहास, गौरवमयी परम्पराओं, स्वामिभक्ति एवं प्रेम गाथाओं के लिए विख्यात है। यहाँ की सांस्कृतिक परम्पराएँ विश्व भर में अद्वितीय हैं। शौर्यपूर्ण इतिहास एवं लोक जीवन की जटिलताओं ने इस विशिष्ट संस्कृति को जन्म दिया।
राजस्थान के लोगों में जुझारूपन, स्वाभिमान एवं संतोषी प्रकृति का अद्भुत मिश्रण पाया जाता है। यह प्रदेश शौर्य और शृंगार का पर्याय है किंतु धार्मिक विश्वास एवं मानवीय मूल्य यहाँ के लोक जीवन का अधार हैं। इसीलिए यहाँ की संस्कृति शताब्दियों से पर्यटकों को आकर्षित करती रही है।
भारतीय विद्धानों ने ही नहीं अपितु विदेशी विद्धानों यथा कर्नल टॉड, लुईजि पिया टैस्सीटोरी तथा जार्ज ग्रियर्सन आदि ने भी राजस्थानी संस्कृति के वैविध्य एवं उच्चता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
मानीवय सभ्यता की ओजस्विता एवं अविछिन्नता ने भक्ति, साहित्य और कला को अपने में समेटकर राजस्थान की गरिमामयी संस्कृति में उदारता, शौर्य एवं दृढ़ता का संचार किया है। यहाँ के सांस्कृतिक पक्ष की सबसे बड़ी विशेषता है, उसमें विद्यमान सौन्दर्य एवं कल्याण तत्व की प्रबलता। राजस्थान के लोक जीवन में विद्यमान नैतिक गुणों एवं संस्कारों में मानवीय मूल्यों की भरमार है।
राजस्थान के निवासियों के जीवन दर्शन से लेकर उनके खान-पान, ग्राम्य संस्कृति, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक वाद्य, माण्डणे, घर आंगन को सजाने-संवारने की कला, विविध ललित कलाएँ, लोक कलाएँ, हस्तकलाएँ आदि देशी-विदेशी पर्यटकों को लुभाती हैं। यही कारण है कि बहुत से पर्यटक राज्य के प्रमुख दर्शनीय स्थलों के अवलोकन के साथ-साथ ग्रामीण अंचल में पर्यटन की संभावनाओं को खोजते दिखाई देते हैं।
राजस्थान में मांगणियार, लंगा, दमामी, संपेरा, भाण्ड आदि अनेक ऐसे जातीय समुदाय निवास करते हैं जिनकी आजीविका लोककलाओं के प्रदर्शन पर निर्भर है। समाज का बहुत बड़ा वर्ग चाक्षुष कलाओं से जुड़ा हुआ है। जुलाहा, कंसारा, कुंभकार, हस्तशिल्पि, मूर्तिकार, चित्रकार आदि लोककलाकारों द्वारा निर्मित कलाकृतियां, हस्तशिल्प, मूर्तियां, चित्र, आभूषण एवं वस्त्र आदि देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए बहुत बडे़ आकर्षण हैं।
पर्यटकों द्वारा की जाने वाली खरीददारी से ही इन कलाकारों की आजीविका का प्रबन्ध होता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि देशी एवं विदेशी पर्यटकों का प्रवाह राज्य में बने रहने के लिए पर्यटन स्थलों का संरक्षण एवं विकास हो, साथ ही राज्य की लोककलाओं एवं उनसे सम्बद्ध कलाकारों के संरक्षण, प्रशिक्षण एवं उन्नयन के लिए भी समुचित प्रबन्धन किया जाए।
प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान में पर्यटन स्थलों, लोककलाओं एवं लोककलाकारों के संरक्षण की स्थिति का विवेचन किया गया है। यद्यपि राजस्थान में दूर-दूर तक फैले पर्यटन स्थलों, कलाओं की विविधताओं, लोककलाकारों की समस्याओं और वित्तीय सीमाओं के उपरांत भी पर्यटन क्षेत्र का प्रबन्धन सफलता पूर्वक किया जा रहा है तथापि बहुत कुछ किया जाना शेष है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता