राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति ग्रंथ के लेखन का उद्देश्य राजस्थान प्रदेश में विगत हजारों वर्षों से पल्लवित एवं पुष्पित मानव सभ्यता द्वारा विकसित एवं स्थापित परम्पराओं, सिद्धांतों एवं व्यवहार में लाई जाने वाली बातों में से उन गूढ़ तथ्यों को रेखांकित करना है जिनके द्वारा राजस्थान की संस्कृति ने पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए मानव को आनंददायी जीवन की ओर अग्रसर किया है।
मानव सभ्यता प्रकृति की कोख से प्रकट होती है तथा उसी के अंक में पल कर विकसित होती है। मानव सभ्यता को जो कुछ भी मिलता है, प्रकृति से ही मिलता है। इस कारण किसी भी प्रदेश की सभ्यता को, प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करना होता है। प्रकृति के विपरीत किया गया आचरण, अंततः मानव सभ्यता के विनाश का कारण बनता है।
प्रकृति ने अपनी सुरक्षा के लिये जिस आवरण का निर्माण किया है, वह है धरती का पर्यावरण। धरती का पर्यावरण ही सम्पूर्ण प्रकृति को जीवन रूपी तत्त्व से समृद्ध एवं परिपूर्ण रखने में सक्षम बनाता है। धरती का पर्यावरण बहुत सी वेगवान शक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करती हैं, एक-दूसरे को गति देती हैं और एक दूसरे को सार्थकता प्रदान करती हैं।
ठीक इसी तरह अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिये सम्पूर्ण धरती एक जीवित कोशिका की तरह कार्य करती है। जिस तरह एक कोशिका में स्थित समस्त अवयव एक दूसरे के अनुकूल रहकर, कोशिका को जीवित रखने, स्वस्थ रखने और कार्य करने की क्षमता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह धरती पर मौजूद प्रत्येक तत्त्व को एक दूसरे के अनुकूल आचरण करना होता है, अन्यथा धरती का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ सकता है।
पर्यावरणीय संस्कृति से आशय मानव द्वारा प्राकृतिक शक्तियों के दोहन में संतुलन एवं अनुशासन स्थापित करने से है। इस अनुशासन के भंग होने पर प्रकृति कठोर होकर मानव सभ्यता को दण्डित करती है। उदाहरण के लिये यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये समस्त वनों को एक साथ काट ले तो मानसून नामक शक्ति हमसे बदला लेती है। वनों के कट जाने पर वर्षा या तो होती ही नहीं है और यदि होती है तो बाढ़ को जन्म देती है।
इसके विपरीत, यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सीमित मात्रा में पेड़ों को काटे तथा साथ-साथ नये पेड़ लगाना जारी रखे तो प्रकृति का संतुलन बना रहेगा।
इस प्रकार पर्यावरणीय संस्कृति से आशय एक ऐसी सरल जीवन शैली से है जो मानव जीवन को सुखद एवं आरामदायक बनाती है तथा पर्यावरण को भी नष्ट नहीं होने देती। राजस्थान की संस्कृति के विभिन्न आयाम इसी गहन तत्त्व को ध्यान में रखकर स्थापित किये गये हैं जिनका विवेचन इस पुस्तक में करने का प्रयास किया गया है। राजस्थान की संस्कृति में ऐसे बहुत से बारीक एवं गहन गम्भीर तत्त्व उपस्थित हैं जो मानव को यह चेतना प्रदान करते हैं कि प्रकृति का उपयोग कबीर की चद्दर की तरह किया जाये-
दास कबीर जतन कर ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्ह चदरिया।
आशा है यह पुस्तक हमारी नई पीढ़ी का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करने का सफल प्रयास करेगी कि मानव प्रकृति का पुत्र है, पर्यावरण प्रकृति की चद्दर है तथा हमें प्रकृति रूपी माँ की इस चद्दर को सुरक्षित रखना है। यह तभी संभव है जब हम अपने पुरखों द्वारा विकसित की गई सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने प्रयास निरंतर जारी रखें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता