नागौर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास महाभारत युद्ध से भी पहले आरम्भ होता है। यह क्षेत्र मानव सभ्यता में गणराज्यीय व्यवस्था के उदय होने का प्रारम्भिक गवाह है।
नागौर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का प्रथम संस्करण वर्ष 1999 में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ को विपुल प्रसिद्धि प्राप्त हुई तथा अनेक विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों ने अपने शोध कार्य के लिए आधार बनाया। विगत कई वर्षों से यह प्रथम संस्करण अनुपलब्ध हो गया था किंतु समयाभाव के कारण दूसरा संस्करण समय पर प्रकाशित नहीं किया जा सका। वर्तमान समय में उपलब्ध नवीन शोध-सामग्री के आधार पर द्वितीय संस्करण को परिमार्जित कर दिया गया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान के इतिहास लेखन की परम्परा वंशावलियों, बहियों एवं ख्यातों से आरम्भ हुई। मूथा नैणसी को ख्यात लेखन की परम्परा का जनक माना जा सकता है। दयालदास आदि ने भी ख्यातों के माध्यम से राजस्थान का इतिहास लिखा। राजस्थान के इतिहास लेखन को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने का प्रथम प्रयास कर्नल जेम्स टॉड का माना जाता है। उनके कार्य को अर्सकाइन आदि अंग्रेज अधिकारियों ने गजेटियरों के माध्यम से आगे बढ़ाया। बीसवीं सदी में कविराजा श्यामलदास, पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जगदीशसिंह गहलोत, विश्वेश्वरनाथ रेउ, पण्डित रामकरण आसोपा, मथुरालाल शर्मा आदि ने इतिहास लेखन को आगे बढ़ाया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इतिहास लेखन का कार्य नये सिरे से आरंभ हुआ। डा. दशरथ शर्मा, डा. गोपीनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने राजस्थान के इतिहास लेखन को नवीन दिशा एवं दृष्टि प्रदान की। बाद में राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ सामाजिक इतिहास भी लिखा जाने लगा। अब आर्थिक इतिहास को भी इतिहास लेखन का महत्वपूर्ण अंग मान लिया गाय है।
विगत एक शताब्दी में प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाली पुरा सामग्री यथा शिलालेख, मुद्राएं, मूर्तियां, मंदिर, दुर्ग, बावड़ियां, ताम्रपत्र आदि बड़ी संख्या में सामने आये हैं। इस अवधि में देश के विभिन्न स्थानों पर स्थापित अभिलेखागारों, संग्रहालयों, ग्रन्थालयों तथा शोध-संस्थानों में बड़ी भारी मात्रा में लिखित सामग्री एकत्र की गई है। इन सबका उपयोग करके राजस्थान में प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक काल के इतिहास का लेखन किया जा रहा है।
राजस्थान के भौगोलिक मानचित्र के बीचों-बीच स्थित नागौर जिले का इतिहास हर दृष्टि से समृद्ध रहा है। वैज्ञानिकों, पुरातत्ववेत्ताओं एवं द्वारा की गई शोधों के आधार पर आज हमारे पास उस काल का इतिहास लिखने के लिए अरावली पर्वतमाला के घिस कर नष्ट होने तथा अपने चरणों में स्थित समुद्री क्षेत्र को पाटकर भूमि के अस्तित्व में आने से लेकर प्राक्इतिहास, प्रस्तरकाल, धातुकाल तक के इतिहास की अच्छी जानकारी उपलब्ध है।
ईसा पूर्व की शताब्दियों में सिकन्दर के भारत आक्रमण के बाद मध्य राजस्थान में पंजाब से आये यौधेय, मालव, साल्व, उत्तमभद्र तथा अर्जुनायन आदि गणों के इस क्षेत्र में बसने तथा कालान्तर में यूनानियों, कुषाणों एवं शकों आदि विदेशी जातियों के इस क्षेत्र में सत्ता स्थापित करने के सम्बन्ध में यद्यपि बहुत कम ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं, फिर भी उस काल की मुद्राएं इस दिशा में हमारा मार्ग दर्शन करती हैं। कुछ शिलालेख भी शकों एवं कुषाणोंके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ईसा बाद की दूसरी एवं तीसरी शताब्दियों में पश्चिमी राजस्थान में भारतीय गणों द्वारा विदेशी जातियों के विरुद्ध एक बड़ा अभियान चलाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं।
इतिहासकारों की अब तक की मान्यता रही है कि पश्चिमी राजस्थान से शकों को खदेड़ने वाला गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय था, किन्तु ‘नागौर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास’ ग्रंथ ने पूर्व-प्रचलित धारणा के विपरीत सर्वथा नवीन तर्क, साक्ष्य एवं तथ्य प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया है कि शकों की पराजय का श्रेय गुप्तों को नहीं वरन् नागों को दिया जाना चाहिये। गुर्जरों, चौहानों तथा प्रतिहारों के सम्बन्ध में भी नागौर के इतिहास के सन्दर्भ में नवीन तथ्य उपलब्ध करवाये गये हैं। डीडवाना, लाडनूं, डेगाना आदि से प्राप्त प्रतिहारों के सिक्के, ताम्रपत्र एवं शिलालेख भी इस पुस्तक में साक्ष्य के रूप में प्रयोग किये गये हैं।
मोहम्मद गजनवी के वंशज मोहम्मद बाहलीम द्वारा नागौर पर अधिकार जमा कर चौहान राजवंश में मुसलमानों द्वारा घुसपैठ आरंभ की गई। तब से लेकर ईस्वी 1192 में पृथ्वीराज चौहान के पतन एवं उसके पश्चात् नागौर जिले में मुस्लिम सत्ता की स्थापना के सम्बन्ध में भी काफी जानकारी मिलती है।
राजपूत काल में नागौर के विशाल क्षेत्र पर दहिया राजवंश का शासन था जो शाकंभरी के चौहानों के अधीन रहकर शासन करते थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि प्राचीन यौधेय नामक क्षत्रिय जाति की हिन्दू धर्म में बने रहने वाली शाखा दहिया कहलाई, जबकि यौधेयों की इस्लाम में रूपान्तरित हुई शाखा जोहियों के नाम से जानी गई। दहिया चौहानों के सबसे बड़े मित्र थे, किन्तु बारहवीं शताब्दी ईस्वी में अल्लाउद्दीन खिलजी के आक्रमण काल में दहियों ने चौहानों से विश्वासघात करके इस मित्रता को भंग कर दिया। परिणाम स्वरूप परबतसर, मारोठ, सांचौर तथा अन्य सभी स्थानों से चौहानों ने दहियों को राज्यच्युत कर दिया।
चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में बदायूं से आए राठौड़ों ने थार मरुस्थल के विशाल भूभाग में प्रबल सत्ता स्थापित की जिसे मारवाड़ राज्य के नाम से जाना गया। जोधपुर, मेड़ता, नागौर तथा बीकानेर में राव जोधा राठौड़ एवं उसके वंशजों ने अलग-अलग राज्य स्थापित किये किन्तु शताब्दियों तक चले संघर्ष के पश्चात् मारवाड़ में राठौड़ों के दो ही प्रबल केन्द्र जोधपुर एवं बीकानेर रह गये। फिर भी मध्यकालीन इतिहास में विशेषकर मेवाड़, अजमेर, जोधपुर तथा सांभर आदि क्षेत्रों में मेड़ता तथा नागौर के राठौड़ों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका वर्णन विस्तार के साथ इस पुस्तक में हुआ है।
राठौड़ों के काल में नागौर के क्षेत्र में अनेक छोटे-छोटे ठिकाने अस्तित्व में थे जो जोधपुर के राठौड़ों के अधीन रहकर शासन करते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये जन सामान्य द्वारा किया गया आन्दोलन, मारवाड़ हितकारिणी सभा, मारवाड़ लोक परिषद तथा यूथलीग द्वारा किये गये आन्दोलन को भी इस पुस्तक में स्थान दिया गया है।
पुस्तक के दूसरे खण्ड ‘स्वातन्त्रयोत्तर नागौर का इतिहास’ के अंतर्गत मानव अधिवास, लोक-प्रतिनिधित्व, प्रशासन, नागौर जिले में पत्रकारिता का विकास, सांस्कृतिक विरासत, व्यक्ति परिचय, हस्तशिल्प आदि अध्याय रखे गये हैं। आजादी के बाद के इतिहास पर यह खण्ड महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करवाता है। पुस्तक में पांच परिशिष्ट देकर विश्वसनीय शोध सामग्री उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है।
नागौर जिले में जाट जाति बड़ी संख्या में निवास करती है। जाट परिशिष्ट में जाटों की उत्पत्ति एवं इतिहास की विवेचना की गई है। प्रमुख नगर एवं गांव नामक परिशिष्ट में जिले के लगभग 50 कस्बों एवं गांवों पर ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध करवाई गई है जो सामाजिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नागौर जिले से प्राप्त सिक्के, नागौर के राजाओं द्वारा चलाये गये सिक्के तथा नागौर की टकसाल में जोधपुर शासकों द्वारा ढाले गये सिक्के, नागौर के राजनीतिक एवं प्रशासनिक इतिहास की पर्याप्त जानकारी उपलब्ध करवाते हैं। यह जानकारी परिशिष्ट तीन में संजोयी गई है।
जिले से प्राप्त शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों की जानकारी देने वाले 40 पृष्ठ इस पुस्तक का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। अंतिम परिशिष्ट भी शोधकर्ताओं के लिये एक विस्तृत सूची प्रस्तुत करता है। इसमें यह जानकारी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि नागौर के इतिहास लेखन के सन्दर्भ में शोध सामग्री कहां-कहां से जुटाई जा सकती है।
आशा है, पहले संस्करण की तरह पुस्तक का यह दूसरा संस्करण भी विभिन्न रुचियों वाले पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता