अजमेर का वृहत् इतिहास अजमेर नगर की स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक के इतिहास को समेटता है। अजमेर का इतिहास वस्तुतः भारत के युग-युगीन इतिहास का दर्पण है।
अजमेर का भारत के इतिहास में क्या महत्व है, वह ब्रिटिश शासन काल में कही जाने वाली कहावत- ‘वन हू रूल्स अजमेर, रूल्स इण्डिया’ से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। अजमेर न केवल राजस्थान के मध्य में है अपितु उत्तर भारत के भी लगभग मध्य में है। पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर अपना शासन इसीलिये स्थापित कर सका क्योंकि वह अजमेर का शासक था। भारत पर मुस्लिम आधिपत्य से पहले ही मुहम्मद गौरी ने अजमेर के राजनीतिक महत्त्व को भली भांति समझ लिया था। तभी तो मुहम्मद गौरी से लेकर दिल्ली सल्तनत के अधिकांश बादशाहों ने अजमेर पर अपना नियंत्रण कड़ाई से बनाये रखा।
मुहम्मद बिन तुगलक ने कभी भी दिल्ली को भारत की राजधानी के लिये उपयुक्त नहीं समझा, इसलिये वह अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दौलताबाद ले गया किंतु उसे भी राजधानी के रूप में अनुपयुक्त पाकर पुनः अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया। मारवाड़ के राठौड़ शासक भी दिल्ली की राजनीति में इसीलिये गहरी पकड़ बनाये रख पाये क्योंकि अजमेर प्रायः उनके अधीन रहा। मेवाड़ के राणाओं ने अजमेर प्राप्त करने के लिये अपने स्वाभाविक मित्र राठौड़ों से शत्रुता की। दिल्ली सल्तनत के पराभव के बाद शेरशाह सूरी ने अजमेर को अपने अधीन लेने के लिये अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर मारवाड़ के राठौड़ों पर आक्रमण किया तथा अजमेर को अपने अधीन किया।
जब अकबर ने भारत पर अपना शिकंजा कसना आरम्भ किया तो अजमेर की महत्ता उसकी दृष्टि से छिपी न रह सकी। अजमेर को स्थाई रूप से मुस्लिम प्रभाव में रखने के लिये उसने ख्वाजा की दरगाह के माध्यम से अजमेर को मुस्लिम राजधानी का रूप देने का प्रयास किया। अकबर से लेकर फर्रूखसीयर तक अजमेर मुगलों की सैनिक छावनी बना रहा।
मुगलों के कमजोर पड़ जाने पर जयपुर के कच्छवाहों ने अजमेर पर अधिकार करने के लिये अपने स्वाभाविक मित्रों अर्थात् राठौड़ शासकों से विश्वासघात किया और उनकी हत्याएं करवाईं। मराठों ने भी अजमेर पर अधिकार जमाने के लिये ई.1737 से ई.1800 तक राठौड़ों से लम्बा संघर्ष किया।
उस काल में उत्तरी भारत की दो महान शक्तियां- महादजी सिंधिया तथा मारवाड़ नरेश महाराजा विजयसिंह तब तक लड़ते रहे, जब तक कि दोनों ही लड़कर नष्ट नहीं हो गये।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जब व्यापारिक कम्पनी का चोला उतारकर भारत सरकार के रूप में अवतार लिया तो उसने मराठों को धन देकर अजमेर खरीदा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अजमेर को अपनी प्रादेशिक राजधानी बनाया तथा नसीराबाद में सैनिक छावनी स्थापित की।
अजमेर से ही राजपूताने के सारे राजाओं की नकेलें कसी गईं। जैसे-जैसे समय बीतता गया, अजमेर का महत्व बढ़ता गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की आंधी लाने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी अजमेर को अपनी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बनाया।
बीसवीं सदी में हर बिलास शारदा की आवाज पूरे भारत में इसलीये ध्यान देकर सुनी गई क्योंकि वे केन्द्रीय विधान सभा में अजमेर सीट से मनोनीत किये जाते थे। उन्होंने पूरे देश के लिये बाल विवाह निषेध का जो कानून बनवाया वह आज भी शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है।
जिस अजमेर नगर ने हर युग में भारत वर्ष के बड़े से बड़े शासक की नींद उजाड़ी हो तथा जिस अजमेर के लिये लाखों मनुष्यों ने अपने बलिदान दिये हों, उस अजमेर नगर का इतिहास लिखना अत्यंत दुष्कर कार्य है। फिर भी मैं इसे लिखने का साहस जुटा सका तो केवल इसलिये कि मैं चार वर्ष तक अजमेर में रहा। मैंने अजमेर को पहली बार ई.1968 में देखा। दूसरी बार मैं अगस्त 1980 से अप्रेल 1984 तक दयानंद महाविद्यालय अजमेर का विद्यार्थी रहा।
अपने अजमेर प्रवास के दौरान मैंने इस नगर की आत्मा के दर्शन किये और इस नगर की धड़कनों को सुना। मैंने राजकुमार लोत के विजयनाद को सुना। अरणोराज और बीसलदेव के विजयी घोड़ों की टापों को सुना। मैंने कवि चंद बरदाई के कवित्त और तारागढ़ के पहाड़ी से टकराती हुई पृथ्वीराज चौहान की बेबस चीखों को सुना। मैंने संयोगिता की उन सिसकियों को सुना जो आज भी इतिहास के नेपथ्य में सिसक रही हैं। मैंने उमादे के उन विरह गीतों को सुना जो अजमेर की पहाड़ियों में भटका करते हैं। मेरे द्वारा सुनी गईं वे सब ध्वनियां ही आज इस ग्रंथ के रूप में आपके हाथों में हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता