इस आलेख में हम मारवाड़ क्षेत्र में नौंवी से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच निर्मित तीन ऐसे प्रतिहार कालीन मंदिरों पर विचार कर रहे हैं जिनमें रामकथा का शिल्पांकन किया गया है।
मारवाड़ का क्षेत्र थार रेगिस्तान में स्थित है। अत्यंत प्राचीन काल में जबकि किसी तरह के संचार एवं परिवहन साधन विकसित नहीं हुए थे, तब भी थार रेगिस्तान में रहने वाले लोग रामकथा से वैसे ही परिचित थे जैसे कि आज हैं। जिस काल में रामकथा को लेकर मानव समाज के पास वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण जैसी इक्का-दुक्का पुस्तकें ही उपलब्ध थीं, उस काल में मंदिरों में रामकथा का शिल्पांकन करके जनसाधारण को रामकथा के प्रसंगों से परिचित करवाया जाता था।
ये मंदिर हैं दधिमती माता मंदिर गोठ-मांगलोद, शिवमंदिर केकींद तथा शिव मंदिर किराडू। इन तीनों मंदिरों में शिल्पांकित रामकथा प्रसंग अयोध्या के राजकुमार श्रीराम के वनवासी जीवन के हैं। वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण में ये प्रसंग अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड एवं युद्ध काण्ड में वर्णित हैं। इन तीनों मंदिरों में एक भी दृश्य ऐसा नहीं है जिसमें श्रीराम मुकुट अथवा आभूषण धारण किए हुए हों, समस्त प्रसंग धनुर्धारी श्रीराम के स्वरूप का अंकन करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इन मंदिरों के निर्माता समाज के समक्ष सत्य के लिए संघर्ष करने का आदर्श रखना चाहते थे।
इन मंदिरों में रामकथा का शिल्पांकन इस दृष्टि से ध्यान खींचने वाला है कि प्रतिहार कालीन मंदिरों में रामकथा के प्रसंगों का अंकन नहीं होता था किंतु ये तीनों ही मंदिर इस परम्परा के अपवाद हैं।
दधिमती माता मंदिर गोठ-मांगलोद
दधिमती माता मंदिर का गर्भगृह गुप्तकालीन है तथा इसका शिखर प्रतिहार काल में बना। पर्याप्त संभव है कि गुप्त काल में इस स्थान पर जो मंदिर था, उसे आक्रांताओं ने तोड़ डाला तथा गुप्तकालीन गर्भगृह पर ही प्रतिहार काल में नवीन शिखर एवं सभामण्डप आदि बना लिए गए।
भारत में गुप्त सम्राटों का काल चौथी शताब्दी ईस्वी से छठी शताब्दी ईस्वी तक रहा और प्रतिहारों का काल सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक रहा। दधिमाता मंदिर का स्थापत्य इन दोनों ही काल में बने मंदिरों की विशेषताओं को प्रदर्शित करता है।
दधिमाता मंदिर की जंघा के ऊपर की वरण्डिका के अन्तरपट्ट पर रामकथा का शिल्पांकन किया गया है। प्रसिद्ध पुरातत्वविद् विजयशंकर श्रीवास्तव ने दधिमती माता मंदिर के पुरातत्व को अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण बताया है। उनके अनुसार राजस्थान की प्रतिहार कालीन मूर्तिकला में रामायण दृश्यावली का प्राचीनतम अंकन दधिमती माता मंदिर में ही मिलता है।
डॉ. ब्रजमोहन जावलिया ने श्रीवास्तव के निष्कर्ष का समर्थन किया है तथा दधिमती माता मंदिर में शिल्पांकित प्रतिहार कालीन रामायण दृश्यांकन को राजस्थान में सर्वाधिक प्राचीन माना है। विजयशंकर श्रीवास्तव के अनुसार दधिमती माता के मंदिर की रामायण दृश्यावली प्रतिहारकालीन है तथा यह मंदिर प्रतिहार नरेश भोजदेव प्रथम (ई.836-892) के समय में बना।
दधिमती माता मंदिर के शिखर तथा मण्डोवर की मध्यवर्ती बाह्य कंठिका में रामकथा से सम्बन्धित 15 आयताकार श्वेत पीत प्रस्तर फलक लगभग पूर्ण सुरक्षित एवं अखण्डित हैं। इन प्रस्तर फलकों पर रामकथा प्रसंग मध्यवर्ती कंठिका पर दक्षिण-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम उत्तर तथा उत्तर-पूर्व के क्रम से लगे हुए हैं।
मंदिर के शिखर पर कंठिका के दक्षिण पूर्व से दक्षिण पश्चिम के प्रथम तीन फलक अरण्यकाण्ड से सम्बन्धित हैं। प्रारम्भ खर, दूषण एवं त्रिशरा राक्षसों के युद्ध से होता है तथा तीसरे फलक में स्वर्णमृग (मारीच) वध, रावण द्वारा जटायु को घायल करना, सीता का हरण और अरण्यकाण्ड का अन्तिम प्रसंग, राम लक्ष्मण की उपस्थिति में शबरी की शरणागति, प्राणोत्सर्ग तथा दिव्य स्वरूप प्राप्त करने के दृश्य अंकित हैं।
दक्षिण-पश्चिम के दो फलक किष्किन्धा काण्ड से सम्बन्धित हैं, जिनमें श्रीराम द्वारा सात ताल वृक्षों का भेदन तथा बाली-सुग्रीव का द्वन्दयुद्ध अंकित है। इसके अगले फलक में श्रीराम तथा बाली संवाद, अंगद की शरणागति तथा श्रीराम का समुद्र पर (मार्ग न देने पर) क्रोध तथा समुद्र का समर्पण दर्शाया गया है।
मध्यवर्ती कंठिका के दक्षिण-पश्चिम से पश्चिमोत्तर तथा उत्तर-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर दस फलक युद्धकाण्ड से सम्बन्धित हैं जिनका आरम्भ सेतुबन्ध तथा राम-लक्ष्मण की सुग्रीव के साथ युद्ध मंत्रणा से होता है तथा अन्तिम दो शिला फलकों में रावणवध तथा राम-लक्ष्मण एवं सीता के अयोध्या आगमन का शिल्पांकन है।
भगवान श्रीराम को राजपुरुष या विष्णु अवतार के रूप में नहीं दर्शाया गया है अपितु वनवासी रूप में जटामुकुट धारण किये हुए, धनुष लिए व पीठ पर तरकस बांधे प्रत्यालीढ़ मुद्रा में अंकित किया गया है। कुशल शिल्पकार ने रामकथा का सूक्ष्म अध्ययन कर उन्हीं प्रसंगों का शिल्पांकन किया, जिनमें श्रीराम एवं लक्ष्मण का शौर्य एवं युद्ध-कौशल प्रदर्शित होता हो।
परम्परागत रूप से रामकथा प्रसंगों को प्रायः शिव मंदिरों तथा विष्णु मंदिर एवं दशावतार मंदिरों के जंघा भाग अथवा सभामण्डपों में किया गया है। यह सुखद आश्चर्य है कि दधिमती माता देवी मंदिर में रामकथा के विशेष प्रसंगों को कुशलता के साथ शिलांकन किया गया है।
नीलकण्ठेश्वर शिव मंदिर – केकीन्द
नागौर जिले की मेड़ता तहसील के केकीन्द (किष्किन्धा, जसनगर) में नीलकण्ठेश्वर महादेव का पूर्वाभिमुखी प्रदक्षिणा-पथ रहित प्राचीन मंदिर है, जो दसवीं शताब्दी में निर्मित हुआ। इसका स्थापत्य आकर्षक है। इसके सभामण्डप में भी रामकथा रामकथा का शिल्पांकन किया गया है। इसमें रामजी के वनवास से सम्बन्धित प्रसंगों को कुशलता के साथ उत्कीर्ण किया गया है।
सोमेश्वर शिव मंदिर – किराडू
बाड़मेर जिले के किरातकूप (किराडू) में 11वीं शताब्दी ईस्वी में सोमेश्वर शिव मंदिर बना। इस मंदिर में भी रामकथा के प्रसंगों का सुंदर शिल्पांकन किया गया है। इस मंदिर को महमूद गजनवी के सैनिकों ने विध्वंस कर दिया था, तथापि रामकथा के शिल्पांकन सुरक्षित हैं।
प्रतिहार मंदिरों में अनुपस्थित है रामकथा का शिल्पांकन
प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है क्योंकि वे मूलतः गुर्जर प्रदेश के शासक थे और वहाँ से आगे बढ़कर उन्होंने उज्जैन, कन्नौज एवं बंगाल तक अपनी विजय पताका फहराई।
राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. आर. सी अग्रवाल के अनुसार गुर्जर-प्रतिहार युग के शिलालेखों में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण से गुर्जर-नृपवन्द का अटूट सम्बन्ध दर्शाया गया है। मारवाड़ क्षेत्र के प्रतिहार नरेश बाऊक की वि.सं. 894 की प्रशस्ति में वर्णित है कि लक्ष्मण के वंशज ही प्रतिहार थे। इतना होते हुए भी गुर्जर-नृपों द्वारा प्रस्तर कला में राम भक्ति का प्रदर्शन संभव न हो सका। अर्थात् प्रतिहार कालीन मंदिर में रामकथा का शिल्पांकन अनुपस्थित है।
प्राचीन राजधानी मण्डोर (जोधपुर) में बहुत सी मूर्तियां मिली हैं परन्तु रामायण विषयक सामग्री सर्वथा अप्राप्य है। यह भी आश्चर्यजनक घटना है कि ओसियां में विष्णु के बुद्धावतार तथा श्री कृष्णलीला के प्रसंगों का शिलोत्कर्णन हुआ किंतु यहाँ भी रामावतार का भाव दृष्टिगोचर नहीं होता।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहासकार एवं मूर्तिकला विशेषज्ञ डॉ. कमल गिरि ने गुर्जर प्रतिहार मूर्तिकला के अध्याय में लिखा है कि कन्नौज और राजस्थान में ओसियां प्रतिहार कला के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र थे। ओसियां के मंदिरों में कृष्णचरित से सम्बन्धित दृश्यांकन हैं। रामकथा से सम्बन्धित दृश्यों का ओसियां में न मिलना आश्चर्यजनक है।
ई.1981 में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठी में प्रस्तुत शोधपत्र में सी. मार्गबन्धु ने स्पष्ट किया है कि प्रतिहारों के प्रमुख केन्द्र मण्ड (जोधपुर) में भी रामकथा शिलोत्कीर्ण नहीं है।
अमेरिकन इंस्टिट्यूट आफ इण्डियन स्टडीज के शिल्प विशेषज्ञ एम. डब्ल्यू. माइस्टर तथा एस. ए. ढाकी ने मंदिर शिखर के नीचे मध्यवर्ती कंटिका में शिलोत्कीर्ण रामकथा प्रसंगों की प्राचीनता पर पुनरावलोकन की आवश्यकता बताई है।
सूर्य मंदिर – मोढेरा
गुजरात के मोढेरा कस्बे में एक प्रतिहार कालीन सूर्यमंदिर है। इस मंदिर में भी रामकथा का शिल्पांकन हुआ है। वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण के अनुसार भगवान राम सूर्यवंशी थे तथा उन्होंने रावण से युद्ध करने से पहले सूर्यदेव की उपासना की थी। संभवतः इसी सम्बन्ध से इस मंदिर में रामकथा के प्रसंग उत्कीर्ण किए गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता