राजस्थान में वर्षा एवं जल संरक्षण शब्दावली कई प्रकार से महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि रेगिस्तानी क्षेत्र होने के कारण राजस्थान में वर्षा बहुत कम होती है तथा वर्षा होने पर चारों ओर उत्सव मनाए जाते हैं। वर्षा की कमी के कारण राज्य में जलसंरक्षण का विशेष महत्व है।
इस लेख में राजस्थान में वर्षा एवं जल सरंक्षण शब्दावली का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
आगौर: वर्षा जल को नाडी या तालाब में उतारने के लिये उसके चारों ओर मिट्टी को दबाकर आगौर बनाया जाता है।
उभ: उभ, बहादल, एहलूर, गोगभीण, कांठल, बावल, मदरी, एलूर, लाड़ी, भुर्ज, गूंगी, जीखां, ककर, लूरी, झुड़, काराण, शीडमी, सुआ, लड़, धराऊ; ये सब वर्षा के प्रकार हैं। बादल के रंग, वर्षा के जोर तथा मेह की दिशा के आधार पर वर्षा को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं।
कच्चा पाणी: बेरियों के पानी को कच्चा पाणी कहा जाता है।
गड़ा: वर्षा के साथ गिरने वाले ओले।
टांका: वर्षा जल एकत्रित करने के लिये बनाया गया हौद।
तालर: जिस भूमि पर पानी जमा होता है तथा लम्बे समय तक पड़ा रहता है, उस भूमि को तालर कहते हैं।
नाड़ी (नाडी): छोटी तलैया जिसमें वर्षा का जल भर जाता है।
नेहटा (नेष्टा): नाडी अथवा तालाब से अतिरिक्त जल की निकासी के लिये उनके साथ नेहटा बनाया जाता है जिससे होकर अतिरिक्त जल निकट स्थित दूसरी नाडी, तालाब या खेत में चला जाये।
पालर पाणी: नाडी या टांके में जमा वर्षा का जल।
बाला: बहते हुए वर्षा जल को उसकी चाल के अनुसार बाला, आड या रेला कहते हैं।
बावड़ी: वापिका, वापी, कर्कन्धु, शकन्धु। पश्चिमी राजस्थान में इस तरह के कुएं खोदने की परम्परा ईसा की पहली शताब्दी के लगभग, शक जाति अपने साथ लेकर आई थी। जोधपुर व भीनमाल में आज भी 700-800 ईस्वी में बनी प्राचीन बावड़ियां स्थित हैं।
बेरी: छोटा कुआँ अथवा कुईयाँ।
भाकल पाणी: कुएं के पानी को पक्का पाणी या भाकल पानी कहा जाता है।
मदार: नाडी या तालाब में जल आने के लिये निर्धारित की गई धरती की सीमा को मदार कहते हैं। मदार की सीमा में मल-मूत्र का त्याग वर्जित होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्षा एवं जल संरक्षण शब्दावली बड़ी विशिष्ट है। ये शब्द केवल राजस्थान में ही व्यवहार में लाए जाते हैं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता