जयपुर नगर की स्थापना अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत की प्रमुख घटनाओं में से एक थी। सवाई जयसिंह को स्थापत्य कला से विशेष लगाव था। वह अपनी राजधानी को मुगल शासकों की भांति भव्य, सुंदर एवं सुविधाजनक बनाना चाहता था। प्रारम्भ में उसने आमेर में कुछ भवन बनवाये परन्तु जब उसने देखा कि आमेर में विस्तार की अधिक सम्भावना नहीं है तो उसने अपनी राजधानी के लिये एक नया नगर स्थापित करने का निश्चय किया।
इस नगर को बसाने की योजना अपने काल से बहुत आगे की थी क्योंकि इस काल में मदमत्त मरहठे उत्तर भारत को रौंदना आरम्भ कर चुके थे तथा अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं के आक्रमण अभी रुके नहीं थे। ऐसी स्थिति में किसी भी राजा के लिये अपनी राजधानी को दुर्ग की परिधि के भीतर ही सुरक्षित रखना सुविधा जनक था।
फिर भी जयसिंह ने ऐसे नगर के निर्माण का निर्णय लिया जो मोटी प्राचीर तथा रक्षक सैनिकों से घिरा हुआ हो। यद्यपि सवाई जयसिंह ने 18 नवम्बर 1727 को अपने नाम से ‘जयपुर’नगर का शिलान्यास किया तथापि 1725 ई. में जयपुर नगर की स्थापना के लिये प्रारम्भिक कार्य आरम्भ हो गये थे। जयपुर की नगर योजना तैयार करने के लिए एक बंगाली ब्राहाण विद्याधर भट्टाचार्य को आमंत्रित किया गया जो ज्योतिष, गणित तथा वास्तुशास्त्र का ज्ञाता था।
जयपुर का मानचित्र तैयार करने के लिये देश-विदेश से अनेक नगरों के मानचित्र मँगवाए गये। प्रस्तावित नगर के मार्ग ज्यामितिय सूत्रों तथा गतिण के आधार पर एक नाप, एक आकार तथा एक ही आकृति के रखे गये। प्रत्येक मार्ग या तो एक दूसरे के ठीक समानान्तर था या फिर एक दूसरे को पूरे समकोण पर काटता था।
इन कटाव बिंदुओं पर चौराहे बनाये गये जिन्हें चौपड़ कहा गया। इन चौराहों पर जल की फुहारें छोड़ने वाले फव्वारे लगाये गये। सड़कों के दोनों और तथा चौराहों के चारों ओर दुकानों की पंक्तियां बनाई गईं।
राजा जयसिंह ने विद्याधर की सहायता से चौरस आकार की सीधी सड़कें और सीधी गलियों वाला नगर बसाना आरम्भ किया। इस नगर में किये जाने वाले निर्माण कार्यों के लिये भारत के विभिन्न शहरों से शिल्पियों को लाया गया। पूर्व दिशा में सूरज पोल तथा पश्चिम में चन्द्र पोल नामक नगर-द्वार बनाये गये।
इन दोनों नगर-द्वारों के बीच में दो मील लम्बी और सीधी सड़क बनाई गई। इस सड़क की चौड़ाई 110 फुट रखी गई। यह जयपुर नगर की मुख्य सड़क निर्धारित की गई। इस सड़क को दक्षिण से उत्तर को जाने वाली घाट गेट (शिव पोल) से घोड़ा निकास रोड, रामगंज चौपड़ पर समकोण में काटती थी।
इसी प्रकार सांगानेरी गेट से निकलकर हवामहल बाजार की तरफ जाने वाली सड़क बड़ी चौपड़ पर समकोण में काटती थी। अजमेरी गेट (किशन पोल) से निकलकर गणगौरी बाजार की तरफ जाने वाली सड़क छोटी चौपड़ पर काटती थी। ‘जयनिवास महल’इस नगर की अद्भुत रचना थी। यह परकोटे के भीतर बने नगर का सातवां हिस्सा थी तथा नगर के भीतर बसे हुए एक अन्य नगर की तरह दिखाई देती थी।
सवाई जयसिंह के प्रयत्नों से उसकी नयी राजधानी जयपुर, भारत की सुन्दर नगरी बन गई। 1728 ई. में जयसिंह अपनी राजधानी आम्बेर से जयपुर ले आया किंतु इसकी विधिवत् घोषणा 1733 ई. में की गई। इसके बाद कच्छवाहों की राजधानी सदैव के लिये जयपुर ही हो गई। जयसिंह ने 17 हजार सैनिकों को जयपुर की रक्षा पर सन्नद्ध किया।
लगभग पंद्रह साल तक जयसिंह इस नगर में ठाठ से रहा। विभिन्न पर्यटकों एवं यात्रियों ने इस नगर की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जयपुर बनने के चार साल बाद बिशप हैबर ने इसका भ्रमण किया। अपने संस्मरणों में उसने लिखा- ‘नगर का परकोटा मास्को के क्रेमलिन नगर के समान है।’
वाणिज्य-व्यापार की गतिविधियों के लिये भारत के समृद्ध नगरों से व्यापारियों को जयपुर आकर बसने के लिये आमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी एवं मथुरा आदि नगरों से विद्वानों, ज्योतिषियों, कर्मकाण्डियों को जयपुर में रहने के लिये आमंत्रित किया गया और उनके रहने के लिये आवास दिये गये।
फ्रांसीसी यात्री विक्टर जैक्वीमोंट ने 1832 ई. में इस नगर का भ्रमण किया। उसने अपने वर्णन में लिखा है कि जयपुर नगर के बाजार में किस तरह जौहरी, सुनार, हलवाई, दर्जी, ठठेरे, मोची तथा लुहार अपने काम में लगे रहते हैं। अनाज के व्यापारी हल्की जाली लगाकर अनाज की ढेरियां लगाकर बैठते हैं।
जब राजा की सवारी आती है तो व्यापारी अपने कटहरे हटा लेते हैं। इस नगर का स्थापत्य अत्यंत उत्तम कोटि का है। दिल्ली में सिर्फ एक चांदनी चौक है, लेकिन जयपुर में उससे मिलते-जुलते बहुत से चौक हैं। भवनों के लिये पत्थर यहाँ की पहाड़ियों से उपलब्ध हो जाते हैं।
नगर की मुख्य सड़कों पर समृद्ध लोगों के भवन हैं जिनके भीतर आराइश की दीवारें और बाहर गुलाबी रंग का प्लास्टर है। इन सड़कों पर कोई खण्डहर, झौंपड़े अथवा कच्चे मकान नहीं हैं। जबकि भीतरी गलियों में साधारण नागरिकों के आवास हैं। कहीं भी कूड़े-करकट के ढेर नहीं हैं।
यह नगर इतना भव्य, इतना सुविधाजनक तथा इतना वैज्ञानिक पद्धति से बना हुआ था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस नगर को राजस्थान के मध्य में स्थित न होते हुए भी राजस्थान की राजधानी बनाया गया।
आज भी जयपुर भारत का एक मात्र ऐसा नगर है जो पूर्णतः भारतीय पद्धति पर आधारित होते हुए भी आधुनिकता में सबसे आगे है। कवि बखतराम साह ने अपने ग्रंथ बुद्धि विलास में जयपुर नगर की स्थापना का विस्तृत वर्णन किया है। ग्रंथ का आरम्भिक अंश इस प्रकार से है-
कूरम सवाई जयसंघ भूप सिरोमनि,
सुजस प्रताप जाकौ जगत में छायौ है।
करन सौ दानी पांडवन सै क्रंयानी महार,
मांनी मरजाद मेर रांम सौ सुहायौ है।।
सोहै अंबावति की दक्षिणे दिसि सांगानेरि,
दोऊ वीचि सहर अनौपम बसायो है।
नांम ताकौ धरयौ है स्वाई जयपुर,
मांनौं सुरनि हीं मिलि सुरपुर सौं रचायो है।।