राजस्थान की मिट्टियाँ भारत के अन्य प्रांतों की मिट्टियों से कई अर्थों में अलग हैं। राजस्थान में पायी जाने वाली अधिकांश मिट्टियाँ जलोढ़ एवं वातोढ़ वर्ग की हैं।
किसी भी क्षेत्र की मिट्टियों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। यथा रासायनिक संरचना की दृष्टि से, रंग, गठन एवं कणाकार की दृष्टि से, कृषि उपयोगिता की दृष्टि से तथा लगान वसूली की दृष्टि से। रंग एवं गठन के आधार पर इनका वर्गीकरण इस प्रकार से किया जा सकता है-
राजस्थान की मिट्टियाँ – मुख्य प्रकार
1. टिब्बेदार पीली-भूरी बलुई मिट्टी
इस प्रकार की मिट्टी में 90 प्रतिशत बालू और 5 से 7 प्रतिशत मटियार तथा गाद की मात्रा होती है। इस मिट्टी में ह्यूमस, मैंगनीज एवं ताम्बे की कमी होती है। इसकी जलधारण क्षमता अत्यंत कम होने से इसका वायु अपरदन एवं परिवहन भी अधिक होता है। इस मिट्टी में बाजरा एवं मोठ की खेती की जा सकती है।
यह मिट्टी राजस्थान के पश्चिमी बालुका क्षेत्र में मिलती है। नोहर, भादरा, सूरतगढ़, चिड़ावा, डूंगरगढ़, बाड़मेर, फलौदी बाप, शेरगढ़, ओसियां, बिलाड़ा, रामगढ़ फतेहगढ़, सम, नावां, कुचामन, डीडवाना सांचोर, भीनमाल बीकानेर और सीकर तहसीलों अर्थात बाड़मेर, जालोर, नागौर, जोधपुर, सीकर, चूरू और झुंझुनूं जिलों में अधिक पायी जाती है।
2. भूरी बलुई मिट्टी
यह राज्य में सर्वाधिक मात्रा में पायी जाने वाली मिट्टी है। इस मिट्टी में 85 से 90 प्रतिशत तक बालू, और 6 से 9 प्रतिशत तक मटियार एवं गाद की मात्रा होती है। इस मिट्टी में जीवांश की मात्रा कम होती है। चूने का अंश भी लगभग अनुपस्थित होता है।
इस मिट्टी में शुष्क खेती की जाती है तथा बाजरा, मोठ, ग्वार आदि बोया जाता है। इस मिट्टी में खेती करने के लिये नाइट्रोजन और फॉस्फोरस युक्त उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक होता है। यह मिट्टी बाड़़मेर, जालोर, नागौर, जोधपुर, सीकर, चूरू और झुंझुनूं जिलों में मिलती है।
3. भूरी दोमट मिट्टी
इस प्रकार की मिट्टी में 8 से 10 प्रतिशत मटियार एवं 8 से 12 प्रतिशत तक गाद होती है। ऐसी मिट्टी नागौर जिले की परबतसर एवं मेड़ता तहसीलों में तथा लूनी नदी बेसिन में पायी जाती है। इसमें जीवांश की मात्रा कम होती है। इस मिट्टी में उर्वरकों एवं सिंचाई के प्रयोग से गेहूँ व सरसों की फसल अच्छी होती है।
4. धूसर भूरी दोमट मटियार मिट्टी
इस मिट्टी में 20 प्रतिशत तक मटियार एवं 13 प्रतिशत तक गाद की मात्रा होती है। यह मिट्टी बिलाड़ा, जोधपुर, नावां, परबतसर, आहोर, सिवाना, सिरोही तथा पाली तहसीलों में अधिक मिलती है। इसकी जलधारण क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है। इस मिट्टी में ज्वार, रायड़ा एवं सरसों की फसलें अधिक उगाई जाती हैं।
5. भूरी मटियार दोमट मिट्टी
इस प्रकार की मिट्टी में मटियार की मात्रा 18 प्रतिशत तक तथा गाद की मात्रा 22 प्रतिशत तक होती है। इस प्रकार की मिट्टी राज्य के उत्तरी भाग में घग्घर के क्षेत्र में स्थित हनुमानगढ़, सूरतगढ़, पदमपुर, रायसिंहनगर तथा बीकानेर जिले के उत्तर पश्चिम भाग में पायी जाती है।
इस मिट्टी की जलधारण क्षमता अधिक होती है। नहरी सिंचाई उपलब्ध हो जाने से इस मिट्टी में चावल, गन्ना, कपास, तिलहन, गेहूं व दालें पैदा की जा सकती हैं।
6. हल्की भूरी बलुई दोमट मिट्टी
इस प्रकार की मिट्टी में मटियार की मात्रा 16 प्रतिशत तक तथा गाद की मात्रा 14 से 18 प्रतिशत तक पायी जाती है। यह मिट्टी राजगढ़, सुजानगढ़, नीम का थाना, श्रीमाधोपुर, दांतारामगढ़, खेतड़ी, उदयपुर वाटी, नावां, परबतसर आदि तहसीलों में पायी जाती है। इसमें जीवांश की मात्रा कम होती है। जलधारण क्षमता भी कम होती है। इसमें जस्ता और तांबा की भी कमी होती है।
7. पीली भूरी दोमट बलुई और बलुई दोमट मिट्टी
इस मिट्टी में मटियार की मात्रा 15 से 17 प्रतिशत तक तथा गाद की मात्रा 10 से 12 प्रतिशत तक पायी जाती है। यह मिट्टी अरावली के पूर्वी अर्द्ध शुष्क भागों के जलोढ़ मैदानों में अधिक पायी जाती है। यह मिट्टी बयाना, नदबई, कोट कासिम, तिजारा, बहरोर, मण्डावर, किशनगढ़, बस्सी राजौरी, नरैना, दूदू, चौमूं, चाकसू आदि तहसीलों में मिलती है।
शुष्क क्षेत्रों की अपेक्षा पूर्वी क्षेत्रों में यह मिट्टी अधिक सघन तथा कम रन्ध्राकार होती है जिससे पानी का रिसाव धीमी गति से होता है। इस मिट्टी में गेहूं, सरसों, मूमफली, दालें, ज्वार आदि सिंचित फसलें पैदा होती हैं।
8. भूरी मटियार दोमट मिट्टी
यह अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में धूसर भूरी व पीली भूरी रंग की तथा मटियार दोमट गठन वाली मिट्टी है। इसमें मटियार की मात्रा 20 प्रतिशत तथा गाद की मात्रा 22 से 24 प्रतिशत तक होती है।
बनास बेसिन में इस मिट्टी की अधिकता है। यह मिट्टी माण्डलगढ़, जहाजपुर, कोटड़ी, निवाई, किशनगढ़, ब्यावर, केकड़ी, रूपनगढ़, भदेसर, महुआ, हिंडौन, सपोटरा, खण्डार, बोनली, राजगढ़, थानागाजी, बहरोर, लक्ष्मणगढ़, चंद्राणा, पाड़ासोली बांदीकुई, फागी (जयपुर) और भरतपुर के उत्तर पूर्वी भाग में पायी जाती है। यह मिट्टी कम रन्ध्राकार होती है अतः जल का रिसाव धीमा होता है। सिंचित क्षेत्रों में इस मिट्टी में गेहूं, गन्ना, कपास, दालें व तिलहन की फसलें उगायी जाती हैं।
9. लाल दोमट मिट्टी
इस मिट्टी में मटियार और गाद का सम्मिलित प्रतिशत 35 से अधिक है। इसमें मटियार की मात्रा 20 प्रतिशत तथा गाद की मात्रा 22 से 24 प्रतिशत तक होती है। यह मिट्टी राज्य के दक्षिणी भाग में पायी जाती है। इस मिट्टी वाले प्रमुख क्षेत्र उदयपुर, चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, तथा उत्तरी पश्चिमी बूंदी जिले हैं। चूंकि राजस्थान में यह काफी उथली पायी जाती है इस कारण इसकी जलधारण क्षमता कम है। इस मिट्टी का जल अपरद अतिशीघ्र होता है। चावल, गन्ना, कपास, गेहूं चना व मक्का की फसलों के लिये यह अधिक उपयुक्त है।
10. काली मटियार दोमट मिट्टी
इसे ब्लैक कॉटन सॉयल भी कहते हैं। इस मिट्टी में मटियार की मात्रा 35 से 40 प्रतिशत तक तथा गाद की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत तक होती है। यह धूसर, भूरी, मध्यम और गहरे काले रंग की होती है। यह मिट्टी चम्बल और माही नदी के बेसिन में मिलती है।
खानपुर, झालरापाटन, अकलेरा, कोटा, केशोरायपाटन, तलैरा, नैनवा, बामनवास, गंगापुर, बांसवाड़ा और उदयपुर जिले की कुछ तहसीलों में यह मिट्टी अधिक मिलती है। राज्य के दक्षिण पूर्वी भाग में यह मिट्टी विन्ध्यन और डेकन ट्रेप के बेसाल्ट लावा के क्षरण से बनी है। बांसवाड़ा में माही व इसकी सहायक नदियों के जलीय प्रवाह के तलछट से काली, मध्यम काली, और लाल रंग की मिट्टियों का निर्माण हुआ है।
इस मिट्टी की जलधारण क्षमता अधिक होती है। यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है। कपास गन्ना, चावल, चना, गेहूं, उड़द आदि के लिये यह सर्वाधिक उपयुक्त मिट्टी है। इस मिट्टी का जल अपरदन अधिक होता है।
राजस्थान की मिट्टियाँ – मिट्टियों से सम्बन्धित समस्याएँ
राजस्थान में मृदा सम्बन्धी समस्याओं में लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी की उपस्थिति, जलमग्नता की समस्या, मृदा अपरदन की समस्या प्रमुख हैं।
लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों की समस्या
भारत में 71 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र में लवणीयता की समस्या से ग्रस्त मिट्टियाँ पायी जाती हैं। राजस्थान में इस समस्या से ग्रस्त मिट्टियों का क्षेत्रफल लगभग 7,280 वर्ग किलोमीटर है। राज्य के पश्चिमी भाग की मिट्टियाँ लवणों से अधिक प्रभावित हैं।
जब वर्षा का जल एक स्थान पर पड़ा रहकर वाष्पीकृत होता रहता है तो मृदा में उपस्थित सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम एवं पोटेशियम के क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट आदि परत के रूप में जमा हो जाते हैं। स्थानीय भाषा में इसे रेह या रेतीली मिट्टी कहते हैं। इसका पी. एच. 8.5 से कम होता है। डीडवाना, सांभर, कुचामन, पचपदरा, लूणकरणसर आदि झीलों के निकट ऐसी ही मिट्टी पायी जाती है।
पश्चिमी राजस्थान के 80 प्रतिशत कुंओं का पानी खारा है। इससे सिंचाई करने से ऊपरी परत में लवणों एवं सोडियम कार्बोनेट की मात्रा बढ़ जाती है। इसके कारण मृदा क्षारीय हो जाती है। बोलचाल की भाषा में ऐसे पानी को तेलिया पानी तथा ऐसी मिट्टी को भूरा ऊसर कहते हैं। इसका पी.एच. साढ़े आठ से अधिक होता है। राज्य में क्षारीय एवं लवणीय मिट्टियाँ जयपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, पाली, भरतपुर बूंदी चित्तौड़गढ़ व कोटा जिलों में अधिक है।
लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों के प्रबंध में मिट्टी सुधार रसायनों का प्रयोग किया जाता है जो विनिमयशील सोडियम को मिट्टी की सतह से हटाने का कार्य करते हैं। क्षारीय मिट्टियों में जिप्सम, फास्फो-जिप्सम तथा अम्लीय मिट्टियों में चूना पत्थर, गंधक का अम्ल एवं पाइराइट्स आदि मिलाये जाते हैं। इन मिट्टियों में चुकन्दर, आलू, कपास, जौ, गेहूं जैसी लवण रोधी फसलें उगाना भी लाभदायक रहता है। ऐसी मिट्टियों में अमोनियम सल्फेट का उपयोग उपयुक्त रहता है।
वाटर लॉगिंग अथवा सेम की समस्या
राज्य के नहरी क्षेत्रों में जल के रिसाव, जल का आवश्यकता से अधिक उपयोग, जल निकास के अपर्याप्त प्रबंध के कारण जलमग्नता की समस्या उत्पन्न हो गयी है। इंदिरागांधी नहर, गंगनहर, चंबल नहर तथा अन्य नहरों से हुए जल रिसाव ने हजारों हैक्टेयर भूमि को दलदल बनाया है।
सेम ने इंदिरागांधी नहर के प्रथम चरण की एक तिहाई से अधिक उपजाऊ जमीन बेकार कर दी है। प्रारंभ में इस क्षेत्र की उत्पादकता अधिक थी किंतु अब खेतों में फसलों के स्थान पर दलदल दिखायी देता है। इस जल में मृदा की नीचे की परतों के लवण एवं खनिज घुलकर मृदा की ऊपरी सतह पर आ गये हैं।
घग्घर नदी के बाढ़ के जल को रोकने के लिये स्थान-स्थान पर तालाब बनाये गये थे किंतु इन क्षेत्रों में लवणता की समस्या उभर आयी है जिससे सूरतगढ़ क्षेत्र में हजारों हैक्टेयर उपजाऊ जमीन बंजर हो रही है। इंदिरागांधी नहर के वाटरलोगिंग से ग्रस्त क्षेत्रों के किसानों को कम पानी में पकने वाली फसलें उगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है तथा नहर में कम पानी छोड़ा जा रहा है।
जलमग्न क्षेत्र में वन तथा चारागाह उगाने के प्रयास किये जा रहे हैं। चंबल सिंचित विकास क्षेत्र में जलमग्नता एवं लवणता की समस्या से निबटने के लिये 300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सतह से 1 से 1.5 मीटर की गहराई तक पी.वी.सी. पाइप लाइन डालकर अतिरिक्त जल की निकासी की जा रही है।
मृदा अपरदन की समस्या
जल, वायु अथवा अन्य किसी भौतिक शक्ति के कारण मृदा कणों के अपने स्थान से हटने को मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा अपरदन के दो भाग होते हैं- मृदा का पृथक्कीकरण एवं मृदा का परिवहन। वैज्ञानिकों का मानना है कि मृदा, अपरदन से ही बनती है और अपरदन से ही नष्ट होती है।
जहाँ वनस्पति की कमी होती है, वहाँ मृदा अपरदन की क्रिया तेजी से होती है। पेड़-पौधे वायु एवं जल के साथ बहकर जाने वाली मृदा के मार्ग में रुकावट पैदा करके मृदा अपरदन की गति को धीमी कर देते हैं। मृदा अपरदन से मृदा का ऊपरी उपजाऊ स्तर नष्ट हो जाता है तथा अनुपजाऊ परत ऊपर आ जाती है।
एक ही स्थान पर पशुओं की लगातार चराई, पेड़ों की कटाई, जंगलों में लगने वाली आग, पहाड़ों का खनन तथा अन्य ऐसी ही गतिविधियों से मृदा अपरदन को बढ़ावा मिलता है। पहाड़ी ढालों पर मृदा अपरदन तेजी से होता है। भेड़-बकरियां अधिकतर घासों को जड़ों सहित खा जाती हैं जिससे जमीन पूरी तरह अनावृत्त हो जाती है जिसका परिणाम मृदा अपरदन होता है।
लगातार खेती करने एवं उसमें जीवांश की मात्रा के कम हो जाने से भी मृदा अपरदन बढ़ता है। मेड़बंदी करने, चारागाह विकसित करने, वृक्षारोपण को बढ़ावा देने आदि उपायों से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।
मृदा अपरदन रोकने के उपाय
मृदा अपरदन को रोकने के लिये वृक्षों की कटाई पर रोक लगाकर बड़ी मात्रा में वृक्षारोपण करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। पहाड़ी ढालों पर, रेतीले टीलों पर तथा वर्षा का जल तेजी से बहने के मार्ग में वृक्षारोपण करना अधिक उपयोगी रहता है। यही कारण है कि राजस्थान सरकार ने जलग्रहण योजना के तहत इस कार्य को प्रमुखता दी है।
वैज्ञानिक रूप से फसल चक्र को अपनाने से कृषि भूमि के अपरदन पर रोक लगती है। खेत में गोबर, मींगनी की खाद, कम्पोस्ट आदि जीवांश पदार्थ का अधिक प्रयोग करने से भी मृदा का स्थिरिकरण होता है। रेगिस्तानी क्षेत्र में चारागाहों का विकास भी इस दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हुआ है।
मरुस्थलीकरण
राजस्थान में मरुस्थलीकरण एक बड़ी समस्या है। आंधियों, बाढ़, वर्षा आदि विभिन्न कारणों से होने वाले मृदा अपरदन, मृदा एवं जल के अनुचित प्रबंधन, वनों के उन्मूलन, पशुओं द्वारा एक ही स्थल पर लगातार होने वाले अतिचारण आदि कारणों से मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिलता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता