राजस्थानी गद्य साहित्य की रचना परम्परा प्राचीन काल से ही आरम्भ हो जाती है जब हिन्दी भाषा का विकास भी नहीं हुआ था तथा देश में संस्कृत और प्राकृत जैसी भाषाएं प्रचलन में थीं।
यह एक सुखद घटना थी कि भारतीय साहित्य में गद्य लेखन का प्रस्फुटन वैदिक संहिताओं में ही हो गया था। संस्कृत में गद्य साहित्य के शीघ्र अवतरण का एक बड़ा कारण यह प्रतीत होता है कि संस्कृत भाषा का पद्य अतुकांत है।
यजुर्वेद में गद्य संहिताएं पर्याप्त संख्या में देखने को मिलती हैं। ब्राह्मणों, आरण्यकों एवं उपनिषदों ने गद्य लेखन परम्परा को आगे बढ़ाया। महाभारत, विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण में भी गद्य का यत्र-तत्र प्रयोग हुआ है। बौद्धों एवं जैनों ने भी गद्य परम्परा को स्वीकार किया और पालि, प्राकृत, शौरशैनी, महाराष्ट्रीय तथा मागधी आदि भाषाओं में भी गद्य लेखन प्रचुर मात्रा में हुआ।
राजस्थानी गद्य साहित्य का अवतरण
यद्यपि राजस्थानी भाषा का विकास होने से पहले ही भारत में गद्य लेखन विधा पर्याप्त परिपक्व हो चुकी थी तथापि पद्य लेखन से आप्लावित राजस्थानी साहित्य में 13वीं शताब्दी में गद्य का विकास एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह इसलिए महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि अपभ्रंश में गद्य का प्रायः अभाव है जबकि राजस्थानी भाषा को अपभ्रंश की जेठी बेटी (बड़ी पुत्री) कहा जाता है।
ई.1273 में राजस्थानी गद्य की एक छोटी सी टिप्पणी मूलक रचना ‘आराधना’ शीर्षक से मिलती है तथा इसके बाद संग्रामसिंह रचित बालशिक्षा, जैन लेखकों की नवकार व्याख्यान, सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन, अतिचार आदि छोटी-छोटी गद्य रचनाएं मिलती हैं किंतु इनमें राजस्थानी गद्य के प्रांजल और प्रौढ़ रूप के दर्शन नहीं होते।
कुछ विद्वानों का मत है कि आचार्य तरुणप्रभ सूरि रचित ‘षड़ावकबाळावबोध’ राजस्थानी भाषा की पहली प्रौढ़ गद्य रचना है।
चारण परम्परा की प्रथम राजस्थानी गद्य रचना
चारण कवियों की पहली स्वतंत्र राजस्थानी गद्य-पद्य रचना ‘अचलदास खीची री वचनिका’ के रूप में प्रकट हुई। इसे चारण कवि शिवदास गाडण ने ई.1415 के लगभग लिखा था और यह गद्य-पद्य मिश्रित रचना थी। इसके प्राकट्य से राजस्थानी साहित्य में गद्य साहित्य की प्रबल स्थापना हो गई।
राजस्थानी गद्य साहित्य के विविध रूप
राजस्थानी गद्य साहित्य बात (वात अथवा वार्ता), ख्यात, वचनिका एवं दवावैत आदि विविध रूपों में रचा गया। विगत, विलास, पीढ़ियावली (वंशावली), कुर्सीनामा, हाल, अहवाल, हगीगत (हकीकत), गुर्वविलियां, औक्तिक, प्रश्नोत्तरी, विहारपत्री, समाचारी के लेखन में गद्य विधा अत्यंत सहायक सिद्ध हुई।
परवाने, पट्टावली तथा दफ्तर बही आदि के लेखन में भी गद्य विधा को सुगमता से अपनाया गया। प्रकीर्णक साहित्य यथा शिलालेख, ताम्रपत्र, प्रशस्ति एवं पत्र में गद्य का प्रयोग ही अधिक सुगम माना गया। बौद्धों ने सूक्त साहित्य तथा जैनियों ने बाळावबोध एवं टब्बा लेखन करके राजस्थानी गद्य परम्परा को आगे बढ़ाया।
अलंकृत गद्य साहित्य
गद्य विधा में अलंकृत गद्य का विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो लगभग सभी भाषाओं में देखने को मिलता है। इसे ललित गद्य अथवा कलात्मक गद्य भी कहा जाता है। सामान्य गद्य से अलग करने के लिए इसे गद्य काव्य भी कह देते हैं, हालांकि यह काव्य नहीं होता। संस्कृत के महान आचार्य वामन ने गद्य के तीन प्रकार बताये हैं-
(1.) वृत्तिगंधि गद्य- जिस गद्य में किसी छन्द के पाद एव पादार्थ मिलते हैं,
(2.) उत्कलिकाप्राय गद्य- जिस गद्य में लम्बे-लम्बे समास मिलते हैं और
(3.) पूर्णक गद्य- छोटे-छोटे समास-पद युक्त गद्य को पूर्णक गद्य कहते हैं।
बाद में मिश्र काव्य को भी चौथा प्रकार मान लिया गया जिसे ‘चम्पू’ कहा गया। अतः कहा जा सकता है कि अलंकत गद्य का शब्द-संयोजन एवं वाक्य-रचना विशिष्ट, रसात्मक, संवेगात्मक, चमत्कृत करने वाली तथा रससिक्त होती है। इस बात को सरल शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि अलंकृत गद्य छन्द-मुक्त होकर भी साहित्य-लय की सृष्टि करता है। और भी सरल करके कहें तो तुकांत-गद्य को अलंकृत गद्य कह सकते हैं।
वात साहित्य
वात अथवा वार्ता कहानी को कहते हैं। कलात्मक गद्य साहित्य की रसानुभूति वात साहित्य में अधिक दिखाई देती है। चूंकि कहानियों एवं किस्सों को लोकानुरंजन के लिए कह कर सुनाया जाता था तथा कम से कम एक व्यक्ति हुंकारा (स्वीकरोक्ति) देने वाला होता था, इसलिए कहानी अथवा किस्से को वात एवं वार्ता कहते थे। इसे प्रायः चम्पू शैली में तैयार किया जाता था। अर्थात् गद्य और पद्य का क्रम एक के बाद एक चलता था।
राजस्थानी भाषा में हजारों वातों की रचना हुई। नरोत्तमदास स्वामी ने लिखा है कि यदि राजस्थान के वात साहित्य का संकलन किया जाए तो न जाने कितने ‘कथा सरित्सागर’ एवं ‘सहस्र रजनी’ चरित्र तैयार हो जायें। अजगदेव पंवार री बात, जगमाल मालावत री वात आदि कथाएं वात साहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं। ‘केहर प्रकाश’ तथा ‘सिखर वंशोत्पत्ति काव्य’ में तुकांत गद्य का प्रयोग किया गया है।
दवावैत
‘रघुनाथ रूपक’ में महाकवि मंछ ने राजस्थानी गद्य के दो प्रमुख भेदों दवावैत एवं वचनिका का उल्लेख किया है। रघुनाथ रूपक के टीकाकार महताबचन्द खारेड़ ने इनका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ये कोई काव्य छन्द नहीं हैं जिनमें मात्राओं, वर्णों अथवा गणों का विचार हुआ हो।
ये दोनों गद्य शैलियां हैं जिनमें अंत्यानुप्रास, मध्यानुप्रास या यमक की भरमार होती है। अर्थात् तुकांत गद्य को दवावैत कहते हैं। जिन सुख सरि दवावैत, जिननाम सूरि दवावैत, नरसिंहदास गौड री दवावैत इस वर्ग की प्रमुख रचनाएं हैं।
वचनिका
गद्य-पद्य मिश्रित रचना को वचनिका कहते हैं। इस विधा में प्रत्येक वचन या वाक्य तुकांत होता है। यह विधा संस्कृत साहित्य से राजस्थानी साहित्य में आई है। संस्कृत साहित्य में इस विधा को चंपू कहते हैं। वचनिका के दो भेद हैं। पद्य बंध और गद्य बंध। सिवदास गाडण लिखित अचलदास खींची री वचनिका, खड़िया जग्गा लिखित ‘राठौड़ रतनसिंह महेस दासौत री वचनिका’, शांतिसागर सूरि की वचनिका तथा जिन समुद्रसूरि की वचनिका वचनिका साहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं।
वर्णक साहित्य
राजस्थानी भाषा में नाना प्रकार के वर्णन ग्रंथों की रचना हुई, यथा- नगर वर्णन, विवाह वर्णन, भोज वर्णन, ऋतु वर्णन, युद्ध वर्णन, आखेट वर्णन, राजान राउत रो वात-बणाव, खींची गंगेव नीबांवत रो दो-पहरो, मुत्कलानुप्रास, कूतुहल, सभा-शृंगार आदि इसी प्रकार के ग्रंथ हैं।
ख्यात
मध्य कालीन राजस्थानी साहित्य में गद्य विधा में इतिहास वृत्त लिखने के लिए ख्यात का संकलन अथवा लेखन किया जाता था। ख्यात शब्द ख्याति शब्द से बना है जिसका अर्थ है वे बातें जो प्रसिद्ध हो चुकी हैं। इसमें गद्य साहित्य के रूप में वात, वार्ता, हकीकत, वंशावली, वंशवृक्ष, विगत आदि लिखे जाते हैं। राजस्थान की ख्यात लेखन परम्परा में मूथा नैणसी की ख्यात को पहली ख्यात माना जाता है तथा दयालदास की ख्यात को अंतिम ख्यात माना जाता है।
सिलोका साहित्य
सिलोका भी राजस्थानी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा है जिसमें देवी-देवताओं तथा प्रसिद्ध वीर पुरुषों का गुण-वर्णन अत्यंत अलंकृत शैली में हुआ है जैसे- बभूतासिद्ध रो सिलोको, राम-लक्ष्मण रो सिलोको, सूरजजी रो सिलोको, राव अमरसिंघ रो सिलोको, आदि।
वैज्ञानिक साहित्य
यह साहित्य अनुवाद, टीका एवं स्वतंत्र लेखन के रूप में मिलता है। संस्कृत भाषा में आयुर्वेद, ज्योतिष, शकुनावली, सामुद्रिक शास्त्र, तंत्र-मंत्र आदि अनेक विषयों पर लिखे गये ग्रंथों का बड़े स्तर पर राजस्थानी भाषा में अनुवाद हुआ तथा उनके आधार पर कतिपय स्वतंत्र राजस्थानी ग्रंथों की भी रचना हुई।
प्रकीर्णक साहित्य
इसके अंतर्गत पत्रों और अभिलेखों में प्रयुक्त गद्य को रखा जाता है। राजकीय एवं निजी पत्र व्यवहार में पद्य का प्रयोग नहीं होकर, गद्य का प्रयोग हुआ। इसी प्रकार शिलालेख, ताम्रपत्र, दानपत्र, प्रशस्ति-लेख आदि के लेखन के लिए भी गद्य विधा अधिक अनुकूल जान पड़ी।
अलंकृत गद्य साहित्य की प्रसिद्ध रचनाएं
‘पृथ्वीचन्द चरित्र’ राजस्थानी भाषा की प्रसिद्ध अलंकृत गद्य कृति है। इसे ‘वाग्विलास’ भी कहते हैं। इसकी रचना ई.1421 के लगभग जैनाचार्य माणक्यसुंदर ने की थी। ई.1455 में भीनमाल में रचित ‘कान्हड़देव प्रबंध’ भी अलंकृत गद्य की महत्वपूर्ण रचना है। इसे गुजरात में प्राचीन गुजराती भाषा का तथा राजस्थान में प्राचीन राजस्थानी भाषा का ग्रंथ माना जाता है।
मुत्कलानुप्रास, समयसुन्दर रचित भोजन विच्छित; सभा शृंगार, राज रूपक, तपोगच्छ गुर्वावली, अचलदास खीची री वचनिका, भोजन विच्छति, खींची गंगेव नीबांवत रो दो-पहरो, लावा रासा, वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री, बैताल पच्चीसी, ढोला मारू री बात, एकलगिढ डाढ़ाला सूर री बात (वीररस प्रधान हास्य-व्यंग्य रचना), करणीदान कृत सूरज प्रकाश, रूपक दीवाण भीमसिंहजी रा आदि अलंकृत गद्य साहित्य की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
ऐसी हजारों रचनाएं आज भी प्राचीन पोथी भण्डारों में भरी पड़ी हैं जिन्हें प्रकाश में आना अभी शेष है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता