19वीं सदी के प्रथम दशक में भारत की देशी रियासतें एक ओर तो परस्पर युद्धों, जागीरदारों के झगड़ों तथा उत्तराधिकार के षड़यंत्रों में उलझी हुई थीं तथा दूसरी तरफ मराठों, फ्रैंच सेनाओं, पिण्डारियों, सिंधी मुसलमानों और पठानों के आक्रमणों से जर्जर हो रही थीं। अधिकांश रियासतें प्रशासनिक अव्यवस्थाओं, जागीरदारों द्वारा जनता पर होने वाले अत्याचारों तथा सूदखोर व्यापारियों द्वारा निरीह जनता के शोषण से अपनी प्राचीन आभा खोकर विनष्ट होने के कगार पर थीं।
इस कारण राजपूताना के समस्त प्रमुख राज्य ई.1803 से ही अंग्रेजी संरक्षण की आशा में बार-बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सम्पर्क साध रहे थे किंतु हर बार उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई थी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली (ई.1798 से 1805) ने मराठों से निबटने के लिए ई.1803 में अलवर, भरतपुर, जयपुर तथा जोधपुर राज्यों के साथ संधियां कीं। इनमें से अलवर को छोड़कर अन्य राज्यों के साथ हुई संधियां शीघ्र ही भंग हो गईं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा ई.1804 में धौलपुर तथा प्रतापगढ़ राज्यों के साथ संधियां की गईं तथा ईस्वी 1805 में पुनः भरतपुर राज्य के साथ नई संधि की गई।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जनरल लेक के माध्यम से दिसम्बर 1803 में जोधपुर रियासत से एक समझौता किया। यह समझौता अकबराबाद में सरहिन्द नामक स्थान पर हुआ था। यह संधि बराबरी के आधार पर की गई थी जिसमें एक दूसरे की सहायता करने, परस्पर मित्रता बनाए रखने, खिराज नहीं देने एवं जोधपुर राज्य में किसी फ्रांसिसी को नौकरी नहीं देने अथवा देने से पूर्व कम्पनी से सलाह मशविरा करने आदि प्रमुख शर्तें थीं।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गर्वनर जनरल वेलेजली ने भी ई.1804 में इस समझौते को मान्यता दी किंतु यह कभी भी लागू नहीं हो सका। जोधपुर का महाराजा मानसिंह संधि की अलग शर्तें चाहता था इसलिए उसने संधि की पुष्टि करने में विलम्ब किया। जब महाराजा ने संधि की पुष्टि की तो अंग्रेजों ने उसे रद्द कर दिया। मानसिंह ने ई.1805 में तथा पुनः ई.1806 में अंग्रेजों से संधि का प्रस्ताव रखा किंतु अंग्रेजों ने उसे स्वीकार नहीं किया।
जयपुर नरेश महाराजा जगतसिंह ने 12 दिसम्बर 1803 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि की किंतु ई.1805 में अंग्रेजों द्वारा संधि को भंग कर दिया गया। ई.1803 में की गई संधियों में देशी राज्य तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी बराबर के स्तर पर एवं सम्मानजनक शर्तों पर एक दूसरे के प्रति सहयोग करने को तत्त्पर हुए थे किंतु यह बराबरी अंग्रेजों को अनुकूल नहीं जान पड़ती थी इसलिए ये संधियाँ या तो व्यवहार में ही नहीं आईं या फिर शीघ्र ही टूट गईं।
इस कारण अगले लगभग 15 वर्षों तक अंग्रेजों ने देशी राज्यों से फिर कोई संधि नहीं की। वेलेजली के बाद आए नए गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स (ई.1813-1823) की दृष्टि राजपूताना रियासतों पर गई। उसने निश्चय किया कि राजपूताना रियासतों को अंग्रेजों के साथ अधीनस्थ सहयोग की स्थिति में लाया जाए तथा ये रियासतें एक दूसरे से बिल्कुल अलग रहें। इस नीति को अपनाने के पीछे उसके दोहरे उद्देश्य थे-
(1.) राजाओं का संगठन असंभव हो जाए तथा
(2.) ये आत्मरक्षा की दृष्टि से पंगु हो जाएं।
दूसरे शब्दों में, अब लॉर्ड हेस्टिंग्ज भारत में कम्पनी की सर्वोच्च सत्ता स्थापित करना चाहता था। यह तभी संभव था जबकि सिंधिया और होल्कर को उनके राज्यों की सीमा में ही सीमित कर दिया जाए तथा पिण्डारियों की बढ़ती हुई शक्ति का दमन किया जाए। इसके लिए राजपूत राज्यों को ब्रिटिश संरक्षण में लाना आवश्यक था।
लॉर्ड हेस्टिंग्ज का मानना था कि राजपूत राज्यों को संरक्षण में लेने से कम्पनी के वित्तीय साधनों में वृद्धि होगी जिससे कम्पनी की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत होगी किन्तु वह ब्रिटिश संरक्षण में राजपूत राज्यों का संघ बनाने के लिए सहमत नहीं था। वह प्रत्येक राजपूत राज्य से अलग-अलग संधि करके उनसे सीधा सम्पर्क स्थापित करना चाहता था।
इन सन्धियों के माध्यम से लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने राजाओं को एक दूसरे से इतना अलग-थलग करने का निश्चय किया कि उनमें कोई भी मेल असम्भव हो जाए। राजा लोग इतने दुर्बल और पतित किए जाने थे कि वे ब्रिटिश सत्ता के लिए खतरा न बन सकें बल्कि अपनी रक्षा के लिए ब्रिटिश सत्ता पर निर्भर भी हो जाएं। इसलिए राजाओं को शांति और सुरक्षा का दाना डाला गया।
ई.1813 के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन आने का एक कारण यह भी था कि इस समय तक पिण्डारियों ने बड़ा आतंक पैदा कर दिया था जिससे ब्रिटेन के जनमत में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हो चुका था।
ई.1814 में चार्ल्स मेटकाफ ने लॉर्ड हेस्टिंग्ज को लिखा कि यदि समय पर, विनम्रतापूर्वक मांग करने पर भी, संरक्षण प्रदान नहीं किया गया तो कदाचित बाद में, प्रस्तावित संरक्षण भी अमान्य कर दिए जाएंगे। जॉन मैल्कम की धारणा थी कि सैनिक कार्यवाहियों तथा रसद सामग्री दोनों के लिए इन राज्यों के प्रदेशों पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए अन्यथा ये राज्य अंग्रेजों के शत्रुओं को अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए योग्य साधन उपलब्ध करवा देंगे।
इस विचार से प्रेरित होकर ई.1814 से 1858 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देशी राज्यों के प्रति ‘अधीनस्थ अलगाव की नीति’ अपनाई। 1 दिसम्बर 1815 के अपने स्मरणार्थ लेख में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने लिखा है- ‘उन (राजपूत रियासतों) पर हमारा प्रभाव स्थापित होने से सिक्खों और उनको सहायता देने वाली शक्तियों के बीच शक्तिशाली प्रतिरोध बन जायगा।’
ई.1817 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज राजपूत राज्यों से संधियां करने को तत्त्पर हुआ। लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने देशी राज्यों से संधि करने का अपना उद्देश्य लुटेरी पद्धति के पुनरुत्थान के विरुद्ध अवरोध स्थापित करना तथा मराठा शक्ति के विस्तार को रोकना बताया। उसने तर्क दिया कि चूंकि मराठे, पिण्डारियों की लूटमार को नियंत्रित करने में असफल रहे हैं, अतः मराठों के साथ की गई संधियों को त्यागना न्याय-संगत होगा।
उसने दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट चार्ल्स मेटकाफ को राजपूत शासकों के साथ समझौते सम्पन्न करने का आदेश दे दिया। गवर्नर जनरल का पत्र पाकर चार्ल्स मेटकॉफ ने समस्त राजपूत शासकों के नाम पत्र भेजे जिसमें उसने राजाओं से अपना प्रतिनिधि भेजने तथा संधि की बातचीत करने के लिए कहा।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता