चित्तौड़ के गुहिलों में महाराणा कुम्भकर्ण (1433-68 ई.), सर्वाधिक प्रतिभा सम्पन्न राजा हुआ। भारत के इतिहास में वह ‘कुम्भा’ के नाम से प्रसिद्ध है। जिस समय वह मेवाड़ का शासक बना, उस समय उसकी आयु केवल 6 वर्ष थी। अतः कुम्भा के 12-13 वर्ष की आयु होने तक, कुम्भा की दादी हंसाबाई का भाई रणमल जो कि मारवाड़ राज्य का महाराव भी था, मेवाड़ राज्य का शासन चलाता रहा। उसने अनेक युद्ध अभियानों में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व किया तथा सारंगपुर (मालवा), नागौर, गागरौन, नराणा (जयपुर जिला), अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़, बूंदी, खाटू, चाटसू (जयपुर जिला) आदि युद्ध अभियानों में विजय प्राप्त की।
1435-36 ई. में रणमल ने मेवाड़ की ओर से बूंदी पर आक्रमण किया। बूंदी के शासक बेरीसाल ने आत्मसमर्पण कर दिया और माण्डलगढ़ क्षेत्र मेवाड़ को वापस लौटा दिया। बेरीसाल ने कुम्भा की अधीनता तथा उसे वार्षिक कर चुकाना स्वीकार किया। ई.1437 के लगभग कुम्भा ने आबू पर आक्रमण करके आबू छीन लिया क्योंकि जब महाराणा मोकल की हत्या हो गई तब सिरोही के राव सैंसमल ने मेवाड़ के कुछ गांव दबा लिये।
सिरोही राज्य में आबू, भूला, वसंतगढ़ आदि स्थानों से कुम्भा के शिलालेख मिले हैं जिनसे अनुमान होता है कि कुम्भा ने सिरोही राज्य के पूर्वी भाग के इन क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया था। मिराते सिकंदरी के अनुसार जब सुल्तान कुतुबुद्दीन ने नागौर की पराजय का बदला लेने के लिये राणा के राज्य पर चढ़ाई की तब मार्ग में सिरोही के राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से सिरोही राज्य के क्षेत्र वापस दिलवाने के लिये प्रार्थना की। इस पर सुल्तान ने मलिक शाबान इमादुल्मुल्क को राणा की सेना से आबू का किला छीनकर सिरोही के देवड़ा राजा को सुपुर्द कराने के लिये भेजा। मलिक तंग घाटियों के रास्ते से चला किंतु शत्रुओं ने चौतरफ से हमला किया जिससे मलिक हार गया और उसकी फौज के बहुत से सिपाही मारे गये।
वयस्क होने के बाद कुम्भा उत्तर भारत की राजनीति में पर्याप्त सक्रिय रहा तथा जीवन भर अपने शत्रुओं से लड़ता रहा। कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी (प्रथम) को पराजित किया। महमूद के लिये प्रसिद्ध था कि उसकी सेना में एक लाख घुड़सवार तथा 1400 हाथी थे। कुम्भा, ने सारंगपुर में असंख्य मुसलमान स्त्रियों को कैद किया, महम्मद का महामद छुड़वाया, उसके सारंगपुर नगर को जलाया और अगस्त्य के समान अपने खंग रूपी चुल्लू से वह मालव समुद्र को पी गया। कुम्भा, महमूद को पकड़कर चित्तौड़ ले आया और छः माह तक कैद में रखकर बिना कुछ लिये, उसे मुक्त कर दिया।
महाराणा कुम्भा के समय के बने हुए एकलिंग महात्म्य में लिखा है कि जैसे पहले राजा ‘क्षेत्र’ ने मालवे के स्वामी अमीशाह को युद्ध में नष्ट किया था, वैसे ही कुम्भा ने महमद खिलची (महमूद खिलजी) को युद्ध में जीता। अपने कुलरूपी कानन के सिंह राणा कुंभकर्ण ने सारंगपुर नागपुर , गागराण (गागरौन), नराणक (नारायणा), अजयमेरु , मण्डोर , मण्डलकर (माण्डलगढ़), बूंदी, खाटू , चाटसू आदि सुदृढ़ और विषम किलों को लीलामात्र से विजय किया, अपने भुजबल से अनेक उत्तम हाथियों को प्राप्त किया और म्लेच्छ महीपाल (सुलतान) रूपी सर्पों का गरुड़ के समान दलन किया। प्रचण्ड भुजदण्ड से जीते हुए अनेक राजा उसके चरणों में सिर झुकाते थे।
प्रबल पराक्रम के साथ ढिल्ली (दिल्ली) और गुर्जरात्रा (गुजरात) के राज्यों की भूमि पर आक्रमण करने के कारण वहाँ के सुल्तानों ने छत्र भेंट कर उसे ‘हिन्दुसुरत्राण’ का विरुद प्रदान किया था। वह सुवर्णसत्र (दान, यज्ञ) का आगार, छः शास्त्रों में वर्णित धर्म का आधार, चतुरंगिणी सेना रूपी नदियों के लिये समुद्र था और कीर्ति एवं धर्म के साथ प्रजा का पालन करने और सत्य आदि गुणों के साथ कर्म करने में रामचंद्र और युधिष्ठिर का अनुकरण करता था और सब राजाओं का सार्वभौम (सम्राट) था।
ई.1443 में मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी ने स्वयं विशाल सेना लेकर केलवाड़ा गांव के बाणमाता के मंदिर पर आक्रमण किया और मंदिर में लकड़ियां भरकर उनमें आग लगा दी और गर्म मूर्तियों पर ठण्डा पानी डालकर उन्हें चटका दिया। इसके बाद उनके टुकड़ों को सेना के साथ चल रहे कसाइयों को मांस तोलने के लिये दे दिया। एक नंदी की मूर्ति का चूना पकवाकर राजपूतों को पान में खिलवाया। इससे आगे के विवरण में फरिश्ता ने महमूदशाह की सफलता और कुम्भा की विफलता का वर्णन किया है किंतु वास्तविकता यह थी कि मंदिर को नष्ट करके सुल्तान तुरंत ही वहाँ से माण्डू को लौट गया।
ई.1446 में सुल्तान पुनः माण्डलगढ़ की ओर आया। जब वह बनास नदी को पार कर रहा था, महाराणा की सेना ने उस पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के वर्णन में भी फरिश्ता ने दूर तक गप्पें हांकी हैं तथा महमूद की विजय एवं राणा की पराजय बताई है। जबकि वास्तविकता यह है कि महमूद ने अपनी पराजयों को विजय में बदलने के लिये पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया और हर बार मुंह की खाकर लौटा। अंत में उसने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के पास प्रस्ताव भेजा कि माण्डू और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण किया जाए।
ई.1456 में नागौर के शासक फीरोजखां के मरने पर फीरोजखां के छोटे पुत्र मुजाहिदखां ने नागौर पर अधिकार कर लिया। इस पर फीरोजखां का बड़ा पुत्र शम्सखां कुम्भा की शरण में आया। कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण करके शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बैठा दिया। शम्सखां द्वारा शर्तों की पालना नहीं किये जाने पर कुम्भा ने फिर से नागौर पर आक्रमण किया तथा उस पर अधिकार कर लिया।
इस पर शम्सखां गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन से अपनी बेटी का विवाह करके उसकी सेना को ले आया। कुंभकर्ण ने गुजरात के सुलतान की विडम्बना (उपहास) करते हुए नागपुर (नागौर) लिया, पेरोज (फीरोज) की बनवाई हुई ऊँची मस्जिद को जलाया, किले को तोड़ा, खाई को भर दिया, हाथी छीन लिये, यवनियों को कैद किया और असंख्य यवनों को दण्ड दिया। यवनों से गौओं को छुड़ाया, नागपुर (नागौर) को गोचर बना दिया, शहर को मसजिदों सहित जला दिया और शम्सखां के खजाने से विपुल रत्न-संचय छीना।
इस पराजय से तिलमिला कर गुजरात के सुल्तान ने कुम्भलगढ़ तथा महाराणा के अधिकार वाले आबू पर आक्रमण किया। दोनों ही स्थानों पर गुजरात की करारी पराजय हुई और वह राणा से सुलह करके गुजरात लौट गया। इसके बाद ई.1460 में माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी ने तथा गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने एकराय होकर दो तरफ से मेवाड़ पर आक्रमण किया। महाराणा ने गुर्जर और मालवा के सुरत्राणों (सुलतानों) के सैन्य समुद्र का मथन किया। नागौर के मुसलमानों ने हिन्दुओं का दिल दुखाने के लिये गोवध करना आरम्भ किया। महाराणा ने मुसलमानों का यह अत्याचार देखकर पचास हजार सवार लेकर नागौर पर चढ़ाई की और किले को फतह कर लिया जिसमें हजारों मुसलमान मारे गये।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता