Sunday, September 8, 2024
spot_img

सम्राट पृथ्वीराज चौहान

अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान

सम्राट पृथ्वीराज चौहान अपने समय का दुराधर्ष योद्धा था। उसकी वीरता के किस्से सुनकर प्रत्येक भारतीय का सीना गर्व से फूल उठता है। उसके जीवन का आरम्भ और मध्य बहुत अच्छा था किंतु अंत बहुत बुरा था। इस पुस्तक में अजमेर एवं दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान का इतिहास लिखा गया है।

भारत में वैदिक काल के आगमन से बहुत पहले से ही छोटे-छोटे ‘जन’ आकार लेने लगे थे। ‘जन’ की सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए ‘प्रजा’ एक स्थान पर एकत्रित होकर ‘सभा’ एवं ‘समिति’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से सामूहिक निर्णय लेती थी। जन का मुखिया ‘गोप’ कहलाता था।

वैदिक काल में ‘राजन्य-व्यवस्था’ स्थापित हुई। इस व्यवस्था के अंतर्गत एक जन का नेतृत्व ‘राजन्’ करता था जो आगे चलकर ‘राजा’ कहलाया। वह भी सभा एवं समिति की सलाह लेकर काम करता था। वेदों में अनेक आर्य-राजाओं एवं उनके ‘कुलों’ के नाम मिलते हैं।

To purchase this book please click on image.

ईक्ष्वाकु कुल के राजा श्रीराम के समय तक उत्तर भारत में ‘चक्रवर्ती राजा’ की अवधारणा आकार ले चुकी थी। इस काल में चक्रवर्ती राजा के अधीन कई राजन्य होते थे तथा राजन्य के अधीन कई नंद अथवा गोप होते थे। ये नंद एवं गोप किसी जन के अधीन होते थे। राजन्य के शासक अर्थात् राजा अपना सम्बन्ध सूर्यवंश, चंद्रवंश एवं यदुवंश से जोड़ते थे।

महात्मा बुद्ध के जन्म से बहुत पहले, उत्तर भारत में ‘जनपद’ व्यवस्था ने जन्म लिया। यह व्यवस्था प्राचीन राजन्य व्यवस्था का बदला हुआ स्वरूप थी। इस व्यवस्था में प्रजाजन की सभा अर्थात् ‘जनसभा’ अत्यंत शक्तिशाली होती थी जिन्हें ‘गण’ कहा जाता था। ‘गण’ शब्द की उत्पत्ति ‘जन’ से हुई लगती है। इन गणों के द्वारा अपने गणपति का निर्वाचन अथवा मनोनयन किया जाता था।

बुद्ध के समय में उत्तर भारत में ‘महाजनपद’ अस्तित्व में आ चुके थे। बुद्ध के काल में 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। एक महाजनपद में कई जनपद होते थे। इन महाजनपदों के काल में राजा का महत्व फिर से बढ़ने लगा। महाजनपदों के शासक प्रायः शक्तिशाली क्षत्रिय राजा होते थे। धीरे-धीरे गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था को, इन क्षत्रियों राजाओं ने पूरी तरह राजतंत्रात्मक स्वरूप दे दिया।

पुराणों के काल में क्षत्रिय कुलों की संख्या तेजी से बढ़ी। इस कारण ऐसे राजकुल भी अस्तित्व में आने लगे जो क्षत्रिय नहीं थे। ‘मौर्यों’ को शूद्र; शुंगों, कण्वों तथा सातवाहनों को ब्राह्मण एवं ‘गुप्तों’ को वैश्य कुलोत्पन्न माना जाता है किंतु ये सभी राजकुल भारतीय आर्य थे, इस कारण प्रजा की दृष्टि में वे उतने ही सम्माननीय थे जितने कि क्षत्रिय राजा।

प्राचीन क्षत्रियों की यह परम्परा उत्तर भारत के पुष्यभूति सम्राट हर्षवर्धन के समय तक मिलती है। इस पूरे काल में क्षत्रियों का उल्लेख मिलता है किंतु राजपूतों का उल्लेख नहीं मिलता। इस काल में राजा के पुत्र को ‘राजपुत्र’ कहा जाता था। संभवतः यही राजपुत्र हर्षवर्द्धन के बाद ‘राजपूतों’ में बदल गए।

पुराणों में आए एक आख्यान के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया जिसके यज्ञकुण्ड से चार वीर प्रकट हुए। इनके नाम चाहमान, प्रतिहार, परमार एवं चौलुक्य थे। इनके वंशज राजपूत कहलाए। कुछ शिलालेखों के अनुसार इन्हें अग्निवंशी क्षत्रिय कहा गया। नवीन राजपूत वंशों के साथ-साथ मौर्य, गुप्त, नाग, चावड़ा, गुहिल, यादव, राष्ट्रकूट आदि प्राचीन क्षत्रियों के वंशज भी इस काल में राजपूत कहलाने लगे। राजपूत कुलों ने लम्बे समय तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन किया।

ईस्वी 648 में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु से लेकर ई.1206 में मुहम्मद गौरी द्वारा दिल्ली एवं अजमेर में मुस्लिम सत्ता स्थापित किए जाने तक का काल भारतीय इतिहास में ‘राजपूत-काल’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस काल में उत्तर भारत में अनेक राजपूत वंशों ने अपनी सत्तायें स्थापित कीं जिनमें चौहान, चौलुक्य, गुहिल, प्रतिहार, परमार, चावड़ा, राष्ट्रकूट एवं भाटी प्रमुख थे।

इन राजपूत कुलों ने भारत की पश्चिम दिशा से आने वाले मुस्लिम आक्रांताओं से डटकर संघर्ष किया तथा छः शताब्दियों से भी अधिक समय तक उन्हें भारत में अपने पांव नहीं जमाने दिए। इन्होंने भारत माता की जो सेवा की वह अतुलनीय है। संसार के किसी भी देश में ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता, जहाँ कुछ राजवंशों ने शताब्दियों तक तलवार चलाकर अपने देश, अपनी भूमि एवं अपनी प्रजा की रक्षा की हो!

बारहवीं शताब्दी बीतते-बीतते मुस्लिम आक्रांता भारत की भूमि पर अधिकार जमाने लगे। फिर भी ये राजपूत योद्धा तलवार चलाते हुए थके नहीं। वे सिमट गए किंतु नष्ट नहीं हुए, किसी न किसी रूप में बने रहे। मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर मुहम्मद गौरी के आक्रमण काल तक, दिल्ली सल्तनत के काल से लेकर मुगलों के काल तक तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी से लेकर ब्रिटिश क्राउन की सत्ता के काल तक राजपूतों की तलवार अनवरत चलती रही।

यह पुस्तक चौहानवंशीय राजा पृथ्वीराज चौहान के संघर्ष पर केन्द्रित है। अजमेर के चौहानों के इतिहास में पृथ्वीराज चौहान नाम के तीन राजा हुए हैं। इनमें से प्रथम पृथ्वीराज चौहान ने ई.1105 के आसपास अजमेर तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र पर शासन किया। द्वितीय पृथ्वीराज चौहान ई.1168 के आसपास अजमेर, शाकम्भरी, थोड़े (जहाजपुर के निकट), मेनाल (चित्तौड़ के निकट) तथा हांसी (पंजाब में) तक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करता था। तृतीय पृथ्वीराज चौहान ने ई.1178 से ई.1192 तक भारत के विशाल क्षेत्र पर शासन किया। प्रस्तुत पुस्तक इसी तृतीय पृथ्वीराज चौहान पर केन्द्रित है जिसे भारत के इतिहास में राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता है।

पृथ्वीराज चौहान उत्तर भारत के विशाल मैदानों का स्वामी था। पूर्वी पंजाब से लेकर, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के विभिन्न भाग एवं उत्तर प्रदेश के कन्नौज तक के क्षेत्र उसके अधीन थे। उसकी राजधानी अजमेर थी तथा दिल्ली उसके अधीन थी। उसे सांभरेश्वर, सपादलक्षेश्वर तथा गुर्जरेश्वर भी कहा जाता है। ये तीनों सम्बोधन उसके राज्य-विस्तार के सूचक हैं।

सम्राट पृथ्वीराज चौहान अपने समय का दुराधर्ष योद्धा था। उसकी वीरता के किस्से सुनकर प्रत्येक भारतीय का सीना गर्व से फूल उठता है। उसके जीवन का आरम्भ और मध्य बहुत अच्छा था किंतु अंत बहुत बुरा था। मुहम्मद गौरी ने उसे सम्मुख युद्ध में न केवल पराजित किया अपितु उसे पकड़कर बंदी बनाया, उसे बुरी तरह अपमानित एवं प्रताड़ित किया, उसकी आंखें फोड़ीं तथा पीड़ादायक मृत्यु के मुख में भेज दिया। इस कारण पृथ्वीराज चौहान भारत-वासियों की दुखती रग है।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज चौहान को रहस्यमय शक्तियों का स्वामी बताया है तथा अनेकानेक इतिहासकारों ने पृथ्वीराज चौहान के सम्बन्ध में बहुत सी श्रेष्ठ बातों का उल्लेख किया है।

जब कोई व्यक्ति प्रसिद्ध के शिखरों को छूता है तथा काल की सीमा को भेद कर कालजयी लोकप्रियता प्राप्त करता है तो उसके साथ अनेक अपवाद एवं काल्पनिक कथाएं भी जुड़ जाती हैं। दूसरी ओर राष्ट्र-विरोधी शक्तियाँ उस महापुरुष के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आरम्भ कर देती हैं। इन दोनों ही कारणों से महापुरुषों का वास्तविक इतिहास ज्ञात करना प्रायः कठिन हो जाता है। सम्राट पृथ्वीराज चौहान के साथ भी ऐसा ही हुआ है।

कुछ लोगों को पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिंदू सम्राट कहने पर आपत्ति होती है किंतु बारहवीं शताब्दी ईस्वी के अंत में भारत में अन्य कोई ऐसा शासक नहीं हुआ जिसके अधीन इतना विशाल क्षेत्र हो और जिसके अधीन इतने अधिक राजा हों! कुछ लोग सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में दिल्ली के शासक हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू) को अंतिम हिन्दू सम्राट मानते हैं।

संदेह पृथ्वीराज चौहान की तरह महाराज हेमचन्द्र विक्रमादित्य भी भारतवासियों के लिए महानायक की तरह आदरणीय है तथा वह भी भारतीयों की दुखती हुई रग है किंतु आगरा, दिल्ली, संभल तथा ग्वालियर पर उसका शासन अत्यंत अल्पकालिक था। इसलिए पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिन्दू सम्राट कहना किसी भी तरह अनुचित नहीं है।

मुझे आशा है कि यह पुस्तक सम्राट पृथ्वीराज चौहान के वास्तविक, उज्जवल एवं अद्भुत इतिहास को भारत की युवा पीढ़ी के समक्ष लाएगी तथा उन्हें भारतीय इतिहास के गौरवमयी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से भी परिचित कराने में सफल होगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source