राजस्थान में शेरगढ़ दुर्ग के नाम से दो किले हैं। इनमें से पहला किला हाड़ौती क्षेत्र में है जिसका वास्तविक नाम कोषवर्द्धन है। दूसरा जिला ब्रजक्षेत्र में है।
ब्रजक्षेत्र का शेरगढ़ दुर्ग धौलपुर नगर के दक्षिणी हिस्से में खण्डहरों के रूप में स्थित है। शेरगढ़ दुर्ग एक तरफ मध्यप्रदेश एवं राजस्थान का विभाजन करती चम्बल नदी से और तीन तरफ चम्बल के ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों से घिरा हुआ है।
समुद्र तल से 750 फुट की ऊंचाई पर लगभग 500 बीघा भूमि में फैला यह दुर्ग आगरा तथा ग्वालियर के निकट स्थित होने के कारण मध्यकाल में राजनीतिक हलचलों का केन्द्र रहा।
दुर्ग के निर्माता
शेरगढ़ दुर्ग का निर्माण ई.1120 में यदुवंशी शासक धर्मपाल ने करवाया। इसी वंश के राजा देवीपाल ने इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। धौलपुर नगर के संस्थापक राजा धोरपाल देव ने भी इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया।
शेरगढ़ दुर्ग का इतिहास
यादवों के पश्चात् कुछ समय के लिये तोमरों ने भी इस दुर्ग पर शासन किया। सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में यह दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। ई.1500 में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने इस दुर्ग पर आक्रमण किया। एक वर्ष के घेरे के पश्चात् वह दुर्ग पर अधिकार कर सका। धौलपुर के पूर्व शासक के पुत्र विनायक देव ने कुछ समय पश्चात् ही इस दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया।
ई.1540 में यह दुर्ग शेरशाह सूरी के अधिकार में चला गया। उसने इस दुर्ग को नया रूप प्रदान किया। तभी से यह दुर्ग शेरगढ़ के नाम से जाना जाने लगा। शेरशाह सूरी के बाद इस क्षेत्र पर मुगलों का आधिपत्य रहा। अकबर ने भी एक रात्रि के लिये इस दुर्ग में विश्राम किया। 18वीं सदी में इस दुर्ग पर भदोरिया वंश के राजा कल्याणसिंह का तथा उसके बाद भरतपुर के जाट राजा सूरजमल का अधिकार रहा।
ई.1755 में मिर्जा नजबखां ने यह दुर्ग छीनकर अपने अधिकार में किया। ई.1806 में जब धौलपुर रियासत बनी और राजा कीतरसिंह गोहद छोड़कर धौलपुर आया, तब वह शेरगढ़ के किले में ही रहता था। ई.1811 में अपने ज्येष्ठ पुत्र राजा बहादुर पोपसिंह की मृत्यु के पश्चात् राजा कीरतसिंह ने इस दुर्ग को छोड़ दिया। इसके बाद इस दुर्ग का महत्व धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
शेरगढ़ दुर्ग का स्थापत्य
दुर्ग की 15 फुट मोटी प्राचीर में हजारों मोरियां बनी हुई हैं, जिनमें होकर किले की तरफ से ही शत्रु पर गोलियां चलाई जा सकती हैं। पूर्व दिशा में एक विशाल प्रवेश द्वार बना हुआ है जो अब जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इसके आगे एक के बाद एक करके तीन द्वार आते हैं। उत्तर दिशा में भी एक टूटा हुआ द्वार है। पश्चिम की ओर का द्वार ग्वालियर दुर्ग कहलाता है। राजा बहादुर पोपसिंह की मृत्यु के बाद यह द्वार बंद कर दिया गया था।
दुर्ग परिसर में तीन मंजिला इमारत चौपड़ा कहलाती है जो परकोटे से घिरी हुई है। दुर्ग के पश्चिमी हिस्से में प्राचीन महल बने हुए हैं। इस महल के सामने दरबार ए आम तथा हनुमानजी के मंदिर के खण्डहर हैं। एक तालाब एवं एक टांके के अवशेष भी देखे जा सकते हैं। धौलपुर को बसाने वाले राजा धोरपालदेव की समाधि भी इसी दुर्ग में स्थित थी जो बाद में बाढ़ में बह गई।
दुर्ग में बने मंदिर के पीछे स्थित बारहदरी में बैठकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया जा सकता है। दुर्ग की प्राचीर में अनेक बुर्ज बनी हुई थीं, इनमें से पांच बुर्ज आज भी देखी जा सकती हैं। दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक नियुक्त रहते थे। अष्टधातु की विशालकाय तोपें जो कभी युद्धों के काम आती थीं, दुर्ग की दीवारों पर जगह-जगह रखी हुयी हैं।
दुर्ग के दरवाजे पर रखी ऐसी ही ‘हनुहुंकार’ नामक विशालकाय तोप थी जो जनता ने वहाँ से लाकर शहर के मुख्य बाजार में इन्दिरा पार्क में पर्यटकों के लिये रख दी है। इन तोपों के गोले आज भी दुर्ग में इधर-उधर पड़े हुए मिल जाते हैं।
भग्नावस्था में पड़े इस प्राचीन दुर्ग के राज प्रसाद के समक्ष बने हनुमान मंदिर में किसी जमाने में राजा-रानी तथा राजपरिवार के अन्य सदस्य पूजा-अर्चना करने आते थे। दुर्ग में स्थित प्राचीन मंदिरों के दरवाजे कलात्मक हैं।
दुर्ग परिसर में जल की आपूर्ति के लिए दो बावड़िया बनी हुई हैं।
भित्ति-चित्र
ई.1532 के राजपूत शैली के भित्ति-चित्र देखने योग्य हैं। काल के थपेड़ों एवं संरक्षण के अभाव में ये चित्र धूमिल होकर नष्ट होते जा रहे हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता