वागड़ के दुर्ग संख्या में बहुत ही कम हैं। इनमें से कोई भी दुर्ग सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है। वागड़ गुहिलों द्वारा शासित क्षेत्र था। वागड़ के गुहिलों की दो शाखाएं हैं- डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा। ये दोनों शाखाएं मेवाड़ के गुहिलों से निकली है।
ई.1175 में जब मेवाड़ के राजा सामंतसिंह से राज्य छूट गया तब उसने वागड़ राज्य की स्थापना की किंतु वह ई.1179 में वहाँ से भी निकाल दिया गया। बाद में उसके वंशजों ने फिर से वागड़ का राज्य प्राप्त किया जो महारावल डूंगरसिंह द्वारा ई.1358 में डूंगरपुर बसाये जाने के बाद से डूंगरपुर राज्य कहलाने लगा।
महाराणा सांगा के समय डूंगरपुर पर महारावल उदयसिंह का शासन था। उसके दो पुत्र हुए- पृथ्वीराज एवं जगमाल नामक दो पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज के वंशज डूंगरपुर पर शासन करते रहे था कनिष्ठ पुत्र जगमाल के वंशज बांसवाड़ा राज्य के स्वामी हुए। यह राज्य डूंगरपुर राज्य में से ही अलग किया गया। ये दोनों ही बहुत छोटे राज्य थे जिनका राजस्व भी बहुत कम था। इसलिये इनके बनाये हुए दुर्ग भी बहुत कम संख्या में मिलते हैं।
धनमाता पहाड़ी का दुर्ग
डूंगरपुर में दक्षिण की ओर धनमाता की पहाड़ी पर लघु दुर्ग बना हुआ है। इस दुर्ग का निर्माण डूंगरपुर नगर की रक्षा के लिये सैनिक रखने के लिये किया गया था। दुर्ग की नींव ई.1283 में डूंगरपुर के महारावल वीरसिंह देव के शासनकाल में रखी गई। वीरसिंह देव के पौत्र महारावल डूंगरसिंह तथा प्रपौत्र महारावल कर्मसिंह के शासनकाल में दुर्ग का विस्तार हुआ। सबसे पहले हनुमंत पोल का निर्माण हुआ। उसके 15-20 वर्ष बाद घाटी दरवाजा बनाया गया। उसके बाद खाण्डीपोल, तोरणपोल एवं घण्टाला दरवाजा बनाये गये। महारावल शिवसिंह (ई.1730-85) ने इस दुर्ग का नाम शिवगढ़ रखा।
महारावल विजयसिंह (ई.1898-1918) के काल में धनमाता पहाड़ी पर लगभग एक किलोमीटर के क्षेत्र में विजयगढ़ियां का निर्माण हुआ। इनके निर्माण में मजबूत डाबड़ा पत्थरों एवं बलवाड़ियां पत्थरों तथा चूने का प्रयोग किया गया। यह दीवार लगभग ढाई फुट मोटी एवं 10 फुट ऊंची है। यहीं पर महारावल विजयसिंह ने विजय महल एवं जनाना महल का निर्माण करवाया। तब से यह दुर्ग विजयगढ़ कहलाने लगा।
देवलगढ़ी
डूंगरपुर से लगभग 7 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर देवलगढ़ी बनी हुई है। वर्तमान में यहाँ पुलिस चौकी काम कर रही है। यह 90 फुट गुणा 90 फुट क्षेत्र में बनी हुई है। इसका परकोटा लगभग 16 फुट ऊंचा एवं 8 फुट चौड़ा है। रियासत काल में इस गढ़ी में दाणाओं के निवास थे जो चुंगी वसूलने का काम करते थे। इस गढ़ी में चार गोलाकार बुर्जें बनी हुई हैं जो अब खण्डहर अवस्था में हैं। गढ़ी के निर्माण में स्थानीय पत्थर के साथ-साथ ईंट एवं चूने की चिनाई भी की गई है।
शिवपुरी (नवाडेरा) की गढ़ी
डूंगरपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में लगभग दो किलोमीटर दूर नवाडेरा क्षेत्र स्थित है। डूंगरपुर के महारावल शिवसिंह ने इसे शिवपुरी के नाम से बनाया था तथा अपने ही नाम से शिवगढ़ी का निर्माण करवाया था। शिवगढ़ी 200 फुट लम्बी एवं 200 फुट चौड़ी वर्गाकार भूमि पर बनी हुई है। इस गढ़ी में एक ही पंक्ति में 17 लघु देवालयों की श्ृंखला बनी हुई है। ये मंदिर भग्नवावस्था में अब भी खड़े हैं। इनकी मूर्तियां ई.1944 में महारावल लक्ष्मणसिंह द्वारा संग्रहालय में रखवा दी गईं। अब इस गढ़ी में स्थानीय लोग कचरा डालते हैं।
फतहगढ़ी
डूंगरपुर के महारावल फतहसिंह (ई.1790-1808) ने गेपसागर के उत्तर दिशा की एक पहाड़ी पर फतहगढ़ी का निर्माण करवाया। इसमें सेना रखी जाती थी तथा अपराधियों को फांसी देने के लिये भी यहीं लाया जाता था। गढ़ी की परिधि लगभग 1 किलोमीटर की है। पहाड़ी पर जाने के लिये 100 सढ़ियां बनी हुई हैं। इसमें एक मंदिर बना हुआ है जो अब भी अच्छी अवस्था में है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वागड़ के दुर्ग केवल डूंगरपुर राज्य की सीमा में ही स्थित थे। बांसवाड़ राज्य में सैन्य सुरक्षा के लिए अथवा राज्यपरिवार की रक्षा के लिए कोई भी दुर्ग नहीं बनवाया गया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता